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सुख-दुख

दुनिया भर से मूर्तिपूजक येन-केन-प्रकारेण साफ़ हो गए, भारत में कैसे बच पाए?

Praveen Jha-

जरा सोचिए कि ऐसा क्यों हुआ कि दुनिया भर से मूर्तिपूजक येन-केन-प्रकारेण साफ़ हो गए, भारत में रह गए। ऐसा भी नहीं कि मूर्तिपूजकों के पास भारत में सत्ता थी, अन्य स्थानों पर नहीं थी। यह भी सही नहीं कि अन्य स्थानों पर विद्वान तर्कशास्त्री नहीं थे, जो एकेश्वरवादियों से तर्क नहीं कर पाते। ग्रीको-रोमन संस्कृति और वहाँ की धार्मिक नींव बहुत मजबूत थी। कई मिथक, कई तरह के साहित्य थे। फिर भी साफ़ हो गए।

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मशहूर पत्रकार लेखक टोनी जोसफ़ (अर्ली इंडियन्स के लेखक) ने एक बार कहा कि लंबे समय तक ईसाई मिशनरियों ने भारत में प्रयास किए, उनकी सत्ता भी थी, किंतु मात्र 3-4 प्रतिशत ईसाई बना सके। इस पर विस्तार से कुछ विवेचन मैंने ‘रिनैशाँ’ पुस्तक में करने का प्रयास किया है।

मुसलमानों से खतरे पर आज-कल चर्चा होती रहती है। मुसलमानों ने तो ईसाइयों से पाँच गुणा अधिक समय राज किया। मध्ययुगीन इस्लाम प्रचारकों की दृष्टि भी स्पष्ट रही कि यथासंभव मूर्तिपूजन बंद किया जाए। उन्होंने विश्व के एक बड़े भोगौलिक क्षेत्र पर यह हासिल भी कर लिया, लेकिन भारत में वे कितने प्रतिशत कर सके? अगर वे शक्तिशाली शासक नहीं कर सके, तो अब यह कैसे संभव है?

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भारतीय सनातन (अब कुछ रूढ़ शब्द हिंदू) की काफ़ी हद तक यूरोपीय या अन्य मूर्तिपूजकों से अलग ‘सर्वाइवल स्ट्रैटेजी’ रही। यह अच्छी थी या बुरी, यह अलग डिबेट है। मगर यह ऐसी स्ट्रैटेजी थी जिसमें सत्ता के बिना भी यह मुमकिन था। अगर यूरोप, अफ़्रीका या अरब में भी यह स्ट्रेटेजी रहती, तो वहाँ भी भिन्न-भिन्न पंथ फलते-फूलते। और अगर वह स्ट्रैटेजी भारत त्याग दे, तो भारत से भी वह खत्म हो जाएगा।

मैं वह स्ट्रैटेजी तो आपके विमर्श के लिए छोड़ता हूँ, मगर यकीन मानिए यह वो नहीं है जो आज के भारतीय दक्षिणपंथी दल सुझा रहे हैं। यह बहुत बारीक और गुँथा हुआ है, जिसमें इस्लाम या ईसाई या किसी से खतरे की संभावना नहीं है। ऐसी संभावना दिखाने से ज़रूर खतरा हो सकता है क्योंकि स्ट्रैटेजी का मूल वहीं कहीं है।

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कुछ टिप्पणियां-

Lal Singh Rathore
मुझे तो यह भी लगता है कि अगर भारत मे गृह युद्ध अगर होगा भी तो वो ईसाइयत और मुसलमानों के बीच होगा
धिम्मी हिन्दू तो बस तब भी गुलामों की तरह मूकदर्शक बने रहेंगे…..अगर मुट्ठी भर बचे तो

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Praveen Jha
आपको लगता होगा। ऐसा लगता रहा है। हमने अपनी उम्र देखी है। यहाँ ऐतिहासिक और वैश्विक मंथन हो रहा है, जहाँ धर्मयुद्ध कई बार हो चुके हैं। इसलिए ‘लगने’ वाली बात ही निराधार है। ईसाई-इस्लाम धर्मयुद्ध हुआ है, आगे भी होगा।
उसमें सनातन की भूमिका स्पष्ट है। यह मैं या आप नहीं, उसकी नींव निर्धारित करती है। बाकी, एक भयभीत पक्ष भी सदा से रहा है, जो सनातन के समाप्ति की घोषणा करता रहा है, जिसकी अपनी स्वीकार्यता है। वह रहेगा ही।

Lal Singh Rathore
ईसाई और इस्लाम के धर्म युद्ध के परिणाम से और देश के 1000 सालों के इतिहास से भी कोई सबक नही लिया जा रहा तो क्या कहा जा सकता है
रही बात भय की तो मुझे वो लोग ज्यादा भयभीत लगते है जो यह खतरा भांपते हुवे भी इसे मुँह से स्वीकारने की हिम्मत नही रखते
मैं अभी यह नही सोच रहा कि वैश्विक परिदृश्य में सनातन की भूमिका क्या रहेगी
मैं तो यह सोच रहा हूँ कि अगर देश में यही हाल रहा तो सनातन भी फारसियों की तरह विदेश में ही कहीं शरणार्थी बनकर गुजारा करेगा

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Praveen Jha
भय की परिभाषा तो एक ही है। आपके शब्दों में जो आशंकाएँ हैं, वह भय है। उसका लक्ष्य भले एकजुटता हो, किंतु स्वयं के खत्म होने का भय है।
पूरा पोस्ट ही इस भय से मुक्ति का चिंतन है। खतरों की समीक्षा तो दूसरे ही वाक्य में हो गयी। शक्ति की समीक्षा करें। उसकी उत्पत्ति किसी भय से न हो।

Lal Singh Rathore
जी भय भी एक शक्ति ही है
भय न होना तो मूर्खता की निशानी है
रही शक्ति की बात तो
मैं तो उसे ही वास्तविक शक्ति कहूंगा जिससे अगला आपका अहित करने की सोचने मात्र से भयभीत हो

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Praveen Jha
शुतुरमुर्ग और भेड़चाल ‘सर्वाइवल स्ट्रैटेजी’ का हिस्सा नहीं। वह एक राजनैतिक खूँटे, एक व्यक्ति, एक पुस्तक, एक विचार से बँधे लोगों की अपनी ‘सर्वाइवल स्ट्रैटेजी’ है। दरअसल वह एकेश्वरवादियों की ही नकल है, जो अपने विचार के विस्तार के लिए ठीक हो सकती है। मगर यहाँ उसकी बात नहीं हो रही।

Lal Singh Rathore
मेरा कहना तो यह है कि
अपने घर मे ही कब तक सरवाइवल करते रहेंगे….!
कोन कहता है कि मूर्ति पूजक सनातन बचा है
संख्या बल ज्यादा था इसलिए
नुकसान के बाद भी पूरा साफ न हुआ
पर अफगानिस्तान, बंगलादेश और पाकिस्तान नामक टुकड़े का मूर्तिपूजक साफ हो गया
बाकी वतर्मान भारत मे भी लगभग 30 % भू भाग पर आज भी मुसलमानों और लगभग 20% भाग पर ईसाइयों का अघोषित कब्जा हो गया है
यह बहुत जल्द नजर भी आने लगेगा
थोड़ा और शुतुरमुर्गी इंतजार कीजिए

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Er Subhash Jha
यह ग्राफ तो कुछ और ही कह रहा है..

Praveen Jha
वही कह रहा है जो पोस्ट में है। ईसाई, इस्लाम और बौद्ध सदा से भारत से बाहर शक्तिशाली रहे। हज़ार वर्ष पूर्व भी ग्राफ़ ऐसा ही दिखता। और यही प्रश्न भी है कि पूरी दुनिया (भारत पर भी) पर पताका फहराने के बाद भी कैसे भारत में रह गया।

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Er Subhash Jha
जी… देशों की संख्या के लिहाज से ठीक है.. लेकिन संख्या के लिहाज से हिन्दूओं का हिन्दुस्तान अब वास्तव में खतरे में है.. जिस प्रकार जिहाद, इस्लामिक और ईसाई धर्मांतरण चल रहे हैं.. कुरान वर्णित खुदाई आयातों को खुदा का आखिरी आदेश समझकर जिहादी समुदाय सूक्ष्म और दीर्घकालीन (50 100वर्ष) योजना बना उसपर अमल करते हैं, इस्लामिक आदेशों को आत्मसात कर कमीनेपन गद्दारी और मक्कारी की हद पार करने को आतुर रहते हैं.. दूसरी तरफ हिन्दुओं की जन्मजात सेक्यूलर प्रवृत्ति.. ओह.. सदा से ही ग्राफ नीचे जा रहा है…

Praveen Jha
वह पहले इससे कहीं अधिक थे, और शक्ति भी थी। धर्मप्रवर्तकों के तर्क भी बेहतर थे। आखिर संपूर्ण विश्व का धर्मांतरण तो किया ही। इसलिए यह तर्क कमजोर है, मगर रखा जा सकता है।

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Er Subhash Jha
जी.. पता नहीं.. आपका नजरिया क्या है..? मेरी नजर में जब से मैंने कुरान और हदीसों को समझने की कोशिश में थोड़ा बहुत पढ़ा, कुछ अध्येताओं के वक्तव्य सुनें और इस्लाम छोड़ चुके exmuslim के इंटरव्यू सुनें… तो स्पष्ट हो गया कि कुरान के आयातों के आदेश से ईन जेहादियों का एक मात्र लक्ष्य है, दुनियाँ पर कब्जा करना, दुनियाँ में इस्लाम कायम करना, फिर कयामत फिर जन्नत और 72 हूरें… इस दुनियां जिसमें हम लोग जी रहे हैं, उसे वह सज़ा मानते हैं… हद है..
दंत कथाएं हमारे संप्रदायों में भी है, लेकिन हम उन कथाओं की सत्यता के लिए किसीकी हत्या नहीं कर सकते, हमें तो उन कथाओं के दर्शन को सीखना होता है.. लेकिन आपने अगर उनकी एक भी बात पर एतराज किया वे एक मिनट नहीं लगाएंगे, मौके के अनुसार प्रतिक्रिया करेंगे… पिछले 1400 वर्षों का इस्लाम खून खराबों का लेखा जोखा.. भी यही इशारा करता है..

Shalinee Saroj Mohan
थोड़ा और समझाएं की सरवाइवल स्ट्रेटेजी क्या है…
वैसे ये सवाल मेरे दिमाग मे भी घर किये हुए है…
इतने “हज़ार ” साल राज करने के बाद भी बहुसंख्यक तो हिंदू ही हैं….
बर्बर..क्रूर …शोषक इत्यादि होने के बावजूद सनातन धर्म के फलने फूलने में तो कोई कमी दिखी नहीं

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Shachindra Trivedi
सर्वाईव रहना और फलने फूलने में अंतर है। जिंदा हैं पर सिकुड़ते जा रहे हैं।

Sujata Chokherbali ·
रेनेसाँ पर आपकी यह किताब पढ़नी है. उसकी संदर्भ सूची भी दिलचस्प होगी.

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Praveen Jha
किताब साधारण ही है, सौ पृष्ठों की, और सूची में सात ही रिफरेंस हैं। फ्लो में लिखी थी ऐसे ही। ये एक वाक्य में कहना कठिन है। मेरे विचार पुस्तक ‘रिनैशाँः नवजागरण का इतिहास’ के दो अध्यायों – ‘वे हीनभावना का इंजेक्शन दे गए’ और ‘विवेकानंद और दयानंद में अंतर’ में लिखे हैं। वह esamaadprakashan dot com पर मिल जाएगी। मगर उससे सहमत हुए बिना अपनी ‘सोच’ बनाना और विकसित करना भी सर्वाइवल स्ट्रैटेजी का हिस्सा है।

Pankaj Mishra
मुद्दा गम्भीर है , मुझे ऐसा लगता है भारत मे मुसलमानों के आक्रमण के बाद उनकी राजसत्ता और धर्म मे वह एकात्म नही था जो उन्हें अन्य जगहों पर राज करने के लिए स्थापित करना पड़ा | जनता और राजनीति में कोई organic सम्बंध था ही नही , राजा आपस मे लड़ते मरते थे और धर्म का उतना ही इस्तेमाल करते थे कितना राज करने की जरूरत थी , बाबर ने जब हुमायूं को लिखा कि यहां के लोगो की धार्मिक आस्थाओं में हस्तक्षेप न करना , गाय पवित्र है तो गोकशी प्रतिबंधित कर दी , यानी राजनीति ने धर्म और मान्यताओं से सचेत दूरी बना कर रखी , इसी तरह तुलसी जब लिखते है को नृप होए हमें का हानी तो इससे भी पता चलता है कि जनता और राजा रूटीन में एक दूसरे से असंपृक्त थे …. भारतीय जनमानस जो मानता चला आ रहा था , वही मानता जा रहा था , उंस मानस को कभी झकझोरा नही गया न राजनीति द्वारा , न दर्शन द्वारा , न धर्मसुधार के आंदोलनों द्वारा , रामानुज , कबीर नानक वग़ैरह आए जरूर लेकिन वह सिलसिला टूट गया और तुलसी सूर मीरा छा गयी …जब योरप में रेनेसॉ और एनलैटेन्मेंट हो रहा था हमारे यहां भक्ति काल चल रहा था , उसके बाद रीतिकाल आ गया , समाज मे तर्क बुध्दि वैज्ञानिकता आदि की रोशनी पड़ने ही नही पाई , इसलिए वैज्ञानिक और औद्योगिक क्रांति भी सम्भव नही हुई ….आज के भारत को ही देख ले , जिसने डेमोक्रेसी और सेकुलरिज़्म बिना लड़े तोहफे में पाया तो उसी आसानी से यह थाती गंवाता भी जा रहा है |

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Vivek Gupta
रणनीतियां समय के साथ बदलनी भी चाहिए, ख़ासकर जब आक्रमण के तरीक़े बदल रहे हों। भारतीय इतिहास का एक बड़ा सबक यह भी है। वैसे जब ये कहा जाता है कि हिंदू कभी मिटा नहीं तो मुझे अक्सर पाकिस्तान दिखने लगता है। तब लगता है कि यह तारीफ़ बरगलाने के लिए है।

Sunil Singh
Vivek Gupta सिर्फ पाकिस्तान नहीँ, अफ़ग़ानिस्तान बांग्लादेश भी

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Saurabh Mishra
Vivek Gupta Sach mein.. Aaj bahut saare aise regions hain jahan 60-65 saal pehle tak jo culture ya log the almost negligible bach gaye hain… Agar baat 800-1000 saal pehle ki jaye to us time ke comparison mein hardly 15% remaining hoga..

Praveen Jha
पाकिस्तान, श्रीलंका, बांग्लादेश, मलय, म्यांमार, नेपाल, मॉरीशस, फिजी, गयाना, सूरीनाम में अलग-अलग सर्वाइवल स्ट्रैटेजी अपनायी गयी। अलग-अलग परिणाम मिले। कुछ में काफ़ी क्लोज थे मूल भारतीय स्ट्रैटेजी से, वहाँ सर्वाइवल तो छोड़िए, वैसे ही गुंथते चले गए।

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Saurabh Mishra
They know very well how to nurture generations with specific mindset and complete inclination towards religious thoughts.A country formed just 72-73 years back don’t have clue on Takshilla University. I mean masses over there

Ashutosh Kumar Tiwari
वह स्ट्रेटेजी भी अब उत्तर आधुनिक पाश्चात्य आक्रमणों से कैसे निपटा जाए इसको समझने और तदनुरूप खुद को ढालने में विफल सी हो रही है।

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Utkarsh Aman Shrivastava
और स्ट्रेटजी बारीक होने के साथ साथ काफी हद तक बेहद सरल और सुलझी हुई भी है सर.

रामधारी सिंह ‘बिल्डर’
भारत मे कोई दक्षिणपंथी दल या विचारधारा नही है,जो भीड़ दिखती है,वो भी बस एंटी लेफ्ट,एंटी भारतपंथ की है।
और आज के परिप्रेक्ष्य मे भारतीयता ही सनातन है,सनातन ही भारतीयता है।
नोट:- यति को भारतपंथ से मत कतई मत जोड़ियेगा,और भारतीयता को भौगोलिक दृष्टि से ही मत देखियेगा।

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