पी. के. खुराना
पद्मभूषण समाजसेवी बाबा अन्ना हजारे की उपलब्धियों की सूची बहुत लंबी है। उन्होंने विकास, सरकारी कामों में पारदर्शिता, सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार के निवारण आदि के लिए लगातार काम किया। बाबा हजारे ने महाराष्ट्र के गांव रालेगण सिद्धि को एक आदर्श गांव में परिवर्तित कर दिया। यूपीए-2 के कार्यकाल में जब भ्रष्टाचार शिखर पर था और 5 अप्रैल 2011 को उन्होंने आमरण अनशन शुरू कर दिया तो सारा देश उनके पीछे हो लिया। टीवी की लाइव कवरेज और भारी जन समर्थन ने आंदोलन को मजबूती दी। अंतत: सरकार को झुकना पड़ा और सरकार ने लोकपाल बिल लाने की बात मान ली। लेकिन अंतत: राजनीतिक धूर्तता की जीत हुई और सरकार ने संसद में एक डमी लोकपाल बिल पेश किया जिसे आंदोलनकारियों ने जोकपाल कह कर तुरंत अस्वीकार कर दिया। उसके बाद उस आंदोलन का वैसा प्रभाव कभी नहीं बन पाया।
वही अन्ना हजारे, वही नारा, वही उद्देश्य, लेकिन सिकुड़ता जनसमर्थन टीआरपी के भूखे टीवी चैनलों पर इतना असर नहीं डाल सका कि वे दोबारा इस आंदोलन की लाइव कवरेज का लालच करें। एक बार उन्होंने ममता बनर्जी के साथ भी आंदोलन शुरू किया लेकिन जन समर्थन के अभाव में हाथ वापिस खींच लिया। गत माह उन्होंने एक बार फिर गांधी जी के आमरण अनशन के हथियार को आजमाया लेकिन जनता साथ नहीं जुड़ी क्योंकि लोग जानते हैं कि शांतिपूर्ण आंदोलन करने से, मोमबत्तियां जलाने से, ज्ञापन देने से सरकार पर कोई असर नहीं होता। हां, भारी तोड़-फोड़ हो जाए, आगजनी हो जाए, कुछ लोग काल-कवलित हो जाएं, दंगो के कारण चल-अचल संपत्ति की हानि हो तो सरकार सुनने की मुद्रा में आती है।
सरकारें सारी शक्तियों का केंद्रीयकरण चाहती हैं, और सरकारें यह भी चाहती हैं कि उनके फैसलों ही नहीं, उनके अनैतिक कामों पर भी कोई उंगली न उठाए। मोदी सरकार ने हालिया वित्त विधेयक में चुपचाप अपनी सुविधा के लिए ऐसे बहुत से प्रावधान पास करवा लिये ताकि उसके पिछले पापों पर पर्दा पड़ा रहे। मीडिया पर अघोषित सेंसरशिप लागू है। सच और झूठ के चतुराईपूर्ण मिश्रण से बने चुटकुले सोशल मीडिया पर छाए हुए हैं। सत्तापक्ष अपनी इमेज पर खुद ही फिदा है।
हमारे देश में जनतंत्र की हालत यह है कि शासन-प्रशासन में जनता की भागीदारी कहीं भी नहीं है। किसी सरकारी दफ्तर में कोई काम पड़ जाए तो चक्कर लगने शुरू हो जाते हैं, काम कब होगा इसकी तो छोडिय़े, होगा भी या नहीं, इसकी ही गारंटी नहीं है। देश में जनतंत्र सिर्फ 5 साल बाद आता है जब लोग सत्तापक्ष को सत्ता से बाहर करके अपना गुस्सा निकालते हैं। दुर्भाग्य यह है कि दल बदल देने से स्थिति नहीं बदल जाती। हम सांपनाथ को हटा देते हैं और किसी नागनाथ को सत्ता सौंप देते हैं। यही कारण है कि हमारे देश में ऐसे ‘बंद’ और आंदोलन आम हैं जिनमें तोड़-फोड़ और हिंसा होती है। वोट बैंक के लालच में सरकार उन पर कोई कार्यवाही नहीं करती। पहले समाज का एक वर्ग आंदोलन करता है, तोड़-फोड़ करता है, सार्वजनिक और निजी संपत्ति को नुकसान पहुंचाता है और फिर कोई दूसरा वर्ग उसके विरोध में वैसा ही सब कुछ दोहरा देता है। अंधी-बहरी नपुंसक सरकार चुपचाप बैठी रहती है।
जाट आंदोलन हो, करणी सेना का उपद्रव हो, किसी बाबा की गिरफ्तारी का मामला हो, पटेल आंदोलन हो, दलित आंदोलन हो, हर बार सरकार यूं बेहोश हो जाती है कि जलते रोम में नीरो की बांसुरी की कहावत की याद आ जाती है। सरकार की चुप्पी तोडऩे का दूसरा तरीका है कि कोई राजनीतिक दल बनाया जाए, सत्ताधीशों को चुनौती दी जाए और खुद सत्ता में आया जाए। जब अन्ना हजारे का आंदोलन दिल्ली में पहली बार चला तो जनसमान्य में किसी को मालूम नहीं था कि आंदोलन की रूपरेखा के सूत्रधार अन्ना हजारे नहीं बल्कि अरविंद केजरीवाल हैं। तब सब समझते थे कि अन्य लोगों की तरह केजरीवाल भी अन्ना हजारे के एक प्रमुख समर्थक मात्र हैं। केजरीवाल को जल्दी ही समझ आ गया कि आंदोलनों से सरकार को थोड़ा-बहुत हिलाया तो जा सकता है पर कोई बड़ी उथल-पुथल संभव नहीं है। यही कारण है कि आंदोलन के अपने बहुत से साथियों के विरोध के बावजूद उन्हें आम आदमी पार्टी का गठन करना पड़ा।
खबरें आ रही हैं कि दलित प्रदर्शन के विरोध में अब करणी सेना फिर सक्रिय हो गई है। एक बार फिर तोड़-फोड़ होगी, जान-माल का नुकसान होगा और सरकार तमाशा देखने के साथ-साथ अनाप-शनाप बयान देकर लोगों का संतुष्ट करने का असफल प्रयास करेगी।
इस सारे झालमेल का कोई इलाज है क्या? मुझे याद आता है कि 1985 बैच के आईपीएस अधिकारी जेके त्रिपाठी ने तमिलनाडु के शहर त्रिची में एक चमत्कार कर दिखाया था। त्रिची में एक तिहाई हिंदू, एक तिहाई मुस्लिम और एक तिहाई ईसाइयों की आबादी के कारण स्थिति सदैव विस्फोटक रहती थी। धार्मिक उन्माद चरम पर होता था और प्रशासन बेबस था। ऐसे में एक पुलिस अधिकारी ने अपनी सूझबूझ से पूरे समाज के बीच तालमेल बैठाया और शहर में अभूतपूर्व शांति स्थापित की। उन्होंने कोई जोर-जबरदस्ती नहीं की, ज्य़ादा पुलिस बल की मांग नहीं की, केवल धैर्य और सूझबूझ से एक ऐसी समस्या का हल ढूंढ़ निकाला जिसे दूर करना असंभव माना जा रहा था। सभी समुदायों के नेताओं में संवाद और आपसी समझ पैदा करके उन्होंने यह चमत्कार कर दिखाया। तरीका बहुत सीधा था। जनता हर जगह पुलिस को अपने दुश्मन के रूप में, आततायी के रूप में देखती है। उसे पुलिस से किसी सहायता की उम्मीद नहीं होती। त्रिपाठी ने पुलिस फोर्स को जनता के मित्र का रूप दे दिया। जनता उन्हें सूचनाएं देने लगी, परिणाम यह हुआ कि अपराध घट गए और दंगे खत्म हो गये।
सरकारी पद असीमित नहीं हैं, हर किसी को सरकारी नौकरी नहीं मिल सकती, ऐसे में आरक्षण किसी समस्या का हल नहीं है। हमारी सरकारें निकम्मी हैं, समस्या का समाधान अब समाज को ही करना होगा। जब समय कठिन होता है तो उत्तेजना की नहीं, बल्कि धैर्य और सन्मति की आवश्यकता होती है। हमें मिलकर ऐसा कुछ करना होगा कि युवाओं को रोज़गार की कमी न रहे। उद्यमियों और व्यावसायिक संगठनों के सहयोग से यह संभव है। सीआईआई, फिक्की, चेंबर आफ कामर्स, टाई, मैनेजमेंट एसोसिएशनें आदि मिलकर इस काम को अंजाम दे सकते हैं। रोज़गार के अवसर बढ़ेंगे तो युवा समाज शरारत के बजाए काम में व्यस्त होगा।
उद्यमियों का रुझान टेक कंपनियों की ओर है। निवेशक उसी कंपनी में निवेश करना चाहते हैं जिसके स्केल-अप होने की संभावना हो। इस नज़रिये में कुछ सुधार की आवश्यकता है। सीएसआर, यानी, कारपोरेट सोशल रेस्पांसिबिलिटी के तहत यदि विभिन्न व्यावसायिक संगठन और उद्यमी बेरोज़गार युवाओं को रोज़गार के काबिल बनाने की दिशा में काम करेंगे तो बहुत से नौजवानों को रोज़गार मिलेगा। ग्रामीण युवाओं के लिए स्कूटर मेकैनिक, इलेक्ट्रीशियन, हैंड पंप मैकेनिक, पेंटर, मोबाइल रिपेयर, मधुमक्खी पालन, मछली पालन तथा युवतियों को कढ़ाई, सिलाई, अचार-शर्बत बनाना आदि कामों का प्रशिक्षण देकर तथा सहकारी समितियों का गठन करके रोज़गार के नये आयाम खोले जा सकते हैं।
पढ़े-लिखे शहरी युवकों को कंप्यूटर, ग्राफिक डिजाइन, कंटेट मार्केटिंग, ब्लॉगिंग, आदि कितने ही नये हुनर सिखाए जा सकते हैं। छोटे से प्रयास से व्यावसायिक संगठन रोज़गार के नये अवसरों की पहचान ही नहीं, बल्कि रोज़गार के नये अवसर पैदा कर सकते हैं। दंगों की समस्याओं के हल का पहला कदम आलोचना या उत्तेजना नहीं बल्कि रोज़गार है। हमें याद रखना चाहिए कि दंगों से उद्योग, समाज और देश, सभी का नुकसान होता है। बेरोज़गारी, खाली समय, भविष्य की अनिश्चितता का डर युवकों को गलत राह पर ले जाता है। रोज़गार सृजन के प्रयास सफल होंगे तो न केवल समृद्धि आयेगी और हमारी अर्थव्यवस्था मजबूत होगी बल्कि समाज में शांति भी कायम हो सकेगी।
लेखक पी. के. खुराना दो दशक तक इंडियन एक्सप्रेस, हिंदुस्तान टाइम्स, दैनिक जागरण, पंजाब केसरी और दिव्य हिमाचल आदि विभिन्न मीडिया घरानों में वरिष्ठ पदों पर रहे। फिलहाल वे कई कंपनियों का संचालन करते हैं।