Amitaabh Srivastava-
सुबह सुबह संजय चौहान के निधन की ख़बर एक झटके की तरह आई। संजय चौहान हिंदी फिल्मों के एक अच्छे और सफल पटकथा लेखक होने से पहले हिंदी पत्रकारिता में सक्रिय रहे थे। हिंदी इंडिया टुडे के साहित्य वार्षिकी विशेषांक की उत्कृष्ट सामग्री और प्रस्तुति उनकी साहित्यिक अभिरुचि का उदाहरण रहा है।
उनके संपादन-संयोजन में निकला एक अंक ‘अक्षर की आरसी’ आज भी स्मृतियों में है। सिनेमा संवाद के सिलसिले में संजय जी से जब पहली बार बातचीत हुई तो उनकी तरफ से शुरुआती औपचारिकता मेरे यह बताते ही ख़त्म हो गई कि मैं भी इंडिया टुडे समूह के चैनल आज तक का लंबे समय तक हिस्सा रहा हूँ। उन्होंने व्यस्तता और स्वास्थ्य के कारण उस समय जुड़ने में असमर्थता जताई और आगे भागीदारी का वादा किया।
अफसोस कि अब संजय जी से रूबरू बात कभी नहीं हो पाएगी। पान सिंह तोमर, हजारों ख़्वाहिशें ऐसी उनकी बहुत चर्चित फिल्में हैं। संजय चौहान जी को विनम्र श्रद्धांजलि।
Harish Pathak-
बहुत रुला रहा है संजय चौहान का जाना। स्तब्ध हूँ। कभी कल्पना में भी नहीं सोचा था कि हर वक्त चेहरे पर एक सनातन हॅसी को लिए ‘कब मिलोगे हरीश बाबू?’कहनेवाला मेरा अजीज Sanjay Chouhan अचानक से अलविदा कह देगा। चुपचाप। गुपचुप। यह कैसा संवाद हुआ प्रिय संजय?आप तो ऐसे न थे?
कल रात ग्यारह बजे के आसपास चर्नी रोड स्थित एच एन रिलायंस हॉस्पिटल में हिंदी पत्रकारिता और फिल्मों के इस अत्यंत प्रतिभाशाली लेखक ने अंतिम सांस ली। वह पिछले तीन माह से लिवर सम्बन्धी व्याधियों से जूझ रहे थे।आज दोपहर 12.30 बजे ओशिवरा हिन्दू श्मसान में उनका अंतिम संस्कार किया जाएगा।
इस संजय को भूल पाना मेरे लिए बहुत ही मुश्किल है।मेरी उससे पहली मुलाकात 1980 के आसपास भोपाल में कला परिषद के दफ्तर में श्रीराम तिवारी ने करवायी थी। तब वह कला परिषद की पत्रिका ‘कला वार्ता’ में प्रकाशन सहायक था और श्रीराम तिवारी संपादक। वह पहली मुलाकात जब हम दोनों साहित्य और पत्रकारिता में घुटुअल चल रहे थे कब,कैसे घनघोर आत्मीयता में बदल गयी,नहीं पता।
भोपाल से दिल्ली, फिर जेएनयू,फिर इंडिया टुडे,सन्डे मेल(हिंदी), फिर एक दिन अचानक ‘धर्मयुग’ के मेरे दफ्तर में सपत्नीक आ कर उसने मुझे चौंका दिया। आते ही बोला,’तत्काल पीछे प्रेस क्लब चल,घण्टों बतियाना है’।यह था उसका लहजा।अपनेपन से सराबोर।
हर जगह उसने अपना होना साबित किया।इंडिया टुडे (हिंदी) की शुरुआती टीम का वह हिस्सा था।प्रभु चावला उसे बेहद पसंद करते थे। वह साहित्य वार्षिकी के शिल्पकारों में एक था।
‘हजारों ख्वाइशें ऐसीं’,’आइ एम कलाम’ ‘साहब,बीबी और गैंगेस्टर’ और ‘पानसिंह तोमर ‘ जैसी फिल्में उसने लिखीं और यश भी पाया, पुरस्कार भी। जब पानसिंह की शूटिंग के वक्त वह मेरे शहर ग्वालियर में था तब रात लगभग रोज ‘काये, का कर रहे हो?’का संवाद बोलते उसका फोन आता और मैं खुद को ग्वालियर में पाता। आज वह सब धूल हो रहा है। यह किसने चाहा था?
Anil Shukla-
‘पानसिंह तोमर’ जैसी अप्रतिम फिल्म के स्क्रिप्ट राइटर संजय चौहान नहीं रहे।’आईएम कलाम’, ‘धूप’ तथा ‘साहिब बीबी और गैंगस्टर’ सरीकी शानदार फिल्में भी उन्होंने ही लिखी थीं। वह लिवर सिरोसिस जैसी गंभीर बीमारी से पिछले कुछ महीनों से जूझ रहे थे।
पत्रकारिता के पेशे में एक समय संजय मेरे सहयोगी थे। दिल्ली में सन 89 से 92 के बीच ‘सन्डे मेल’ अख़बार में हमने साथ-साथ काम किया था। उन्होंने वायदा कर रखा था कि अगली बार जब भी वह कुछ समय के लिए दिल्ली आएंगे तो आगरा पहुंचकर 3 दिनों के लिए ‘रंगलीला’ के साथ युवाओं की एक स्क्रिप्ट राइटिंग की वर्कशॉप करेंगे।
अफ़सोस कि उनका यह वायदा पूरा न हो सका। उनके असमय प्रस्थान ने हिंदी फिल्म उद्योग से एक क़ाबिल लेखक को खो दिया।
Amit Karn-
कुछ सुबह मनहूस हो जाती हैं। जब प्यारे इंसानों को अपने पास जल्द बुला लेने के सिलसिले में ऊपर वाले कोई नरमी नहीं करते। प्यारे और प्रखर लेखक संजय चौहान सर को भी उन्होंने अपने पास बुला लिया है। कल रात व हम सब को छोड़ चले गए। धारदार लेखक और बहुत clear-cut इंसान थे वो । इंडस्ट्री ने एक क्षमतावान राइटर और नेक दिल इंसान खोया है। ऊपरवाला अपनी स्क्रिप्ट ऐसा क्यों लिखता है इसका जवाब शायद ही मिले. गुजारिश है उनसे कम से कम अच्छे लोगों को इस कदर अचानक अपने पास तो ना बुलाया करें।
Prakash K Ray-
लेखक संजय चौहान नहीं रहे. उनके खाते में पान सिंह तोमर, आई एम कलाम, साहेब बीबी गैंगस्टर, हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी, मैंने गांधी को नहीं मारा, धूप जैसी फ़िल्में रहीं. वरिष्ठ पत्रकार अजय ब्रह्मात्मज जी और फ़िल्मकार अविनाश दास के सौजन्य से उनसे मुलाक़ातें रहीं. वे जेएनयू के छात्र भी रहे थे और सिनेमा लेखन में जाने से पूर्व पत्रकारिता और शिक्षण से भी संबद्ध रहे थे. उनकी फ़िल्में और बतकही की यादें बची रहेंगी. नमन…
Firoj Khan-
संजय जी Sanjay Chouhan नहीं रहे। किसी के न रहने पर पता चलता है कि वह हमारे लिए जरूरी था। इरफान साब के जो बेहतरीन किरदार हैं, उनमें से कुछ सबसे पहले संजय जी के जेहन में उभरे थे। उन्होंने दुनिया के सिनेमा को पान सिंह तोमर जैसा अमर किरदार दिया। हफ्ता-दस दिन पहले की बात है, जब मैं, अविनाश दास और रामकुमार सिंह अश्विनी चौधरी जी के दफ्तर में बैठे थे। अश्विनी जी ने बताया कि संजय जी की तबियत ठीक नहीं है। उस रोज थोड़ा डर लगा था। आज वह डर तकलीफ में बदलकर एक पूर्णविराम के साथ खत्म हुआ। अलविदा संजय जी…
सात मार्च 2020 का एक वीडियो देखें जो संजय ने अपने फेसबुक पर पोस्ट किया हुआ है-
https://www.facebook.com/sanchouhan/videos/10156935685627409/