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एनडीटीवी समूह के संपादकीय नेतृत्व का पूरा नज़रिया अभिजातवर्गीय है : मुकेश कुमार

ये लोग लुटियन की दिल्ली और बॉलीवुड के सितारों से आगे देख ही नहीं पाते….

Mukesh Kumar : एनडीटीवी का पूरा चरित्र सेलेब्रिटी केंद्रित है, वह इससे उबर ही नहीं पाता। बीच-बीच मे एकाध कार्यक्रम या रिपोर्ट में दूसरे वर्ग भले आ जाएं मगर वह अपने इस मूल स्वभाव के अनुरूप ही व्यवहार करता रहता है। कोई समस्या हो या अभियान, उसकी प्रस्तुति तुरंत सेलेब्रिटीमय हो जाती है। स्क्रीन पर सेलेब्रिटी आकर जम जाते हैं और पूरे देश को ज्ञान देने लगते हैं। ये ज्ञान मोटे तौर पर अँग्रेज़ी में ही होता है। हिंदी के एक-दो चिकने चेहरे भी ले लिए जाते हैं और बीच-बीच में उन्हें भी थोड़ा-बहुत मौक़ा दे दिया जाता है मगर मोटे तौर पर अँग्रेज़ी के सेलेब्रिटी एंकर ही मोर्चा सँभालते हैं। शायद एनडीटीवी ने इसे एक फार्मूले की तरह ही अपना लिया है।

<p><span style="font-size: 18pt;">ये लोग लुटियन की दिल्ली और बॉलीवुड के सितारों से आगे देख ही नहीं पाते....</span></p> <p>Mukesh Kumar : एनडीटीवी का पूरा चरित्र सेलेब्रिटी केंद्रित है, वह इससे उबर ही नहीं पाता। बीच-बीच मे एकाध कार्यक्रम या रिपोर्ट में दूसरे वर्ग भले आ जाएं मगर वह अपने इस मूल स्वभाव के अनुरूप ही व्यवहार करता रहता है। कोई समस्या हो या अभियान, उसकी प्रस्तुति तुरंत सेलेब्रिटीमय हो जाती है। स्क्रीन पर सेलेब्रिटी आकर जम जाते हैं और पूरे देश को ज्ञान देने लगते हैं। ये ज्ञान मोटे तौर पर अँग्रेज़ी में ही होता है। हिंदी के एक-दो चिकने चेहरे भी ले लिए जाते हैं और बीच-बीच में उन्हें भी थोड़ा-बहुत मौक़ा दे दिया जाता है मगर मोटे तौर पर अँग्रेज़ी के सेलेब्रिटी एंकर ही मोर्चा सँभालते हैं। शायद एनडीटीवी ने इसे एक फार्मूले की तरह ही अपना लिया है।</p>

ये लोग लुटियन की दिल्ली और बॉलीवुड के सितारों से आगे देख ही नहीं पाते….

Mukesh Kumar : एनडीटीवी का पूरा चरित्र सेलेब्रिटी केंद्रित है, वह इससे उबर ही नहीं पाता। बीच-बीच मे एकाध कार्यक्रम या रिपोर्ट में दूसरे वर्ग भले आ जाएं मगर वह अपने इस मूल स्वभाव के अनुरूप ही व्यवहार करता रहता है। कोई समस्या हो या अभियान, उसकी प्रस्तुति तुरंत सेलेब्रिटीमय हो जाती है। स्क्रीन पर सेलेब्रिटी आकर जम जाते हैं और पूरे देश को ज्ञान देने लगते हैं। ये ज्ञान मोटे तौर पर अँग्रेज़ी में ही होता है। हिंदी के एक-दो चिकने चेहरे भी ले लिए जाते हैं और बीच-बीच में उन्हें भी थोड़ा-बहुत मौक़ा दे दिया जाता है मगर मोटे तौर पर अँग्रेज़ी के सेलेब्रिटी एंकर ही मोर्चा सँभालते हैं। शायद एनडीटीवी ने इसे एक फार्मूले की तरह ही अपना लिया है।

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टाइगर बचाओ से लेकर स्वच्छता अभियान तक हर मामले में वही चमकते-दमकते चेहरों का जमावड़ा क्या ये नहीं बताता कि इस चैनल समूह के संपादकीय नेतृत्व का पूरा नज़रिया ही अभिजातवर्गीय है। ज़ाहिर है इसका असर काम करने वालों पर भी पड़ता ही होगा। सेलेब्रिटी पर ये निर्भरता निश्चय ही मार्केटिंग का ही फंडा है। बड़े ए़डवर्टाइजर, बड़े स्पांसर बड़े नामों से जुड़कर अपने प्रोडक्ट की छवि निर्माण का खेल खेलते हैं और चैनल उनके लिए साधन बन जाते हैं। सबसे ज़्यादा ये एनडीटीवी में ही होता है।

एनडीटीवी में बहुत सारी ख़ूबियाँ हैं, वह संतुलित रहता है, संयम से काम लेता है, चीख-पुकार से बचा हुआ है और तमाम चैनलों से उसका कंटेंट बेहतर होता है-पैकेजिंग के लिहाज़ से भी और कंटेंट के स्तर पर भी। अंध-विश्वासी एवं चमत्कार संबंधी अवैज्ञानिक किस्म के कार्यक्रम उस पर कभी नहीं दिखे। उसके जैसी विविधता भी किसी दूसरे चैनल में कम ही देखने को मिलती है। लेकिन उसका ये सेलेब्रिटी-प्रेम उसे दर्शकों से दूर कर रहा है। उसके पतन की एक वजह ये भी है। ये इस बात का भी प्रमाण है कि चैनल चलाने वालों की दृष्टि कितनी सीमित है। वह लुटियन की दिल्ली और बॉलीवुड के सितारों से आगे देख ही नहीं पाती।

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वरिष्ठ पत्रकार मुकेश कुमार की एफबी वॉल से.

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0 Comments

  1. Manish

    October 4, 2016 at 5:26 am

    great article by mukesh ji. ndtv ab wo nahi raha. uska character elite ho gaya hai.

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