मनीष दुबे-
8 अप्रैल को मेरे फोन पर एक मैसेज आया.
“मनीष जी, मार्च महीने का आप का जो भी पेमेंट है वो हम जल्द ही आप को भेजेंगे…..धन्यवाद, शालिनी!”
मुझे लगा… कोई बात नहीं.
गुरुवार 9 अप्रैल को मैं मौज के चक़्कर में इन्हें मैसेज किया, “जी 65-70 हजार रुपया बकाया है.”
मेरे 65-70 के मैसेज पर मैडम अकबका गईं. बोलीं- “मनीष जी पर आपने सिर्फ एक रिपोर्ट की है, जिसका 500 होता है. फिर 60-70 हजार कैसे देगे हम आप को.”
मैंने कहा- ‘तो इतने maasege में.. 3 दिन?’
‘मैं समझी नहीं’…. उक्त मैडम बोलीं.
मैंने जवाब दिया- ‘जिन्होंने आपसे ये मैसेज कराया उनसे समझियेगा मैम. और कोई बात नहीं. व्यवस्था न हो तो मत भेजिएगा! स्वतंत्र पत्रकारिता को अपना योगदान.’
मेरे इस मैसेज से लगा की मैंने मैडम के जमीर को ललकार दिया हो. उनका जवाब आया- “मनीष जी गांव के लोग एक बड़ी संस्था है जहां पर कई स्टाफ और फ्रीलांसर काम करते है. जिस मैसेज की आप बात कर रहे है वो किसी और ने नहीं मैने भेजी है अभी मेरे परिवार में मेरी दादी जी का स्वर्गवास हो गया है जिस कारण मैं मेरे घर आई हूं इसलिए जितने फ्रीलांसर को पेमेंट नही जा सका है उन्हे एक मैसेज देना मुझे उचित लगा इसलिए आप को भी की. मैं ये नही देखी थी कि आप की कितनी स्टोरी गई है या नही गई है इसलिए बिना रकम डाले आप को मैसेज कर दी थी.”
दादी के स्वर्गवास पर अपन भी लजा गए. बोला – “ओह्ह सॉरी.”
लेकिन भाइयों-बहनों मितरों एक बात बताओ, कोई मजदूर है. उसने आपके लिए कुछ काम किया. मार्च बीत गया, अप्रैल गुजरने को है. बकाया पैसा मात्र 500 रुपये है और आप इतना ही उसे नहीं दे पा रहे तो घंटे की बड़ी संस्था हैं!
मजदूर को अभी भूख लगी हो, आप 8 तारीख को बोले जल्दी खाना खिलाएंगे. 9, 10, 12, 15, 20 निकलते बीतते तारीख हुई 28. तो का बंदा भूखा ही रहेगा क्या? फिर कह रहे बड़ी संस्था है.
इसीलिए मैने कहा था- बड़ी संस्था को मेरी तरफ से 500 का योगदान. फिर काहे लजा-नरभसा रहीं, मैडम. वैसे भी अपने उरूज पर मैं एक दिन में 1.5-दो हजार की दारू ही पी जाता था.
एक बात और मीडिया संस्थान चलाने में सबका कलेजा यशवंत सा नहीं होता. देनदारी बताउंगा तो लिखने को कलम और कागज दोनों कम पड़ जाएंगे.
बात ये भी है कि मेरी मंशा किसी को बदनाम करने या फिर नीचा दिखाने की नहीं है. ना ही 500 रुपया कोई बड़ी रकम है. मैं तो कह रहा हूं कि रख लो. मेरा योगदान समझना. लेकिन बात छोटी हो या बड़ी, अपन गलत, मिथ्या, बक्लोली जरा भी बर्दाश्त नहीं करते. अपन प्रधानमंत्री तो हैं नहीं, जो काम खुद करें और उस काम का आरोप दूसरों पर थोपें. फिर कहें कि- हम न खाएंगे और न खाने देंगे. जबकि सबसे ज्यादा ठूंस गए. हम सीधी बात और सीधी चोट करते हैं…साहब. इसीलिये पंडितों, ठाकुरों और अल्पसंख्यकों से ही अपनी पटती भी है, बाकी नहीं.