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पत्रकारिता में नौकरी के विज्ञापनों का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण होना चाहिए!

नदीम एस अख़्तर-

पत्रकारिता में नौकरी के लिए आए तथाकथित विज्ञापनों यानी लिखित इश्तिहार को देखकर दंग रह जाता हूँ। इसका मनोवैज्ञानिक विश्लेषण होना चाहिए कि उन विज्ञापनों को लिख कौन रहा है यानी शब्द किसके हैं? सम्पादक के या फिर मालिक के? ज़ाहिर है HR वाले इतनी लम्बी-चौड़ी हिंदी या अंग्रेज़ी लिखकर डिमांड नहीं जताएंगे।

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मसलन किसी को आगे बढ़कर काम करने वाला साथी चाहिए, किसी को पत्रकार, कैमरामैन, एडिटर और नौकर-चाकर, इन सारे गुणों से सुशोभित एक ही व्यक्ति चाहिए, वह भी बेहद कम दाम यानी सैलरी पर। किसी को भाषा की अच्छी समझ वाला ज्ञानी चाहिए, किसी को जनरल नॉलेज का रोबॉट चाहिए, किसी को दूसरे वेबसाइट्स की खबर टीपकर उसे अलग अंदाज में पेश करके हिट्स बटोरने वाला जादूगर चाहिए और किसी को ऐसी मशीन, जो ना दिन देखे और ना रात, बस बिना छुट्टी लिए तथाकथित पत्रकारिता के हल में जुतता रहे और मालिक-संपादक बने बेशर्म को कमाकर देता रहे।

किसी बड़े मीडिया संस्थान को यूपी चुनाव के लिए इंटर्न चाहिए तो वो भी मुफ्त। क्यों? क्योंकि पत्रकार को पैसा कौन देता है! इनका यही मानना होता है कि जो जीवन में कुछ नहीं कर पाया, वह पत्रकार बन गया। फिर पैसे किस बात के? इंटर्नशिप दे दी, यही एहसान कर दिया। लेकिन वही मीडिया संस्थान जब किसी मैनेजमेंट ट्रेनी यानी MBA वालों को इंटर्नशिप देगा तो उसे बाइज़्ज़त पैसे भी देगा और संस्थान के अंदर काम करने का माहौल भी ताकि संस्थान की प्रतिष्ठा मार्किट में खराब ना हो।

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इसलिए जो सम्पादक अलौकिक गुणों से परिपूर्ण पत्रकार ‘साथी’ प्राप्त करने के लिए लम्बी-चौड़ी टिप्पणी लिखकर विज्ञापन देते हैं, वे पहले ये बताएं कि उन्हें पहली नौकरी कहाँ मिली थी और उनके किन गुणों को देखकर दी गई थी? अपना वक़्त याद करेंगे तो नए पत्रकारों का शोषण करने में शायद उन्हें कुछ शर्म आए।

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