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सियासत

वक्त के साथ केजरीवाल की असलियत परत दर परत उधड़ने लगी!

अरुणेश सी दवे-

एक वक्त था जब हममें से बहुत सारे ऐसे लोग केजरीवाल के अंध समर्थक बन चुके थे जो भाजपा की नफरत आधारित नीतियों के विरोधी थे। मेरा हाल ये था कि दोस्तों ने मेरा नामकरण लोकल केजरी कर दिया था।

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वक्त के साथ परत दर परत केजरीवाल की असलियत उधड़ने लगी। पहला खटका तब लगा जब जनता से चंदे की अपीलें नदारद होने लगीं। बिना जनसहयोग के कई राज्यों में एक साथ चुनाव लड़ें जाने लगे देश भर के अखबार विज्ञापनों से भरने लगे।

फिर विजय नायर नामक शख्स से केजरीवाल की नजदीकी और भ्रष्टाचार की छिट पुट जानकारियां पत्रकार मित्रों के जरिए मिलने लगी।

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मेरा भ्रम पूरी तरह टूटा दिल्ली के दंगों के दौरान इस आदमी के दोगलेपन से। राज्य के मुख्यमंत्री होते हुए अपनी जनता के बचाव में न उतरना, होंठ सिल लेना ऐन वैसा ही अपराध था जैसा गुजरात के दंगों में हुआ था।
जिन पत्रकारों को मैं निष्पक्ष और सत्यवादी मानता हूं उनमें से एक शीतल जी ने कहा है कि आबकारी घोटाले के आरोपों में सच्चाई है। मनीष सिसोदिया ने भले पैसे न खाएं हों लेकिन घोटाले की जानकारी होते हुए मौन रहना भी अप्रत्यक्ष सहयोग ही है।

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