संजय सिन्हा-
मार दिया, मर गए, खबर छप गई और बात है। लेकिन जिस तरह कल टीवी वालों ने मृत्यु को लाइव दिखलाया मैं रात भर सो नहीं सका। मुझे याद है कई साल पहले केरल में एक प्रोफेसर भाषण देते-देते अचानक हृदयघात से मर गए थे और मेरे एक वरिष्ठ साथी ने मेरे लाख मना करने के बाद भी उसे लाइव बना कर टीवी न्यूज़ चैनल पर दिखलाया था। देखिए लाइव डेथ। देखिए आदमी कैसे मरता है।
बाद में जो हुआ वो अलग कहानी है। सच्चाई ये है कि रात नौ बजे जो एंकर थी, वो खबर पढ़ते-पढ़ते लाइव शो से उठ गई थी। विचलित हो गई थी लाइव डेथ देख कर। ऐसा पहली बार हुआ था। जब एंकर ने एंकरिंग करने से मना कर दिया था। मुझे बहुत नाज हुआ था उस एंकर पर।
हर चीज की एक सीमा होती है। मुझे सच में हैरानी है कि कभी अतीक अहमद को लाइव पेशाब करते दिखलाने वाले न्यूज चैनलों ने उसे गोली मारते, खून उड़ते लाइव दिखलाया। ये पेशाब करते दिखलाने से भी अधिक जघन्य था। अगर यही खबर है, इतनी ही खबर की समझ है, तो मुझे डूब मरना चाहिए कि मैं कभी पत्रकार था।
मैं मृत्यु को इस तरह नहीं देख सकता। किसी को नहीं देखना चाहिए। आप मुझे कायर कहिए, संवेदनशील कहिए पर क्या नहीं दिखलाना है इसका ग्रामर तय होना ज़रूरी है। मुझे नहीं लगता है कि भारत सरकार की गाइड लाइंस में कहीं ऐसा होगा कि इस तरह वीभत्स दृश्य को बार-बार दिखलाया जाए। और अगर सरकार की आंखें बंद हैं तो मेरी ओर से- छी:।
मैं उस दिन अमेरिका में ही था, जिस दिन न्यूयार्क में दो विमान ट्वीन टावर से टकराए थे और हज़ारों लोग मारे गए थे। तब सीएनएन न्यूज़ चैनल उसे लाइव कवर कर रहा था। आपने दो इमारतों को जमीन में ध्वस्त होते हुए देखा होगा। हजारों लोग मरे थे। लेकिन क्या आपको एक भी शव दिखा? खून के छींटे भी आपको दिखे?
कुछ चीज़ें नहीं दिखलाने की होती हैं।
मुझ जैसे बहुत से कमजोर दिल के लोग होते हैं। भावुक दिल के होते हैं। इस तरह टीवी पर न्यूज दिखलाया जाएगा तो भले कुछ लोग ताली पीटें लेकिन मेरे पत्रकार होने पर तो मेरे मन में सवाल उठेगा ही। क्या सचमुच मैं कभी पत्रकार था? या फिर अब पत्रकारिता यही हो गई है? अगर हो गई है तो मेरी ओर से-
छी:।
अपराध, अपराधी का अंत अपनी जगह है। लाइव मर्डर अपनी जगह।
मैंने अतीक अहमद को लाइव पेशाब करते दिखलाने पर ऐलान किया था कि मुझे लगता है कि मैं कभी पत्रकार था ही नहीं। आज मैं ऐलानिया कहता हूं कि अब इस देश में पत्रकारिता ही नहीं बची है।ये बात आप नोट कर लीजिए कि आप अपने परिवार के साथ ‘केवल वयस्कों के लिए’ वाली फिल्म देख लेंगे उसका इतना बुरा असर घर पर नहीं होगा, लेकिन न्यूज़ चैनल देखेंगे तो एक दिन…
न्यूज चैनल देखना बंद कर दीजिए। इसलिए बंद कर दीजिए कि ये देख कर आपके नौनिहालों की संवेदना मर जाएगी। याद रखिएगा ये बात आपसे वो आदमी कह रहा है, जिसने अपना पूरा जीवन देश के लगभग सभी सबसे नामी न्यूज़ संस्थानों को दिया है। अगर आप ऐसा मानते हैं कि इन सबमें कभी मेरी भी भूमिका रही होगी तो प्लीज आज फिर यही मान लीजिए कि बिल्ली नौ सौ चूहे खा कर हज की बात कर ही रही है।
असल में मेरी चिंता आप हैं ही नहीं। भावी पीढ़ी है। आप उसे अगर ये सब दिखलाएंगे तो वो क्या बनेगी, बताने की ज़रूरत नहीं। समय रहते समझ लीजिए।
गलती से एक बार कोई चैनल कुछ दिखला दे तो माफी भी बनती है। लेकिन बार-बार? बार-बार? अगर ये टीआरपी है तो संजय सिन्हा की ओर से- छी:।
यकीन कीजिए मैं रात भर विचलित रहा हूं लाइव डेथ देख कर। इस संसार में मुझ जैसे कमजोर लोग बहुत हैं। ये सब देखने की ‘मजबूती’ में कहीं हम खुद अपराधी न बन जाएं।
आप मुझे कोसिए। मुझ पर हंसिए। पर मैं इस खेल से बाहर हूं। मेरे लिए जितना महत्वपूर्ण भाषा में व्याकरण है, उतना ही महत्वपूर्ण जीवन में भी…
आपने अपने बच्चों को सत्य कथा, मनोहर कहानियां जैसी पत्रिकाएं नहीं पढ़ने दीं। आप उन्हें ये सब देखने देंगे? ये देख कर बच्चे क्या सीखेंगे, क्या समझेंगे? जो देख रहे हैं उस पर- छी:।
जिस दौर में आज मीडिया है, मुझे भूख से मर जाना मंजूर है, पर पत्रकारिता नहीं। पहले कभी गलती से टीवी न्यूज़ चैनल पर लाइव में किसी ने गाली दे दी होती थी और वो आन एयर चल जाता था तो संपादक को माफी मांगनी पड़ती थी। कल सब व्याकरण गायब थे। मुझे पहले लगा कि शायद लाइव टेलीकास्ट हो रहा होगा, एक बार दिख गया। लेकिन बार-बार? इसका मतलब ये सब सोच समझ कर? अगर यही पत्रकारिता है तो -आक थू…sss ।
वाह कहीं आह न बन जाए
टीवी न्यूज़ चैलन में नया दौर शुरू हो गया था। कभी अंतरिक्ष से कोई यान आता और गाय उड़ा कर ले जाता, कभी किसी का पुनर्जन्म हो जाता। हमारे पास पुनर्जन्म के दस जन्मों का लेखा-जोखा होने लगा था और हम इस बात पर खुश होते थे कि आज हमने कुछ भी दिखला कर टीआरपी के संसार में बाजी जीत ली है। नाग-नागिन प्रेम, किले में प्रेत की कहानी की तलाश हम सब दिन रात करते थे।
टीवी खबरों का संसार धीरे-धीरे उससे आगे बढ़ा। हम पहुंच गए उस दौर में जब रिपोर्टर ट्यूबलाइट खाने वाले, बालों से ट्रक खींचने वाले, ब्लेड चबाने वाले धुरंधर ढूंढ कर लाने लगे। ये दौर खली के दौर से पहले का था। बाद में जब खली का दौर आया तो पूरी मीडिया टीम अमेरिका तक की यात्रा कर आई। मुझे याद है कि पहली बार हमारे एक साथी कैसे मेरठ से डब्लू डब्लू एफ की कुश्ती की सीडी लेकर आए थे कि संजय सर, इसमें एक भारतीय पहलवान है जो एक अंग्रेज को पटक-पटक कर मारता है। हमने उसे भी खबर के रूप में परोसा। इस सच को जानते हुए भी ये कुश्ती फर्ज़ी है। हमारी खूब वाहवाही हुई। वो पहलवान ही खली था।
ये सोचने वाला विषय हो सकता है कि संजय सिन्हा आज अपने संसार को लेकर क्यों चिंतित हैं?
याद होगा कि मैंने आपको एक बार अपने उस साथी की कहानी सुनाई थी जो ऑफिस आकर रो रहा था कि संजय, आज मेरा बेटा घर में एक बल्ब तोड़ कर अपनी बहन को खाने के लिए कह रहा था। वो तो समय पर मैंने ये देख लिया, नहीं आज मेरी बेटी का क्या होता मैं सोच भी नहीं सकता। वो अपना सिर पीट रहा था कि उसी ने ये खबर टीवी पर दिखलाई थी कि एक आदमी सुबह नाश्ते में बल्ब तोड़ कर चबाता है। खबर दिखलाते हुए वो बहुत उत्साहित था, लेकिन तब वो ये नहीं सोच पाया था कि उसके घर में उसी का बेटा ये प्रयोग अपनी छोटी बहन पर करने लगेगा।
बच्चे ने टीवी पर देखा और मान लिया कि बल्ब तोड़ कर खाया जा सकता है।
मैंने जब ये कहानी सुनी थी तो अपना सिर पीट लिया था। मैं सोचने लगा था कि हम बिना सोचे-समझे न्यूज़ चैनल पर जो दिखला रहे हैं उसके असर के बारे में नहीं सोचते?
मेरे एक और साथी ने मुझे बताया था कि कुछ दिन पहले उसके सात साल के बेटे का अपनी ही सोसाइटी में खेलते हुए एक बच्चे से झगड़ा हो गया। मेरे साथी के बेटे ने झगड़े के दौरान दूसरे बच्चे से कहा कि तुम मुसलमान हो, तुम पाकिस्तान चले जाओ।
बच्चा ये सुन कर रोने लगा था। रोता हुआ वो घर गया और अपनी मम्मी से उसने कहा कि मिश्रा अंकल के बेटे ने उससे ऐसा कहा है। बच्चे की मां तुरंत मिश्रा जी के घर गई? मिश्रा जी ये सुन कर हैरान थे कि उनके बेटे ने ऐसा कहा।
वो सोचने लगे कि उनके सात साल के बेटे ने ये बात सीखी कहां से? आजकल स्कूल में ऐसी बातें हो रही हैं क्या? उन्होंने महिला से माफी मांगी और कहा कि वो बेटे को समझाएंगे।
बेटा जब खेल कर घर आया पिताजी ने पूछा कि तुमने अपने दोस्त से ऐसी बात क्यों कही? बेटे ने बताया कि कल टीवी पर एक अंकल दूसरे अंकल से कह रहे थे कि आप मुसलमान हैं, आपको यहां नहीं अच्छा लगता तो पाकिस्तान चले जाइए। बस मैंने भी अपने दोस्त को कह दिया।
मेरा साथी मुझसे ये कहते हुए सुबक पड़ा था और इस बात को सुनते हुए संजय सिन्हा के कान गर्म हो गए थे। मेरे मन में बार-बार आ रहा था कि ये बात टीवी न्यूज़ स्टुडियो में किसी ने किसी के लिए कही होगी। हमने उस कहे को स्टुडियो से आसमान में भेजा और आसमान से घर-घर पहुंचाने का गुनाह किया है।
मेरा साथी बहुत परेशान होकर मुझसे इस बात की चर्चा कर रहा था कि हमने सब कुछ बांट दिया है। कुछ अनजाने में, कुछ जानबूझ कर। बिना ये सोचे कि इसका असर क्या होगा। इसी कड़ी में उसने मुझसे एक और कहानी साझा की। उसने बताया कि संजय जी, आपको पता है कि मेरा नाम मनीष है। मैं ब्राह्मण हूं। पर हमने कभी जाति, धर्म के बारे में नहीं सोचा। हमारी सोच में तब किसी ने ये फर्क नहीं बोया। उसने बताया कि आज मैं आपको एक और बात बता रहा हूं। मेरा नाम मनीष है लेकिन घर में मेरे पुकार का नाम मुज़ीब है। अब सोचिए कि एक ब्राह्मण के बेटे को घर में लोग मुजीब बुलाते हैं और किसी को अटपटा नहीं लगता।
मैं भी हैरान था कि मनीष का नाम मुज़ीब क्यों?
मनीष ने बताया कि जिस दिन उसका जन्म हुआ था, ढाका में शेख मुज़ीबुर्र रहमान की जेल से रिहाई हुई थी। जन्म के समय ही ये ख़बर आई थी कि मुज़ीब छूट गए तो चाचा ने कहा कि घर में मुजीब आया है। बस यही नाम हो गया। मां आज भी मुज़ीब बुलाती है। पूरा घर, पूरा गांव मुज़ीब बुलाता है। पर किसी के मन में धर्म को लेकर विषाद नहीं। पर अब ये क्या हो गया है? क्यों हो गया है?
हम दोनों चाय के साथ बात करते-करते बहुत देर के लिए खामोश हो गए। मुझे नहीं पता कि इन सब बातों के लिए दोषी कौन है, ज़िम्मेदार कौन है। लेकिन अपना दोष और अपनी ज़िम्मेदारी तो हम दोनों मान ही रहे थे। समझ ही रहे थे कि बल्ब तोड़ कर खाने की खबर हम दिखलाएंगे तो सिर्फ दूसरों के बच्चे ही बल्ब तोड़ कर शीशा खाएंगे ऐसा नहीं होगा। एक दिन बल्ब का शीशा हमारे बच्चे भी खा ही सकते हैं।
परसों रात दो अपराधियों को तीन बच्चों ने (बच्चे जैसे ही थे) गोली मार दी। टीवी पर सब साफ-साफ दिखाया गया। कई बार दिखलाया गया। कई लोग ये देख कर विचलित हुए, कई लोगों ने कहा वाह! मारने वाले बच्चों ने कहा कि वो ऐसा करके मशहूर होना चाहते थे। बस।
मुझे अधिक नहीं कहना है। बस इतना ही कहना है कि जो वाह कह रहे हैं, उन्हें सोचना होगा कि कहीं जो उनके किसी बच्चे ने कभी इसी शोहरत में बंदूक उठा ली तो क्या होगा। बहुत असर होता है बच्चों के मन पर घर में बैठे काले बक्से का।
मुझे शिकायत सिर्फ टीवी पर लाइव टेलीकास्ट से है। प्लीज़ इसे किसी और रंग में मत रंगिएगा। संजय सिन्हा सिर्फ इस चिंता में हैं कि बच्चों के मन पर क्या असर पड़ेगा? कहीं वो इसे शोहरत का साधन मान बैठे, कहीं इसे ही बड़ा नाम होना मान बैठे तो फिर?
संजय सिन्हा कि चिंता इतनी ही है कि ये टीवी आपके नौनिहालों के सामने एक नया नामी करीयर विकल्प न परोस दे। रोल मॉडल हमारी आपकी खुशी से ही तय होते हैं।
भारत के पत्रकारों से सावधान रहिए! क्या पता कब वह आपको आपके ही ख़िलाफ़ खड़ा कर दें! इन पत्रकारों का ये हाल है कि खबरों को सनसनीखेज बनाने के लिए कुछ भी कर सकते हैं, सिवाय तथ्यात्मक रिपोर्टिंग के. आपको याद होगा जब श्रीदेवी की मौत की गुत्थी सुलझाते हुए हर पत्रकार शरलॉक होम्स बना हुआ था. एक पत्रकार ने तो गज़ब ही तथ्य खोज लिया था. बाथटब में लेटकर उन्होंने अपने दर्शकों को ये दिव्य ज्ञान दिया था : “यहाँ दर्शकों को ये बात बताना ज़रूरी है कि प्राप्त जानकारी के मुताबिक, श्रीदेवी अपनी मौत के कई मिनट पहले टब में ज़िंदा थीं!” मुझे तो पता ही नहीं था कि मौत से पहले लोग ज़िंदा भी हुआ करते हैं! ऐसा दिव्य ज्ञान भारत के महान पत्रकार ही दे सकते हैं! -मनोज अभिज्ञान
Krishn
April 18, 2023 at 12:53 pm
Manoj ji.. मेहनत कश पत्रकारिता के लिये धन्यवाद।
मैं जानने का इच्छुक हूं की मनीष/मुजीब की संस्थान में कार्य करते थे।
प्रतीक्षा में।
[email protected]
श्री कृष्ण
April 18, 2023 at 12:54 pm
Why this message –
You are bullshit