मध्यप्रदेश सरकार पत्रकारों की जन्म कुंडली तैयार करा रही है। खासतौर से आवंटित सरकारी आवासों को लेकर शिवराज सरकार अचानक कुछ ज्यादा ही संजीदा हो गई है। सरकार ने पुरानी और नई पीढ़ी के बीच संतुलन और सामंजस्य बनाकर जायज पत्रकारों को उनका हक देने का जो फार्मूला बनाया है उसने मीडिया जगत में एक नई बहस छेड़ दी कि आखिर मीडिया फ्रेंडली कहे जाने वाले शिवराज के राज में पत्रकारों को ही क्यों निशाने पर लिया जा रहा है। सवाल उठना लाजमी है कि जिस शपथ पत्र की आड़ में पत्रकारों की चल-अचल संपत्ति का ब्यौरा इकट्ठा किया जा रहा है क्या ये ही फार्मूला नेताओं चाहे फिर वो मंत्री, विधायक और सांसद के साथ-साथ नौकरशाहों पर भी लागू होगा। आखिर शिवराज अचानक मीडिया के प्रति इतने सख्त क्यों हो गए।
मध्यप्रदेश में तीसरी बार बीजेपी की सरकार बनाकर एक नया इतिहास रचने वाले शिवराज सिंह चौहान को आखिर क्या हो गया है जिन्होंने मीडिया के लिए नई नीतियां बनाकर उन्हें उनका हक देने की कोशिश की है। अब उनका काला चिट्ठा तैयार किया जा रहा है। कोर्ट की आड़ में सरकारी आवास में रह रहे और रहने की जुगत में जुटे पत्रकारों से शपथ पत्र मांगा जा रहा है जिसमें उनसे वो जानकारी मांगी गई है जिसको खुद शिवराज ही नहीं, पुरानी सरकारों ने भी जरूरी नहीं समझा। सरकार की नीयत पर हम सवाल खड़ा नहीं कर रहे बल्कि सलाहाकारों की सोच पर गौर कर रहे हैं कि आखिर वजह क्या है जो बरैया का छत्ता कहे जाने वाले मीडिया को छेड़ा जा रहा है।
शिवराज जिन्होंने मीडिया कर्मियों के लिए पेंशन, बीमा जैसी योजनाओं को लागू तो सहकारी समितियों के जरिए उन्हें भूखंड मुहैया कराने का रास्ता साफ कर उनके और उनके परिवार की समस्याओं को बखूबी समझा। ये भी सच है कि पेड न्यूज पर सख्त रूख अपनाने वाले शिवराज ने बड़े अखबार मालिकों के साथ-साथ संपादक और मैदानी पत्रकारों से सहानुभूति जताते हुए उन्हें जो सुविधाएं मुहैया कराई है जो पहले कभी नसीब नहीं हुई। क्षेत्रीय और स्थानीय अखबारों के साथ सोशल मीडिया चाहे फिर वो बेवसाइट हो या दूसरे माध्यम सभी की सेवाएं लेकर सरकार की नीतियों को जन-जन तक पहुंचाया।
मुख्यमंत्री शिवराज सिंह और उनके सलाहकारों ने इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया का बेहतर इस्तेमाल किया जिसका फायदा उन्हें चुनाव में खूब मिला। बीजेपी संगठन के मैनेजमेंट ने अगर जननायक शिवराज को चुनाव में मैनेजमेंट गुरु के तौर पर उनकी छवि बनाई तो जनसंपर्क विभाग लगातार पांच साल उसमें निखार लाया। इसके पीछे जनसंपर्क विभाग के अधिकारियों की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता जिन्होंने सरकार की योजनाओं के प्रचार-प्रसार में मीडिया का भरोसा हासिल किया। नई नीति के तहत पत्रकारों को अधिमान्यता देने में जो दरियादिली दिखाई उसका परिणाम है कि मीडिया की सहानुभूति भी व्यक्तिगत तौर पर मुख्यमंत्री के साथ खड़ी नजर आई। इसके चलते ही जिन्दगी और मौत का संघर्ष कर रहे बीमार पत्रकारों के लिए इलाज की एक नई व्यवस्था रंग लाई।
यहां सवाल ये खड़ा होता है कि आखिर सरकार क्या चाहती है? निश्चित तौर पर पत्रकारों के लिए सीमित आवास का कोटा है और उसकी जिम्मेदारी है कि वो ऐसे लोगों को चिन्हित करे जिनका हक सरकारी आवास पर नहीं बनता। लेकिन यहां उसे ध्यान रखना होगा कि जो क्राइटेरिया बनाकर वह अपना लक्ष्य पूरा करना चाहती है ऐसे में जरूरतमंद और हकदार पत्रकार बलि का बकरा न बन जाएं। लंबे समय तक पत्रकारिता करने वाले पत्रकार जिसने अपनी जिन्दगी में सिर्फ संघर्ष किया और कुछ कमाया नहीं, क्या इस मोड़ पर उससे सरकारी आवास खाली करा लेना सही होगा? कुछ पत्रकार ऐसे भी होंगे जिन्होंने जीवनभर की पूंजी दांव पर लगाकर बैंक लोन के सहयोग से मकान खरीदा लेकिन इसकी किश्त वह नहीं चुका पा रहा, क्या वो सरकारी आवास में कुछ और समय रहने का हक नहीं रखता है?
सरकार की अपनी व्यवस्था और अपना दायरा है जिसने उसे सरकारी आवासों में सालों से रह रहे पत्रकारों से आवास खाली कराने को बाध्य किया है। मध्यप्रदेश में ये नीति बनाई गई थी इसलिए ये सुविधा खबरनवीसों को मिली। सवाल ये है कि सरकार के सामने आखिर ऐसी कौन सी मजबूरी खड़ी हो गई है जो उसे ये कदम उठा पड़ा। यहां प्रश्न ये भी खड़ा होता है कि क्राइटेरिया बनाना और शपथ पत्र भरवाना कितना जरूरी है। क्या ये गाइडलाइन कोर्ट की है या फिर इसके पीछे सरकार की मंशा कुछ और है। बड़ा सवाल ये है कि ये सब कुछ मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और जनसंपर्क मंत्री राजेन्द्र शुक्ल को भरोसे में लेकर किया जा रहा है या फिर कहानी कुछ और है।
बात निकली है तो निश्चित तौर पर दूर तलक आएगी और आज नहीं तो कल पत्रकारों से सरकारी आवास खाली करवाए जाएंगे। शायद ही कोई पत्रकार होगा जो सरकार के इस फरमान को खुली चुनौती दे, लेकिन इस जमात में ऐसे लोग भी होंगे जो चाहेंगे कि इस नई नीति का फायदा वास्तविक और जरूरतमंद पत्रकारों को जरूर मिले। सरकार की मंशा अगर नई पीढ़ी के पत्रकारों को ये सुविधा मुहैया कराने की है तो इसका स्वागत किया जाना चाहिए लेकिन जिस फार्मूले के तहत उसने पुरानी पीढ़ी के अनुभवी पत्रकारों की नींद उड़ाई है उस पर भी पुनर्विचार किया जाए तो बेहतर होगा। गिने-चुने ही सही कई पत्रकार ऐसे है जिनमें अब न तो लिखने-पढऩे की क्षमता है और न ही उनके पास किसी अखबार का बैनर है और उनकी अधिमान्यता भी खतरे में पड़ चुकी है।
सवाल ये ही है कि क्या मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान अपने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की राह पर आगे बढ़ते हुए मीडिया से दूरी बनाने की ठान चुके हैं। अगर शिवराज और उनकी सरकार की नीयत साफ है तो शपथ पत्र का ये फार्मूला क्या वो अधिकारियों और जनप्रतिनिधियों के साथ-साथ राजनीतिक दल और उनके आकाओं पर भी लागू होगा। सरकारी मकान एक मुद्दा हो सकता है लेकिन शिवराज को इसकी भी तह तक जाना चाहिए कि आखिर सरकारी आवास में रहे रहे कितने लोग ऐसे हैं जिनके खुद के मकान, फार्म हाउस और चल-अचल संपत्ति भोपाल से लेकर दिल्ली और दूसरे राज्यों में मौजूद है। क्या ऐसे लोगों को सरकारी आवास में रहने का पात्रता है। खबरनवीसों से भरवाया जाने वाला शपथ पत्र क्या दूसरी जमात से भी भरवाया जाएगा? चाहे फिर वो खुद मुख्यमंत्री, मंत्री, विधायक, सांसद और अधिकारी-कर्मचारी ही क्यों न हों। लोकसभा और विधानसभा के चुनाव हो चुके हैं इसलिए क्या ये सही समय है जब सरकार पत्रकारों से शपथ पत्र लेकर उनकी कुंडली तैयार कर ये जानना चाहती है कि उनकी माली हालत कैसी है?
लेखक राकेश अग्निहोत्री, न्यूज एक्सप्रेस म.प्र./छग. के डिप्टी पॉलिटिकल एडिटर हैं।
pankaj
October 2, 2014 at 5:40 am
shivraj ke is faisle ke liye badhai, shivraj ko danda uthana hi padega aise to nahi niklege.
prayag pande
October 4, 2014 at 3:39 pm
जिनमें नाम मात्र का भी जमीर बचा हो उन पत्रकारों को सरकारी आवासों में रहना ही नहीं चाहिए ।सरकार की अनुकम्पा पर जीवित सुविधाभोगी कभी भी जनपक्षीय और समाजोन्मुख पत्रकारिता कर ही नहीं सकता ।
sanjay sahu
January 30, 2016 at 2:16 am
शिवराज सरकार ने भ्रष्टाचार का सच दिखाने वाली मिडिया को लालीपाप देकर चुप करा दिया है, यहाँ बड़े पत्रकार और उनके संगठन मजीठिया पर कोई बात नहीं कर रहा है. बेचारे छोटे पत्रकार पिसने मजबूर है.