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प्रभाषजी और माथुर साहब के मालवा से एक पाती

हेमंत शर्मा (संपादक, प्रजातंत्र)-

निकलना मंगलवार की सुबह जल्दी था लेकिन जैसा कि हमेशा होता है आखिरी समय से एक-डेढ़ घंटा और देरी से ही निकल पाए। मालवा के जाने-माने स्वतंत्रता सेनानी और पत्रकार रहे स्वर्गीय कन्हैयालाल वैद्य की जन्म तिथि पर आयोजित व्याख्यानमाला में थांदला नहीं पहुंचने का कोई कारण नहीं था क्यूंकि एक तो उस परिवार की आजादी के आंदोलन में भूमिका और फिर उनके पुत्र क्रांतिकुमार वैद्य के आग्रह पर लगभग एक महीना पहले ही हामी भर दी थी। आमतौर पर अब व्याख्यान लैपटॉप या मोबाइल फोन के सामने होते हैं इसलिए उनमें अपनी कोई रुचि होती नहीं। खबरिया चैनलों की बहस को अपन कोई न कोई बहाना बनाकर टाल देते हैं क्योंकि जिनको गरियाना है उनके ही माध्यम पर फिर खुद को उनका औजार बना देना अपने को सुहाता नहीं।

मंगलवार की यात्रा का प्रयोजन भी यही था। हिंदी पत्रकारिता का पतन और भाषा की भूमिका पर वैद्यजी ने बोलने को कहा था और बड़े दिन से उत्तरप्रदेश चुनावों में प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के अब तक के सबसे निकृष्ट रवैये से मन दुखी भी था कि खराब पत्रकारिता को लेकर इतना भरोसा इससे पहले कभी नहीं देखा। कई दिनों से विचार कौंध रहा था कि प्रभाष जोशी या राजेंद्र माथुर होते तो मीडिया की इस भूमिका पर कितने कागद कारे होते? प्रभाषजी ने तो आखिरी समय तक मीडिया में चलने वाली ‘पेड न्यूज़’ की मुखालफत की और उसके खिलाफ न सिर्फ खुलकर लिखा बल्कि अभियान भी चलाया। ‘पेड चैनलों’ और ‘पेड अखबारों’ पर वे क्या सोचते और क्या लिखते ये सवाल थांदला पहुंचने तक मन में चलता रहा। संयोग से इंदौर, जहाँ से इस सफर की शुरुआत हुई वह प्रभाषजी और माथुर साहब की कर्मस्थली रहा है और जिस रास्ते से गुजरकर थांदला पहुंचे थे उसके बिलकुल बीच में पड़नेवाला बदनावर माथुर साहब की जन्मस्थली भी है।

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थांदला बहुत छोटी जगह है। इतनी छोटी कि जहाँ हर कोई हर किसी को पहचानता है। यहां बाजार सिर्फ वही है जहाँ से गाड़ियां गुजरती हैं। गाड़ियों के गुजरने के कारण वहाँ होटलें बनी हुई हैं जो असल में बस और जीप-कारों में सवार यात्रियों के रुक कर चाय-पान करने की जगह है या किसी आदिवासी परिवार द्वारा बस के इंतजार में दो पल गुजारने की जगह। और मालवा में गांवों में मौजूद ऐसे बाजारों और इन चाय-पान के ठियों पर इंतजार करते अपना बचपन बीता है इसलिए कोई चालीस-पैंतालीस साल पुरानी यादें ताजा हो गईं।

इंदौर के जाने माने पत्रकार और प्रभात किरण के संपादक प्रकाश पुरोहित जो कि खुद भी मालवा-निमाड़ के ऐसे सफर पर पिछले कई दशकों से लिखकर चौंकाते आए हैं कि बेटमा में सड़क किनारे अलग तरह का मावा (अलग तरह से बने गराडू) खाना भला एक संपादक के लिखने का विषय भी हो सकता है! प्रकाशजी के बेटे सुदीप इस सफर में साथ थे क्योंकि उस दिन उनकी छुट्टी थी और मालवा में लगभग चार सौ किलोमीटर आने-जाने के आनंद से वो खुद को वंचित नहीं रखना चाहते थे। और इस आनंद का सीधे-सीधे आशय रास्ते में होने वाले खान-पान से ही है। मालवा की खासियत यह है कि हर पाँच किलोमीटर बाद आने वाले किसी गाँव या कस्बे के खान-पान में भी कोई अलग खासियत जरूर मिल जाएगी।

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समोसे के जिस स्वाद पर इंदौर रश्क करता है वह सिर्फ बीस किलोमीटर आगे जाकर बेटमा में अरुण उपाहार गृह (हर जगह लिखा उपहार गृह जाता है) जाकर खत्म हो जाता है। और बीस-तीस किलोमीटर आगे धार वाले नागदा की कचौरी (उत्तर भारत वाले जिसे कचौड़ी कहना पसंद करते हैं) का स्वाद और दस किलोमीटर आगे जाकर कानवन पर बदल जाता है। नागदा की कचौरी के स्वाद को कानवन वाले अपनी कचौरी में नहीं ला पाए तो कानवन जैसी फूली-फूली कचौरियां नागदा में कभी बन ही नहीं पाईं। और इन सबके बीच बदनावर की कचौरी हो, पोहे हों, मूंगफली के नमकीन दाने हों या फिर बस स्टैंड की एक दुकान पर मिलने वाले मावा-मिसरी के लड्‌डू हों जिनका स्वाद अपन लगभग चार दशक से देश भर में ढूंढ रहे हैं लेकिन कहीं मिला ही नहीं।

इस पूरे इलाके में खान-पान का ये स्वाद कैसे पहुंचा होगा यह तो समझ में आता है लेकिन हर पाँच-दस किलोमीटर पर बदल कैसे जाता है इस पर आर्थिक, सामाजिक, भौगोलिक और इतिहास विषय के जानकारों को खोजबीन करनी चाहिए। मालवा का ये मनक कैसा गज़ब है कि राजेंद्र माथुर के धीर-गंभीर संपादकीय को पढ़ते हुए पहले देवास में कुमार गंधर्व की संगत में जाता है, कुमारजी पर राहुल बारपुते का लेख पढ़ता है और फिर उसी अखबार के बीच कचौरी को दबाकर उसका तेल निकाल देता है और चाय के साथ आनंद लेकर खा लेता है। बिलकुल निर्मोही कबीर जैसा कि उसी अखबार को पढ़कर दीवाने हुए और फिर उसी में कचौरी का तेल निकालकर फेंक दिया।

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तो जब थांदला में अखबारों की भाषा पर बात शुरु हई तो यह कहना ही पड़ा कि इंदौर में बाद में आए अखबारों की तो खैर न कोई भाषा थी और न संस्कार लेकिन जो इत्ते बरस से हिंदी का पुरोधा बना हुआ था उसकी हिंदी भी ऐसी थी जैसे किसी सरकारी राजभाषा अधिकारी ने अखबार में पार्ट टाइम जॉब पकड़ लिया हो। उसकी सरकारी दफ्तर वाली भाषा पर अखबार और पाठक ऐसे रीझे जाते थे जैसे हिंदी को नया जनम मिल गया हो। यह भाषा ठीक वैसी ही थी जैसी गजट या सरकारी कामकाज की होती है या फिर स्कूल और कॉलेज में (विद्यालय और महाविद्यालय) प्रश्न पत्रों की होती है। उस दौर का अखबार पढ़ने वाली पीढ़ी ने तो इसे इसलिए स्वीकार कर लिया कि उसकी पढ़ाई भी इसी भाषा में हुई थी लेकिन इसके बाद से पुरोधा की भाषा का घमंड टूट गया। बाद में जो आए उन्होंने तो यह साबित किया कि भाषा-वाषा कुछ नहीं, साथ में मुफ्त में मिलने वाली आधा किलो चाय की पत्ती या प्लास्टिक की एक बाल्टी, किसी भी भाषा पर ज्यादा भारी है।

लेकिन उस पूरे दौर में अखबार यह नहीं समझ पाए कि भाषा का मामला पाठकों की आदत से जुड़ा होता है और इससे अखबार पाठक की आत्मा तक पहुंचता है। लेकिन यह आदत बनेगी तभी जब आपके कांटेंट में दम होगा। और माथुर साहब या राहुल बारपुते वाले अखबार के कांटेंट में दम था जिसके चलते अखबार की धूम देश भर में मची रहती थी। पर अखबार की भाषा वही थी जिसे ‘आधुनिक हिंदी’ कहा गया है और जिसे कोलकाता के फोर्ट विलियम कॉलेज में ईस्ट इंडिया कंपनी के एक अधिकारी जॉन गिलक्रिस्ट ने सामने बैठकर तैयार करवाया था। ये जॉन गिलक्रिस्ट एक स्कॉटिश सज्जन थे जो पहले सर्जन हुए फिर बैंकर। और जब वहां भी नहीं चल पाए तो ईस्ट इंडिया कंपनी में भर्ती होकर भारत आ गए और यहां एक ऐसे भाषाविद् बन गए जिन्होंने हमारी ‘आधुनिक हिंदी’ को तैयार किया है। इसकी जरूरत भी इसलिए पड़ी थी क्योंकि 1857 के गदर के बाद अंग्रेजों को यह बात समझ आ गई थी कि अब हिंदुस्तान पर राज करना है तो हिंदू-मुसलमान को अलग-अलग करना ही पड़ेगा और यह काम भाषा के आधार पर दोनों को अलग करने से ही होगा।

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अंग्रेज आधुनिक हिंदी को हिंदुओं की भाषा और उर्दू को मुसलमानों की भाषा में बांटने पर सफल रहे और गिलक्रिस्ट महोदय अपनी जिम्मेदारी निभाने में फिर असफल क्योंकि जो हिंदी उन्होंने तैयार करवाई थी उसे हिंदुस्तान की जनता चाहे वह किसी भी पंथ की हो-मानने को तैयार नहीं थी। ना तो उसमें उर्दू थी, ना अवधी, ना ब्रज और ना ही उन शब्दों की मौजूदगी जो आम लोग दिन-रात बोलते थे। इस भाषा को सबसे पहले बनारस के पंडितों ने खारिज किया लेकिन सरकारी हिंदी के रूप में थोपे जाने के कारण इसकी उपयोगिता न होते हुए भी स्वीकार्यता तो बन ही गई।

अभी के उत्तर प्रदेश के अखबारों और दिल्ली के खबरिया चैनलों की नीयत और ईस्ट इंडिया कंपनी की मजबूरियों को अगर साथ रखकर देखें तो आसानी से पता चल सकता है कि पत्रकारिता के इस पतित रूप तक हम कैसे पहुंचे हैं? अच्छी बात यह है कि देश की राजधानी से लगभग आठ सौ पचास किलोमीटर दूर आदिवासी इलाके के एक छोटे कस्बे में इस पर बातचीत करने 50-100 लोग इकट्ठा हुए थे जबकि यह काम राजधानी में होना चाहिए, प्रेस कौंसिल से लेकर हर उस संस्था को करना चाहिए जो अखबार या खबरिया चैनलों की नेता बनी हुई है। लेकिन ये संस्थाएं इसलिए चुप हैं कि इनमें जो लोग मौजूद हैं वे उन्हीं अखबारों और चैनलों से आते हैं जो हर रात अखबारों और टीवी स्टूडियो में पत्रकारिता का तर्पण करते हैं। हिंदू मान्यताओं में वैसे एक बार ही तर्पण का विधान है लेकिन लगता है यह सिलसिला तब तक चलता रहेगा जब तक सत्ताएं इनके अस्तित्व को ही खत्म नहीं कर देंगी। शायद पत्रकारिता के लिए वही किसी नए दिन की शुरुआत हो…।

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