Connect with us

Hi, what are you looking for?

उत्तराखंड

सिर्फ़ कुमाऊँ में पाँच सौ से अधिक जगहों पर दावानल, राज्य सरकार फेल!

अशोक पांडे-

हाड़ों में आग धधकी हुई है. अकेले कुमाऊँ में पांच सौ से अधिक जगहों पर दावानल का कहर बरपा है. पांच लोग जल कर मर चुके हैं और तमाम जगहों से आग के विकराल स्वरूप के डरावने वीडियो सामने आ रहे हैं. शहरों-गाँवों की हवा में इस कदर धुआँ घुल चुका है कि लोग बीमार पड़ रहे हैं, बच्चों-बुजुर्गों को सांस लेने में तकलीफ हो रही है. जो अभी घट रहा है उसकी पहले से ही आशंका थी क्योंकि जंगलों का सुलगना इस साल जनवरी में ही शुरू हो गया था. यह और बात है कि हमेशा की तरह इस बार भी किसी ने समय रहते उसकी सुध न ली.

Advertisement. Scroll to continue reading.

पिछले कुछ बरसों से यह घटनाक्रम आम हो चुका है कि उत्तराखंड की अर्थव्यवस्था की रीढ़ माना जाने वाला पर्यटक सीज़न शुरू होता है और जंगल जलना शुरू हो जाते हैं. प्रकृति के विनाश का दायरा हर साल पिछले साल से अधिक बड़ा और अधिक स्थाई होता जाता है. पांच साल पहले ठीक इन्हीं दिनों कुमाऊं में चार सौ हैक्टेयर जंगल जले थे इस साल यह आंकड़ा अभी से दोगुना हो गया बताया जा रहा है.

फोटो: Jaimitra Singh Bisht की खींची इस तस्वीर में कल शाम अल्मोड़ा से स्याही देवी का दृश्य

पहाड़ की सुन्दरतम जगहों में हफ़्तों से धुएं का गहरा परदा पड़ा हुआ है, हवा गाढ़ी हो गई है, धूप का निशान नहीं है. कल मैं देख रहा था भीमताल की झील का पानी हेलीकॉप्टरों की मदद से उठा कर जंगलों की आग के ऊपर बरसाया जा रहा था. इस दृश्य से मुदित कुछ युवा पर्यटक हेलीकॉप्टर के साथ सेल्फी ले रहे थे. पास के खोखे में उनके लिए मैगी उबल रही थी. पर्यटन और रोजगार का अद्भुत मॉडल सामने था.

पहाड़ों में अमूमन इस मौसम में आग लगना आम है. सदियों से यह परम्परा रही है कि चारे के लिए अच्छी घास उगाने की नीयत से जंगलों में फैली हुई चीड़ की सूखी पत्तियों यानी पिरूल को नियंत्रित रूप से जलाया जाता था. इस आग को नियंत्रित करने के लिए जंगलात विभाग ने बाकायदा पतरौल और अगलैन जैसे पदों पर लोग तैनात किये हुए थे. इस विभाग में काम कर चुके पुराने अफसरों के संस्मरण पढ़िए तो पता चलता है समूचा डिपार्टमेंट इस बात को सुनिश्चित करता था कि हर साल अप्रैल-मई-जून में लगने वाली इस आग से कम से कम नुकसान हो. उत्तराखण्ड बनने के बाद जंगल में लगने वाली आग से निबटने के लिए अलग से बाकायदा एक विभाग भी बनाया गया. अपने उद्देश्यों में वह कितना सफल रहा है सबको दिखाई देता है.

Advertisement. Scroll to continue reading.

हमसे पहले की पीढ़ियां इस आपदा से साल-दर-साल सलीके से लड़ती रही हैं. इधर के सालों में ऐसा क्या हुआ होगा कि तमाम अफसरशाही, नेतागिरी, अखबारबाजी और सोशल मीडिया के बावजूद हालात बिगड़ते चले गए!

समझ में आता है कि हमने एक समुदाय के रूप में सोचना और काम करना बंद कर दिया है. हम एक जिम्मेदार और सभ्य समाज के रूप में रहना भूल चुके हैं. इस तरफ रहने वाले सोचते हैं उधर की आग से हमें क्या, उधर वाला सोचता है अभी मेरा घर बचा हुआ है. आगे की आगे देखेंगे! जब दोनों तरफ के गाँव आग की चपेट में आ जाते हैं तो दोनों मिलकर सोचते हैं इतनी बड़ी सरकार है, यह तो उसका काम है. वन विभाग कहता है उसकी व्यवस्था तो पूरी तरह चौकस है, शरारती तत्व आग लगाने से बाज नहीं आते.

Advertisement. Scroll to continue reading.

जंगल में आग लगती है तो कीड़े-मकोड़े मरते हैं, तितलियाँ मरती हैं, छोटी झाड़ियाँ और नए पेड़ मरते हैं, उड़ने से लाचार चिड़ियों के नन्हे बच्चे घोंसले में ही मर जाते हैं, वन्य जीवों के कुनबे उजड़ जाते हैं. प्रकृति और उसकी पारिस्थितिकी का संतुलन ऐसा डावांडोल होता है कि अगर सब ठीक चला तब उसे सम्हलने में दस-बारह साल लग जाते हैं. पानी के प्राकृतिक स्रोत तबाह हो जाते हैं. यह कॉमन सेन्स की बात है जिसे अनिवार्य रूप से स्कूलों के पाठ्यक्रमों में जगह मिलनी चाहिए.

सरकार के पास तमाम संसाधन हैं लेकिन उसके पास न कोई तैयारी है, न कोई विजन. आग बुझाने की ट्रेनिंग के जो कार्यक्रम दिसंबर जनवरी में गाँव-गाँव में चलाए जाने चाहिए थे उनकी याद मई-जून में आती है. जिन वनकर्मियों को अत्याधुनिक उपकरणों से लैस कर दिया जाना चाहिए था उनके पास एक लाठी है या हद से हद एक रेक जिसके दांते टूट चुके हैं. जंगल जलता है तो वे उसी जंगल के बचे हुए पेड़ों के पत्तों को तोड़ कर उनकी झाडू बनाते हैं. फिर उसी झाडू से पीट-पीट कर आग बुझाने का प्रागैतिहासिक तरीका अपनाया जाता है.

Advertisement. Scroll to continue reading.

पर्यावरण किसी भी राजनैतिक पार्टी के एजेंडे में कहीं नहीं है. हिमालय और उसके सरोकार किसी मैनीफेस्टो का हिस्सा नहीं बनते. एक ज़माने में आग को बुझाने का काम सरकार और जनता दोनों का साझा होता था. अब दोनों के बीच कैसी दूरी है बताने की ज़रूरत नहीं. जो सरकार जागेश्वर जैसी जगह के पांच सौ साल पुराने देवदारों को काटने की योजना तक बना सकती है, उसके सरोकारों में पेड़ और जंगलों की जगह कहाँ होगी यह भी बताना बेमानी है.

विकास और वैज्ञानिक प्रगति का आलम यह है हमेशा की तरह हर कोई इस बार भी बारिश का इंतज़ार कर रहा है. उसी का सहारा है. हमेशा की तरह!

Advertisement. Scroll to continue reading.
Click to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Advertisement

भड़ास को मेल करें : [email protected]

भड़ास के वाट्सअप ग्रुप से जुड़ें- Bhadasi_Group_one

Advertisement

Latest 100 भड़ास

व्हाट्सअप पर भड़ास चैनल से जुड़ें : Bhadas_Channel

वाट्सअप के भड़ासी ग्रुप के सदस्य बनें- Bhadasi_Group

भड़ास की ताकत बनें, ऐसे करें भला- Donate

Advertisement