सौमित्र रॉय-
क्या होता, अगर राजा को जनता पसंद करती। भारी संख्या में उसका समर्थन करती। वोट देती। लेकिन, पिछले 3 चरणों से वोटिंग परसेंटेज डाउन है। इस बार करीब 62% है। यूपी और बिहार सबसे फिसड्डी हैं। गुजरात भी जोश के बजाय होश में है।
पब्लिक होश में है। मदहोश सत्ता परेशान है। कहीं नोट दिखाए जा रहे हैं तो कहीं डंडे। कहां हैं बीजेपी के पन्ना प्रमुख और बूथ मैनेजमेंट? कहां है आरएसएस का संगठन?
चुनावी धरातल पर सबसे नीचे या तो हलचल ही नहीं है या फिर पब्लिक हताश है। बहुतेरे मित्र अभी भी मानते हैं कि फर्जी वोट, ईवीएम में गड़बड़ी या फिर जोड़–तोड़ से सत्ता फिर कुर्सी लूट लेगी।
मुमकिन है, लेकिन ये भी निराश करने वाला है। यानी वोट दें या न दें, क्या फ़र्क पड़ता है–जब आना उसी सत्ता को है। कल वोट देकर उंगली दिखाने वाले भी दावे के साथ नहीं कह सकते कि उन्होंने जिसे वोट दिया है, वह उसी को गया है।
क्या देश की 40% जनता ने मोदी को अपनी किस्मत मान लिया है? हालांकि, जवाब इतना आसान भी नहीं है, क्योंकि यह विचारधारा की लड़ाई है। उदाहरण के लिए, राह चलते किसी प्यासे को देखकर भी अनदेखा करना। बाकी 40% का पानी तलाशते, हांफते उस शरीर का वीडियो बनाना और फिर किसी अनजाने का पानी पिलाकर उस जिस्म में प्राण फूंकना।
विचारधारा बनाई जाती है। सब सिस्टम पर छोड़ देने वालों की कोई विचारधारा नहीं होती। ऐसा 70% लोग करते हैं। लेकिन सिस्टम जवाबदेह नहीं है और उसे चलाने वाली सत्ता मूर्ख, नाकाम और सामंतशाही है। यानी जो वोट दे रहे हैं, उन्हें या तो बदलाव, सिस्टम को जवाबदेह बनाने की आस है या फिर वे सिर्फ वोट देने के लिए वोट दे रहे हैं।
कोर वोटर, शिफ्टिंग यानी पाला बदलने वाले वोटर– दोनों मिलाकर 60% से ज्यादा नहीं हैं। इसमें फ्रिंज वोटर गायब हैं। फर्स्ट टाइमर्स, युवा वोटर करीबन गायब हैं, मानों लोकतंत्र से उनका भरोसा उठ चला हो। असल निर्णायक तो वही हैं, जो स्विंग यानी रुझान पैदा करते हैं।
देश के लिए बेख्वाब, सिस्टम से मायूस, सत्ता के विचारों से कट चुके इस तबके को रोजी–रोटी–रोजगार चाहिए। बीजेपी में भीड़ बढ़ाने के लिए गुंडई करने वाले अपराधियों को छोड़ दें। उनके लिए कोई आवाज़ है? यूपी–बिहार में युवाओं की शादी नहीं हो पा रही है। परिवार चिंतित है। मां–बाप बदलाव की उम्मीद ही पाल सकते हैं, लेकिन युवा निराश है।
लिहाजा–4 जून को नतीजा इन आंकड़ों में दिख सकता है। असम की 4 में से 2 सीटें इंडिया को खिसक चुकी हैं। बिहार की 5 में से 4, कर्नाटक की 14 में से 10, महाराष्ट्र की 11 में से 6, यूपी की 10 में से 5 और बंगाल की चारों सीटें।
यानी तीसरे दौर की 94 में से लगभग 45 सीटें भी अगर इंडिया के खाते में जाएं तो 543 सदस्यीय संसद की आधी सीटों पर हो चुके चुनाव में विपक्ष की झोली भर चुकी है। 2019 में 67% से ज्यादा वोटिंग एक राष्ट्रवादी लहर तले हुई थी, जिसका गुब्बारा अब फूट चुका है।
आखिर में, वही सवाल–ईवीएम में हेर–फेर। इस निराशा का कोई इलाज नहीं। आगे जनमत की निराशा और गहराएगी। नरेंद्र मोदी की सत्ता के लिए यह एक और प्राण प्रतिष्ठा का वक्त है। बेजान, बेहाल अवाम में जान फूंकने का जतन।