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वेब-सिनेमा

(पार्ट चार) वंचित तबके की लड़की मीना कोतवाल की जुबानी बीबीसी की कहानी

मीना कोतवाल

मैं और बीबीसी-4

“आप ही मीना हो?”

“हां, क्यों क्या हुआ?”

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“नहीं कुछ नहीं, बस ऐसे ही.”

“आपने इस तरह अचानक पूछा..? आप बताइए न किसी ने कुछ कहा क्या?”

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“नहीं, नहीं कुछ ख़ास नहीं.”

(थोड़ी देर बात कर उन्हें विश्वास में लेने के बाद)

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“बताइए न मैं किसी को नहीं बताऊंगी.”

“मुझसे किसी ने कहा था कि अब तो आपके लोग भी हमारे साथ बैठ कर काम करेंगे.”

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यह सुन मैं थोड़ी देर शांत बैठ गई. मैंने उनसे जब पूछा कि आपको ये किसने कहा तो उन्होंने बताने से मना कर दिया.

बीबीसी में मेरी नौकरी करने के ऊपर की गई यह टिप्पणी किसने बताई, मैं उनका नाम जगजाहिर नहीं करना चाहती क्योंकि मैं नहीं चाहती मेरी वज़ह से किसी की नौकरी ख़तरे में पड़ जाए. लेकिन बताना चाहूंगी वो व्यक्ति दलित समुदाय से आते हैं और वे पत्रकार नहीं हैं. वो बीबीसी के दफ़्तर में एक साधारण कर्मी हैं.

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ये बिल्कुल शुरूआती दिनों की बात है जब मेरी शिफ्ट डेस्क पर लगनी शुरू ही हुई थी. ये बात मेरे दिमाग में खटक रही थी कि आख़िर ऐसा कोई क्यों बोलेगा और ऐसा कौन बोल सकता है?

मैंने घर जाकर ये बात सबसे पहले राजा (जो अब मेरे पति हैं) को बताई. राजा ने सुनते ही मुझे डांट दिया कि “तुम पागल हो किसी की भी बातों में आ जाती हो. कोई कुछ भी बोले तुम बस अपने काम पर ध्यान लगाओ. इतनी अच्छी जगह गई हो बस अच्छे से काम करो. कुछ नहीं रखा इन सब बातों में. बीबीसी तो कम से कम ऐसा नहीं है, जहां इस तरह के लोग हों, हां और जगह तुम्हें मिल जाएंगे लेकिन बीबीसी में नहीं. वहां लोग खुद दलित-मुस्लिम पर स्टोरी करते हैं, लिखते हैं. वहां सब अच्छे लोग हैं और इन सब बातों को परे करो यार…”

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मैं ये सब सुनकर चुप हो गई और वो सब भूल गई कि किसने क्या कहा है. अब जब भी उस व्यक्ति से मिलती तो थोड़ा इग्नोर करती और वो बात तो बिल्कुल नहीं छेड़ती जिसके लिए राजा ने गुस्सा किया था. मुझे भी लगा कि शायद मैं ही ज्यादा सोचने लगी थी.

शुरू में सब ठीक चल रहा था. मैं अपनी शिफ़्ट करती, सबके साथ व्यवहार भी सही था. हां, मैं बहुत बातूनी नहीं हूं इसलिए औरों की तरह मुझे फालतू बात करनी नहीं आती. मुझे पसंद है अपना काम करना और काम से काम रखना. मैं जब तक किसी पर पूरी तरह विश्वास नहीं करती तब तक आसानी से बात करने में सहज महसूस नहीं करती. लेकिन इस वज़ह से कुछ लोग मुझ से कटने लगेगें, ये नहीं पता था. मुझे एक बार को यही कारण लगा लेकिन धीरे-धीरे समझ बात समझ में आने लगी कि इसकी वज़ह कुछ और है. और वो वज़ह वही वज़ह थी जो उस दफ़्तर के उस साधारण दलित कर्मी ने बताई थी.

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To be continued…

युवा पत्रकार मीना कोतवाल की एफबी वॉल से.

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इसके आगे का पार्ट पढ़ें-

(पार्ट पांच) वंचित तबके की लड़की मीना कोतवाल की जुबानी बीबीसी की कहानी

इसे भी पढ़ें-

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तुम पागल हो, जो ये सब लिख रही हो, तुम्हें कोई नौकरी नहीं देगा!

इसके पहले वाला हिस्सा पढ़ें-

(पार्ट तीन) वंचित तबके की लड़की मीना कोतवाल की जुबानी बीबीसी की कहानी

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