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बहुत बड़े ‘खिलाड़ी’ शशि शेखर को पत्रकार नवीन कुमार ने दिखाया भरपूर आइना! (पढ़िए पत्र)

आदरणीय शशि शेखर जी,

नमस्कार,

बहुत तकलीफ के साथ यह पत्र लिख रहा हूं। पता नहीं यह आपतक पहुंचेगा या नहीं। पहुंचेगा तो तवज्जो देंगे या नहीं। बड़े संपादक तुच्छ बातों को महत्त्व नहीं दे। तब भी लिख रहा हूं क्योंकि यह वर्ग सत्ता का नहीं विचार सत्ता का प्रश्न है। एक जिम्मेदार पाठक के तौर पर यह लिखना मेरा दायित्व है। जब संपादक अपने अखबारों को डेरे में बदलने लगें और तथ्यों के साथ डेरा प्रमुख की तरह खेलने लगें तो पत्रकारिता की हालत पंचकुला जैसी हो जाती है और पाठक प्रमुख के पालित सेवादारों के पैरों के नीचे पड़ा होता है।

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आदरणीय शशि शेखर जी,

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नमस्कार,

बहुत तकलीफ के साथ यह पत्र लिख रहा हूं। पता नहीं यह आपतक पहुंचेगा या नहीं। पहुंचेगा तो तवज्जो देंगे या नहीं। बड़े संपादक तुच्छ बातों को महत्त्व नहीं दे। तब भी लिख रहा हूं क्योंकि यह वर्ग सत्ता का नहीं विचार सत्ता का प्रश्न है। एक जिम्मेदार पाठक के तौर पर यह लिखना मेरा दायित्व है। जब संपादक अपने अखबारों को डेरे में बदलने लगें और तथ्यों के साथ डेरा प्रमुख की तरह खेलने लगें तो पत्रकारिता की हालत पंचकुला जैसी हो जाती है और पाठक प्रमुख के पालित सेवादारों के पैरों के नीचे पड़ा होता है।

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कल का आपका अखबार पढ़ा। जिसके आप प्रधान संपादक हैं। रविवासरीय हिंदुस्तान। कई अखबार लेता हूं लेकिन एक आदत सी है कि हिंदी के अखबार सबसे पहले पढ़ता हूं। पहली लीड थी – बाबा के बॉडीगार्ड की गोली से भड़की हिंसा, छह पुलिसकर्मी और दो निजी सुरक्षाकर्मियों पर देशद्रोह का केस। मुझे अजीब लगा। एक दिन पहले खट्टर सरकार के ठप पड़ जाने की सारी तस्वीरें पूरा देश देख चुका था। साफ था कि हिंसा भड़की नहीं हैं भड़कने दी गई है। खबर से ऐसा लगा कि अखबार ने सरकार को साफ बचा लेने की नीयत से पूरी खबर लिखी है। कई घटनाएं ऐसी होती हैं संपादक जी, जो संपादकीय विश्वसनीयता के चीथड़े उड़ाकर रख देती हैं। 32 हत्याओं और 200 से ज्यादा घायलों पर एक अखबार सत्य को जब परास्त करने की कोशिश करता है तो तथ्य की लाश पहले ही बिछ जाती है। लेकिन अब यह इतना साधारण सिद्धांत नहीं रहा।

मैंने फिर बाकी के अखबार पढ़े। इंडियन एक्सप्रेस, टाइम्स ऑफ इंडिया, हिंदू, नवभारत टाइम्स, भास्कर और आप ही के अखबार का सहोदर हिंदुस्तान टाइम्स। पढ़कर एक अजीब सी विरक्ति से मन उचट गया। एक तो खबरें ऐसी थी और दूसरे मैंने अपने प्रिय अखबार को सत्ता के तल्ले के नीचे कराहते देखा था। पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने हालात पर टिप्पणी करते हुए कहा था – “प्रधानमंत्री देश के प्रधानमंत्री हैं, बीजेपी के नहीं। कुछ जिम्मेदारी उनकी भी बनती है।” आपने कभी सुना है किसी अदालत ने किसी प्रधानंत्री पर ऐसा अविश्वास जताया हो? उसकी जवाबदेही को ऐसे चिन्हित किया हो? उसकी क्षमताओं को लेकर इस कदर आहत महसूस किया हो? अपने सीने पर हाथ रखकर खुद से पूछिए शशि जी आपने कभी सुना है ऐसा कि अदालत को याद दिलाना पड़े आप देश के प्रधानमंत्री हैं पार्टी के नहीं? सुना है तो इस पत्र को यहीं स्थगित समझें और नहीं तो एक पाठक की तकलीफ को समझने की कोशिश करें। सारे अखबारों को लगा कि यह खबर है सिवाए दैनिक हिंदुस्तान और हिंदुस्तान टाइम्स के। आपके निबंध दोनों ही अखबारों में छपते रहते हैं। फिलहाल सिर्फ दैनिक हिंदुस्तान की बात क्योंकि पहली भाषा हिंदी होने के कारण उससे जुड़ाव ज्यादा है।

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मुझे लगा कि अंदर के पन्ने में कहीं छोटी सी खबर होगी जरूर। इतनी महत्त्वपूर्ण खबर को 30 पन्ने के अखबार से उड़ाने के लिए जिगर चाहिए। कोई संपादक इतना निर्लज्ज और निष्ठुर नहीं हो सकता कि वो प्रधानमंत्री को पार्टी का प्रधानमंत्री कहे जाने पर एक भी कॉलम की जगह न दे। और सच में आप साहसी निकले। आपने सच में प्रधानमंत्री पर अदालत की टिप्पणियों को पाठकों की नजर से बचा लिया था। फिर मुझे हंसी आ गई। टिटिहरी के बारे में छात्र जीवन के किस्से की याद आ गई। आपने भी सुना होगा। टिटिहरी जब सोती है तो पैरों को आसमान की तरफ उठाकर रखती है। उसे लगता है कि आसमान को उसी ने थाम रखा है नहीं तो वो गिर जाएगा और सृष्टि खत्म हो जाएगी।

आपके मन में कहीं न कहीं ये जरूर रहा होगा कि अगर हिंदुस्तान खबर उड़ा देगा तो किसी को पता नहीं चलेगा और शहंशाह की नजरों में आपका नंबर बढ़ जाएगा। हर गुनहगार को चोरी करते हुए यही लगता है। वो चाहे शहर का चोर हो या खबर का। नंबर बढ़ने वाली बात इसलिए कहनी पड़ रही है कि चौदहवें पन्ने पर ही सही आपने मुख्यमंत्री खट्टर पर अदालत की टिप्पणियों को तो जगह दी है लेकिन उसी टिप्पणी में नत्थी प्रधानमंत्री के गिरेबान को साफ बचा लिया है। इसलिए आप इस छूट के पात्र नहीं हैं कि रिपोर्टर ने खबर छोड़ दी या डेस्क वाले से भूल हो गई है। वैसे भी अदालत की खबर आपने एजेंसी से ली है और एजेंसी ने पूरी खबर दी थी। वैसे भी प्रधानमंत्री पर इतनी बड़ी टिप्पणी को ड्रॉप करने का फैसला प्रधान संपादक से नीचे का मुलाजिम नहीं ले सकता।

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आप तो जादूगर निकले शशि जी। सधा हुआ मंतरमार। हमने देखा है कि जादूगर नजरों के सामने से ताजमहल गायब कर देता है। कुतुबमीनार गायब कर देता है। और तो और हंसता-खेलता बच्चा गायब कर देता है। आप खबर गायब कर देते हैं। लेकिन पत्रकारिता के इस अपराध को जादू करना एक और अपराध हो जाएगा। इसे होशियारी कहते हैं। लेकिन हर जादू के बाद का सच ये है कि मतिभ्रम स्थायी नहीं होता। सूचना के अतिरेक और रफ्तार के दौर में यह मान लेना ही विचित्र लगता है कि अगर वो तथ्य को छिपा ले जाएगा तो वह जनता तक नहीं पहुंचेगा। मैंने जानबूझकर जनता शब्द का इस्तेमाल किया है पाठक का नहीं। क्योंकि इस फूहड़ मजाक के जरिए आपने एक खास प्रजाति की राजनीति की अनुयायी जनता को ही संबोधित किया था वर्ना पाठकों के विश्वास की फिक्र किसी को इस कदर बेईमान हो जाने की छूट नहीं देती।

जब मुझे लोग बताते थे कि आज का संपादक रहते हुए बाबरी मस्जिद को गिराने के समय आज अखबार में कैसे-कैसे जादू किए थे तो लगता था आप कच्चे रहे होंगे। तजुर्बे के अभाव में आपके भीतर का सवर्ण हिंदू फुफकार मार उठा होगा। लेकिन अब लगता है कि आप कच्चे नहीं मंजे हुए थे। आप तो बरसों से अपनी लाइन पर चल रहे हैं। वो तो हम हैं जो अभी भी अखबार को अखबार और संपादक को संपादक माने बैठे हैं। प्रधानमंत्री पर पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट की टिप्पणी को गोल करके मेरे जैसे लाखों पाठकों की बची-खुची धारणाओं को ध्वस्त कर दिया है।

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एक अखबार का खाप में बदल जाना खराब लगता है शशि जी। इससे भी खराब लगता है किसी संपादक का उस खाप का नंबरदार बन जाना। हम सब सत्य के साथ खड़े रहने के साहस के दुर्भिक्ष के दौर में जी रहे हैं। ऐसे में एक और संपादक का बेपर्दा हो जाना हमारी तरह के आशावादी लोगों के लिए एक और सदमा है। इस अपराध के लिए पाठकों से माफी मांगकर आप इस विश्वास की रक्षा कर सकते हैं लेकिन क्या एक बड़े अखबार का संपादक होने का दंभ और प्रधानमंत्री की नजरों से उतार दिए जाने का भय आपको ऐसा करने देगा?

आज से दैनिक हिंदुस्तान और हिंदुस्तान टाइम्स बंद कर रहा हूं। जानता हूं कि लाखों प्रतियों के प्रसार से एक प्रति का कम हो जाना राई बराबर भी महत्त्व नहीं रखता लेकिन पत्रकारिता के खापों को अपने ड्राइंग रूम में जानते-बूझते सजाकर रख भी तो नहीं सकता। सवाल केवल राम रहीम के डेरे का नहीं है। पत्रकारिता के डेरों और खापों का भी है। अफसोस, राम रहीम के डेरे के आतंक ने 32 नहीं 33 लाशें गिराई हैं। 33वीं लाश का नाम ‘हिंदुस्तान’ है।

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आपका,

एक सुधी पाठक

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नवीन कुमार

लेखक नवीन कुमार आजतक न्यूज चैनल में वरिष्ठ पद पर कार्यरत हैं.

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0 Comments

  1. विकास शुक्ल

    August 29, 2017 at 10:11 pm

    वाकई…धो डाला। और भाई की हकीकत भी सामने आ गई।

  2. अजय

    August 30, 2017 at 3:21 pm

    बेहतरीन…. चीड़- फाड़ !

  3. अजय

    August 30, 2017 at 3:24 pm

    बेहतरीन… चीड़- फाड़ पर कुछ लोगों को जलन मचेगी ही

  4. हिमांशु तिवारी आत्मीय

    August 30, 2017 at 10:02 am

    शशि शेखर जी पर लिखे गए नवीन कुमार के पत्र पर जवाब… आदरणीय नवीन कुमार जी, जब आप न्यूज़ एक्सप्रेस में राजनीति ब्लैक एंड व्हाइट नाम से शो लेकर आये तो आपकी कलम की स्याही से लावा बनकर फूटते शब्दों पर इसलिए नज़र गयी क्योंकि विनोद कापड़ी सर ने तारीफ के ड्रमों से अस्थायी पुल बांध दिए थे। स्क्रिप्ट की बाज़ीगरी ही मान ली मैंने। पर, शब्दों के डेरे से शोषण की कहानी तो बाहर आनी ही थी, सो आ भी गयी। संस्थान ने डेरा प्रमुख द्वारा लूट खसोट की बात को जानकर बेबी हनी की भी असलियत जान ली। फिर विदा विदाई हो गयी। बहरहाल आपको एक सरकार, एक वर्ग, एक समुदाय की वक़ालत लाइसेंसधारी के रूप में देखा। एक रिपोर्ट में लिफाफे के ढक्कन ने पुल को ढक्कन जैसा हलका साबित कर दिया। शशि सर पर आपकी उंगलियाँ सीमित नहीं देखी। न ही हिंदुस्तान पर। प्रधानमंत्री जी पर हाइकोर्ट की टिप्पणी पर कोर्ट का एक और बयान आया है। और उसमें जिस मीडिया की बात की गई है…वो मीडिया है या क्रोमा पर खड़ा वो एंकर जिसके पीछे कुछ नहीं होता पर जादूगर बन जनता को बहुत कुछ दिखा देता है या ये कह लीजिए सबकुछ दिखा दिया जाता है। तय आप ही करते आये हैं कि दोषी कौन है ? तो इस बार भी आप अदालत बने, डेरा प्रमुख महज नुमाइंदा रहा, राज्य सरकार और पीएम मुख्यरूप से कटघरे में रहे। पत्र के जरिये फैसला भी सुना दिया। लपेटे में हिंदुस्तान ही आता था लेकिन इस बार शब्दों का हिंदुस्तान आया। नया और तथाकथित क्रांतिकारी शब्दों के बम से वर्ग विशेष का समर्थन करता है, रोहित वेमुला में दलित पहचानता है, राष्ट्रवाद बनाम गौ रक्षक खड़ा करता है। शब्दों से वो तथाकथित क्रांतिकारी भीड़ बनाना चाहता है जो बनाम भीड़ हो। लाशें गिरें, संविधान चरमरा कर दोनों घुटनों के बल बैठकर रहम की दुहाइयाँ करे। डेरे के समर्थकों द्वारा की गई हिंसा में वाकई 32 नहीं 33 लाशें गिराई हैं। और वो 33वीं लाश है तथाकथित ….कारी की…
    आपका शुभेच्छु
    हिमांशु तिवारी आत्मीय
    [email protected]

  5. गौरव

    August 30, 2017 at 10:13 am

    आप जो रोना रो रहे हैं इसी मीडिया को कोर्ट ने प्रधानमंत्री पर अपनी टिप्पणी गलत तरीक़े से छापने पर फटकारा हैं ।

  6. anil srivastav

    September 1, 2017 at 7:13 am

    dear navinji
    aapne kafi satiq likha hai manniye sashi sekhar ke bare men.
    inki kargujari ki fehrist kafi lambi hai. inhone hindustan ke ex editor Ashok mishra ko bachane ke liye 5 sr journlist ki naukari le li. khabar ke sath wah apne staff ke sath bhi anayay karte rahe hain. yanha to bat PM ko lekar thi. again thanx navinji. Regards

  7. anil srivastav

    September 1, 2017 at 7:20 am

    dear navinji
    Aapne excellent postmartam kiya hai Hindusatan ka aur Sashi sekhar ka. unke karnamo ki list lambi hai. hindustan ke ex Editor Ashok mishra ko bachane ke liye sashi sekhar ne 5 sr journlist ki life barbad kar di. aise logo ka ka character dagdar hota hi hai. sobhna bhartiya ya Bidla pariwar ko yah nahi dikhta hai kya. bhagwan sadbudhi den. Regards

  8. Anil srivastav

    September 1, 2017 at 7:27 am

    dear navinji
    shandar likha hai aapne. hindustan ke sath editor sashi sekhar ka chehra bhi beparda kar diya. sasi ke karname ki list lambi hai. ek editor Ashok mishra ko bachane ke liye isne 5 sr journlisi ki life barbad kar di. bhagwan subudhi den Birla pariwar ko. Regards

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