अमिताभ श्रीवास्तव-
तीन दौर के मतदान के बाद इलेक्ट्रॉनिक मीडिया चाहे जो ढोल पीटे लेकिन कम वोटिंग के असर, चुनावी माहौल और प्रधानमंत्री की भाषा में आए बदलाव से ऐसा लग रहा है कि बीजेपी इस बार सारे दावों के बावजूद ढलान पर है और पार्टी की वरिष्ठतम मंडली को इसका एहसास हो चुका है।
प्रधानमंत्री ने जिस तरह अपनी चुनावी सभा में सार्वजनिक तौर पर अंबानी-अदाणी का नाम लेकर कांग्रेस की चुनावी फ़ंडिंग, काला धन, बोरे, टेम्पो में पहुँचाये जाने वाले संभावित पैसे से उन्हें जोड़ा है, उससे उनकी बौखलाहट और बेपर्दा हुई है। नरेंद्र मोदी हड़बड़ाहट में एक के बाद एक नैरेटिव बनाने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन इस बार कुछ भी बहुत दूर तक चल नहीं पा रहा है।
हाँ, अंधाधुँध चुनाव प्रचार कर रहे मोदी की कम से कम बढ़ी उम्र में इतनी मेहनत के लिए ज़रूर प्रशंसा की जा सकती है। न मंगलसूत्र टिका, न विरासत, न भैंस, न जायदाद, न पाकिस्तान। सैम पित्रोदा तो खैर केवल टीवी चैनलों की हेडलाइन्स के लिए ही मुद्दा बन पाए, वह भी इसलिए कि चैनलों के महान एंकर और उनके उनसे भी महान वरिष्ठ लोग कुछ घंटे वाली फुरफुरी सनसनी पर ज्यादा ध्यान देते हैं।
चैनलों में पढ़ने लिखने की परंपरा की बहुत पहले हत्या हो चुकी है वरना मंगलसूत्र वाले बयान से लेकर सैम पित्रोदा की टिप्पणियों पर तार्किक तरीके से चर्चा हो सकती थी, होनी चाहिए थी।
विपक्ष इस बार हमलावर दिख रहा है। उसके उठाये संविधान बदलाव और आरक्षण खत्म करने की आशंका के मुद्दे पर प्रधानमंत्री समेत पूरी बीजेपी सफाई देती फिर रही है।
हिंदू-मुसलमान के सांप्रदायिक विभाजन के आधार पर तो बीजेपी का एक कट्टर हिंदू वोटर समुदाय पहले ही तैयार है, वह बीजेपी को ही वोट देता आया है और बीजेपी को ही वोट देगा यह तय है। उसमें थोड़ी बहुत घटत-बढत भी हो सकती है लेकिन सिर्फ उसी वोटर के सहारे इस बार नैया पार हो जाएगी, यह एक बड़ा सवाल है।
लगता है यह सवाल इस बार बीजेपी और मोदी को भी परेशान कर रहा है। उत्तर प्रदेश के बाक़ी चार दौर काफी अहम होंगे।