प्रकाश के रे-
मीडिया के आज के पतन को देखना हो, तो थोड़ा पीछे जाना चाहिए. अस्सी के दशक के मध्य में रामनाथ गोयनका का अख़बार एक्सप्रेस राजीव गांधी सरकार के ख़िलाफ़ पर्चेबाज़ी में वयस्त था. उनका सरकार विरोध इस हद तक चला गया था कि वे सरकार गिराने के षड्यंत्र में भी लगे हुए थे. वे धीरूभाई अम्बानी के ख़िलाफ़ भी मोर्चा खोले हुए थे, पर किसी पत्रकारीय आदर्श के लिए नहीं, बल्कि बदले की भावना से. आज दिल्ली के हर तरह के हर नामचीन पत्रकार को उनके नाम से दिया जानेवाला पुरस्कार मिल चुका है.
आज जो एक मीडिया समूह कांग्रेस के पीछे बुरी तरह पड़ा हुआ है, उसके मालिकान ख़ानदानी कांग्रेस समर्थक रहे हैं. एक दूसरे बड़े मीडिया समूह के मालिकान की तरह वे भी राज्यसभा भेजे जाते रहे. एक बड़े अख़बार का भाजपा-संघ से बहुत पुराना नाता किसी से छुपा हुआ नहीं है. ऐसे दो और बड़े अख़बार हैं. मुख्यधारा की पार्टियों और राजनीतिक तंत्र में गड़बड़ियाँ थीं और हैं. इसमें कॉर्पोरेट और श्रेष्ठि वर्ग सहयोगी की भूमिका में होता है. मीडिया तो तब भी ऐसा ही था और अब भी, थोड़ा पतित भले हुआ हो.
याद करें, मनमोहन सिंह के दौर में सरकारी दफ़्तरों से दस्तावेज़ लीक कर मीडिया में छपवाए जाते थे और सरकार को बदनाम किया जाता था. इसमें एक खेल कॉर्पोरेट जासूसी का था, जिससे मिले कथित दस्तावेज़ों के आधार पर कुछ नामी पीआइएल बाज़ सर्वोच्च न्यायालय में मुक़दमा डाला करते थे. एक खेल तो ऐसा होता था कि छोटा भाई बड़े भाई के ख़िलाफ़ मटेरियल दिया करता है, जिसके आधार पर केस होते थे और किताबें लिखी जाती थीं. कोई भी अख़बार यह दावा नहीं कर सकता था कि वह ख़ुद खोजकर ख़बर लाया है. पत्रकार पत्रकार नहीं, सरकार या सरकार विरोध के स्टेनो बने हुए थे. बिहार के चारा और बाढ़ घोटालों में यही हुआ था.
बहरहाल, ग़ालिब की पंक्तियाँ याद आती हैं-
तुम अपने शिकवे की बातें न खोद खोद के पूछो
हज़र करो मिरे दिल से कि इस में आग दबी है
दिला ये दर्द-ओ-अलम भी तो मुग़्तनिम है कि आख़िर
न गिर्या-ए-सहरी है न आह-ए-नीम-शबी है