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सुख-दुख

पीएम मोदी के कुछ नए झूठ वचन से पर्दा उठा दिए रवीश कुमार!

रवीश कुमार-

टीके की खोज करने वाले ‘हमारे वैज्ञानिक’ कौन हैं, टीके निर्यात हुआ या मदद के तौर पर गया

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प्रधानमंत्री मोदी अक्सर कहते हैं कि ‘हमारे वैज्ञानिकों’ ने टीका बनाया है। कभी नहीं कहते कि दो प्राइवेट कंपनियों के वैज्ञानिकों ने बनाया है जिसमें भारत सरकार ने एक नया पैसा नहीं लगाया है। ख़ुद सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में कहा है कि इन दो कंपनियों में टीके के रिसर्च और विकास में सरकार का कोई पैसा नहीं लगा है। तब तो प्रधानमंत्री को यही कहना चाहिए कि भारत की दो कंपनियों और उनके पैसे पर काम करने वाले वैज्ञानिकों ने बनाया है। लेकिन बेहद चालाकी से इस तथ्य को गोल कर दिया जाता है।

बेशक भारत बायोटेक और सीरम इंस्टिट्यूट भारत की कंपनियाँ हैं। दुनिया भर की सरकारें अपनी और प्राइवेट कंपनियों में अरबों डालर का निवेश कर रही थी। मोदी सरकार ने तो वह भी नहीं किया।

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प्राइवेट कंपनियों को बिल्कुल भारतीय खाते में गिना जा सकता है, गिना ही जाता है, लेकिन प्रधानमंत्री इस तरह से ज़ोर देते हैं जैसे उनकी देखरेख में और आर्थिक मदद से दोनों कंपनियाँ रिसर्च कर रही हैं। पिछले साल भारत बायोटेक और सीरम इंस्टीट्यूट का दौरा करते हैं। उसकी तस्वीरें ऐसे छप रही हैं जैसे प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में सब कुछ हो रहा है। वैज्ञानिकों को प्रोत्साहित करने गए हैं। उस वक़्त भी आप नहीं जानते हैं और आपको नहीं बताया जाता है कि वो वैज्ञानिक कौन हैं जिन्हें प्रोत्साहित करने प्रधानमंत्री गए थे। उसके वर्णन में भी प्रधानमंत्री मोदी हावी रहते हैं। वैज्ञानिक नहीं। गोदी मीडिया मोदी को वैक्सीन से इस तरह से जोड़ता है जैसे मोर को दाना डालने के साथ साथ टीके पर रिसर्च मोदी ही कर रहे हों।

अब एक बात और समझ लें। सीरम इंस्टीट्यूट ने टीके की खोज नहीं की है। वह एक निर्माता कंपनी है। जिस कोविशील्ड का नाम आप जानते हैं उनका निर्माण भारत में मौजूद एक कंपनी में हुआ है लेकिन उस पर रिसर्च और खोज का काम ब्रिटेन में हुआ है। आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी और दवा कंपनी एस्ट्राज़ेनेका के सहयोग से। इसमें 97 पैसा ब्रिटेन के लोगों और संस्थाओं का लगा है। दूसरे देशों और संस्थाओं का भी लगा है। मगर इसमें भारत का ज़ीरो पैसा लगा है। तो कोविशील्ड के अनुसंधान में ‘हमारे वैज्ञानिकों’ का कोई योगदान नहीं है। मुमकिन है आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी और एस्ट्राज़ेनेका में भारतीय वैज्ञानिक भी काम करते हैं लेकिन उस अनुसंधान में अकेले वही नहीं होंगे। कोविशील्ड का पेटेंट न तो भारत के पास है और न ही प्रधानमंत्री मोदी के ‘हमारे वैज्ञानिकों’ के पास है।

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यहाँ तक आपको समझ आ गया कि शुरू से ही दूसरे के माल पर सरकारी नियंत्रण बना कर प्रधानमंत्री ने अपना फ़ोटो चमकाया। अब आते हैं भारत बायोटेक पर। यह एक बड़ी कंपनी है। इसकी दुनिया में साख है। इसकी कोवैक्सिन का पेटेंट भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद भी साझा करता है। हम नहीं जानते कि भारत बायोटेक के अनुसंधान में जो वैज्ञानिक काम करते हैं क्या वो केवल भारतीय हैं? हमें तो उनका नाम तक नहीं बताया गया है। अगर ICMR के वैज्ञानिकों ने भारत बायोटेक के साथ कुछ काम किया है तो हम वह भी जानते हैं। लेकिन तब भी हम नहीं जानते कि ‘हमारे वैज्ञानिकों’ कौन हैं। जनवरी के पहले हफ़्ते में जब टीके को मंज़ूरी दी जाती है तब भी हम नहीं जानते हैं कि ‘हमारे वैज्ञानिक’ कौन हैं। केवल प्रधानमंत्री मोदी का बयान छपता है कि यह एक निर्णायक मोड़ है। टीके के अनुसंधान से लेकर वितरण पर प्रधानमंत्री मोदी अपना फ़ोटो चिपका देते हैं। जबकि उसमें भारत सरकार का एक नया पैसा नहीं लगा है।

ऐसे भी देश को जानने का हक़ तो है ही कि टीके की खोज से जुड़े हमारे वैज्ञानिक कौन हैं? क्या आपको यह बात परेशान नहीं करती है कि उनका इंटरव्यू तक कहीं नहीं छपा है। जब मंगलयान लाँच हो रहा था तब प्रधानमंत्री इसरो के सेंटर पहुँच जाते हैं। वहाँ ऐसे घूमने-घामने लगते हैं जैसे मंगलयान का रिसर्च भी उन्होंने किया है। बताया जाता है कि हौसला बढ़ाने गए हैं। अच्छी बात है। लेकिन उनके घूमने-घामने से काफ़ी कुछ दुनिया को टीवी पर दिखाया जाता है। वैज्ञानिकों का चेहरा सामने आता है। तो यह तर्क न दें कि उन वैज्ञानिकों का नाम और चेहरा सुरक्षा कारणों से छिपाया जाता है। वैसे अतिसंवेदनशील माने जाने वाली संस्था इसरो के काम में भी प्राइवेट पार्टी घुसा दिए गए हैं। इतना बड़ा देश सवाल ही नहीं करता कि इतना महान खोज जिन ‘हमारे वैज्ञानिकों’ ने की है, उनका चेहरा कहां हैं? गोदी मीडिया में दिन रात उनकी महिमा भी नहीं गाई जाती है, गान होता है मोदी महान का।

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अब आते हैं दूसरे प्रोपेगैंडा पर

आपको अभी तक यही प्रमुख रुप से बताया जाता रहा है कि भारत दूसरे देशों को टीका भेज कर मानवता की सेवा कर रहा है। प्रधानमंत्री के इसी बयान को प्रमुखता से छापा जाता है और मोदी भी इस पर प्रमुख रुप से ज़ोर देते हैं। जहां जहां टीका जाता है उसकी तस्वीरें भारत के अख़बारों में छपती हैं। टीवी में दिखाया जाता है और मोदी के साथ वैक्सीन गुरु लिखा जाता है। जिस वैज्ञानिक ने खोज की है उसका नाम और चेहरा तक पता नहीं लेकिन वैक्सीन गुरु बताए जा रहे हैं मोदी। क़ायदे से तो उन वैज्ञानिकों को वैक्सीन गुरु कहा जाना चाहिए था। भारत सरकार बार बार कहती है कि जितना टीका अपने देश के नागरिकों को नहीं दिया उससे ज़्यादा दूसरे देशों को भेजा गया। जनता इतना मामूली सवाल नहीं पूछ पाती है कि हम लोगों को टीका कब लगेगा।

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अब जब लोग मरने लगे और अस्पतालों में और अस्पतालों के बाहर तड़पा-तड़पा कर मारे जाने लगे तो यह सवाल उठने लगा कि आप टीका बाहर तो भेज रहे हैं अपनी छवि बनाने के लिए लेकिन भारत के नागरिकों के लिए क्यों नहीं उपलब्ध करा रहे हैं? इस सवाल को मीडिया ने आसानी से किनारे लगा दिया। लेकिन जैसे ही दूसरी लहर आती है और यह सवाल ज़ोर पकड़ता है कि धीरे धीरे इस बात को रखा जाने लगता है कि भारत निर्यात नहीं कर रहा है। उसके पहले तक प्रोपेगैंडा छप रहा था कि छह करोड़ टीके का निर्यात हो रहा था। लोगों के मरने के बाद बताया जाता है कि केवल एक करोड़ टीके को मदद के तौर पर दूसरे देशों को भेजा गया और बाक़ी का साढ़े पाँच करोड़ टीका निर्यात नहीं हुआ है। भारत बायोटेक और सीरम इंस्टीट्यूट ने टीका बनाने के लिए जो कच्चा माल दूसरे देशों से लिया है उनके साथ व्यावसायिक करार किया था कि इसके बदले में टीका देंगे। इसमें पैसे का लेन-देन भी हुआ है। ज़ाहिर है सरकार इस निर्यात को अपने खाते में नहीं गिन सकती थी। न ही मानवता के नाम पर होने वाली मदद के खाते में गिन सकती थी। सरकार ने अप्रैल से पहले कभी यह स्पष्ट नहीं किया। बीजेपी के प्रवक्ता साबित पात्रा ने राज़ खोल दिया कि दोनों कंपनियाँ अपने बिज़नेस कमिटमेंट के तहत निर्यात कर रही हैं। जबकि संयुक्त राष्ट्र की आम सभा में भारत सीना फुला रहा था कि हमने जितना अपने नागरिकों को टीका नहीं दिया है उससे अधिक दूसरे देशों को दिया है।

आज दुनिया में भारत की क्या छवि बनी है, प्रधानमंत्री मोदी के बारे में क्या छप रहा है, ज़रा पता कीजिए। लोग हंस रहे हैं। थू-थू हो रही है। भारत की बदनामी हो गई है। क्योंकि प्रोपेगैंडा का पोल खुल गया है। जिन दो प्राइवेट कंपनियों के टीके को मोदी अपना बता रहे हैं उसमें उनकी सरकार का एक नया पैसा नहीं लगा है। आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों के काम को भी हमारे वैज्ञानिकों के खाते में जोड़ लेते हैं। कंपनियों के निर्यात को भी सरकार की मानवता के नाम पर की जाने वाली मदद के खाते में जोड़ लेते हैं।

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इस झूठ की आपने बड़ी क़ीमत चुकाई है। इस झूठ से बाहर आकर सोचिए।

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