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सुख-दुख

ओशो के आगे

Yashwant Singh : कुछ नए बदलावों को महसूस कर रहा हूँ। खुद के भीतर। बाहर की दुनिया के प्रति बहुत मामूली जुड़ाव लगाव द्वेष राग शेष है। अंदर की यात्रा शुरू हो गई है। जैसे कोई बीज वर्षों से यूँ ही पड़ा हो और अब अचानक वो धरती से बाहर निकलने को मचल रहा हो। न आगे दौड़ जाने की ख्वाहिश है न पीछे बीते हुए को पकड़े रहने ज़िद। जिस क्षण में हूँ उसी संग प्रवाहित होने की कोशिश है। पहले भागने की सोचता था। पहले गुरु की तलाश में परेशान था। अब सब नियति पर छोड़ दिया है। जाहे विधि राखे राम। लालसाएं कामनाएं इच्छाएं पक कर टपकने लगी हैं। अब कैसे किससे क्यों संवाद करूँ। जो खुद ब खुद मिल रहा है वो अद्भुत अव्यक्त है।

Yashwant Singh : कुछ नए बदलावों को महसूस कर रहा हूँ। खुद के भीतर। बाहर की दुनिया के प्रति बहुत मामूली जुड़ाव लगाव द्वेष राग शेष है। अंदर की यात्रा शुरू हो गई है। जैसे कोई बीज वर्षों से यूँ ही पड़ा हो और अब अचानक वो धरती से बाहर निकलने को मचल रहा हो। न आगे दौड़ जाने की ख्वाहिश है न पीछे बीते हुए को पकड़े रहने ज़िद। जिस क्षण में हूँ उसी संग प्रवाहित होने की कोशिश है। पहले भागने की सोचता था। पहले गुरु की तलाश में परेशान था। अब सब नियति पर छोड़ दिया है। जाहे विधि राखे राम। लालसाएं कामनाएं इच्छाएं पक कर टपकने लगी हैं। अब कैसे किससे क्यों संवाद करूँ। जो खुद ब खुद मिल रहा है वो अद्भुत अव्यक्त है।

पूरे 2 साल लगे हैं इस बदलाव के उस छोर से इस छोर तक पहुँचने में। बीते 2 सालों में कई बार मरा हूँ, डरा हूँ। केंचुल उतरने की प्रक्रिया का सुख दुःख महसूसा है। अब विराट असीम से एकाकार का वक़्त शुरू हुवा है। ये कोई कहने बताने समझाने की चीज नहीं। पर अभी नयी यात्रा का शिशु हूँ तो हरकतें कुछ न कुछ करूँगा ही। विदेह होने का सुख समझाया नहीं जा सकता। और, विदेह होना कोई ठान लेने से नहीं हुवा जाता। इन्द्रियजन्य और मानवजन्य अनंत जाल हैं जिसमें फंसे रहने को अभिशप्त हैं हम, ख़ुशी ख़ुशी। ये शायद प्रकृति प्रभु असीम ब्रम्हांड की कृपा हो जो नयी यात्रा पे चल पड़ने का प्रसाद मिला है। आप सभी नए पुराने मित्रों का आभार। प्यार। आप उदात्त सन्दर्भ में सब कुछ लें। मगन रहें, जो कुछ भी करें, अच्छा या बुरा 🙂

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जो क्षुद्र के लिए प्यासा होता है, वह क्षुद्र को पाकर भी आनंद उपलब्ध नहीं करता। और जो विराट के लिए प्यासा होता है, वह उसे न भी पा सके, तो भी आनंद से भर जाता है। If the desire is for something insignificant, there will be no joy even if you get it; but if you long for the significant, the ultimate and you don’t get it, then you will be filled with joy even if you don’t get it. -ओशो

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अपनी अवधारणाएं, अपने आग्रह, अपना नजरिया, अपनी खुद की मूर्ति तोड़ छोड़ पाना बहुत मुश्किल काम होता है। ओशो के इस बहुत पुराने और रेयर बताए गए वीडियो को सुनिए। जी हाँ। आँख बंद कर सुनियेगा पहली बार। दूसरी बार भले देखिएगा भी 🙂 https://www.youtube.com/watch?v=FFni_YQ_u6M

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कुछ लोगों को लगने लगा है कि मैं बाबा संन्यासी आध्यात्मिक होने लगा हूं… अरे भाइयों, बाबा संन्यासी आध्यात्मिक तब बना जाए जब इस फील्ड में घुसकर मनमोहक वेष धर कर धंधा पानी करना हो… आंतरिक यात्रा सब करते हैं, कई बेहोशी में तो कुछ होश में. आंतरिक यात्रा सब करते हैं, कई घोषित करके करते हैं, कुछ चुपचाप. आंतरिक यात्राएं हमारे चाहने न चाहने के बावजूद जारी रहती हैं, कभी तेज गति से, कभी सुप्त गति से. आंतरिक यात्राएं कभी कभी मुख्यधारा बन जाया करती हैं जीवन की, वरना बाहरी यात्रा ही मुख्य धारा बनी रहती है. आंतरिक यात्रा के प्रति जब चैतन्य होकर सजग होकर एलर्ट होकर चाहत से भरकर देखने समझने लगते हैं तो नए रास्ते नए दृश्य नया संसार खुलता दिखता महसूस होता है वरना आंतरिक यात्रा की नदी सूखी कृपण उपेक्षित अकालग्रस्त बनी रहती है. और ये कि, आंतरिक यात्रा जबरन स्पीड नहीं पकड़ सकती, यह खुद ब खुद होने लगता है, एक समय एक उम्र एक समझ एक चेतना के बाद.. सो, ये मत समझना कि बाहर की दुनिया पर नजर नहीं है. सब देख सुन रहा हूं जी. हरंम्पना जारी आहे 🙂

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मार्क्स को पढ़ने भर से कोई लेनिन या माओ नहीं बन जाता. क्रांति के जरिए व्यस्था बदल देने वाले लेनिन और माओ ने मार्क्स को खूब पढ़ा-समझा लेकिन मार्क्स के दर्शन को कट्टरपंथी की तरह फालो नहीं किया, जैसे भारतीय मूर्ख कम्युनिस्टों ने किया. लेनिन और माओ ने मार्क्स की आत्मा को समझा और उसे अपने देश समाज काल परिस्थिति के हिसाब से विकसित रूपांतरित परवर्तित संशोधित समायोजित परिमार्जित कर लागू किया. इसी कारण ये दोनों शख्स अपने अपने देशों रूस और चीन में क्रांति करने में सफल हो सके. व्यवस्था को उखाड़ फेंकने में कामयाब हो सके.

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ठीक उसी तरह सिर्फ राम, कृष्ण, कबीर, बुद्ध, महावीर आदि भगवानों संतों महात्माओं मनीषियों को पढ़ने भर से आंतरिक यात्रा शुरू नहीं हो जाती. मोक्ष के रास्ते पर चल पड़ना संभव नहीं हो जाता. ओशो ने अपने बेहिसाब किताबों भाषणों प्रवचनों के जरिए धर्म अध्यात्म संतई जीवन आनंद प्रेम आदि की जो व्याख्याएं की हैं, वो अदभुत व अनमोल है. आप एक ओशो को इकट्ठे पढ़ सुन लें तो आपको अलग अलग कई सज्जनों को पढ़ने सुनने के लिए भटकना नहीं पड़ेगा. लगेगा प्यास तो यहीं पूरी हो गई. सबके सब एक जगह ही मिल गए.

यही कारण है कि मैं ओशो को आजकल दुबारा खूब पढ़ रहा हूं. पहली बार इलाहाबाद विश्वविद्यालय में ग्रेजुएशन की पढाई के लिए जब पहुंचा था, तब ओशो से किताबों के जरिए संपर्क हुआ था और उनसे जुड़ाव का सिलसिला लंबा चला. ओशो बेमिसाल हैं. लेकिन ओशो के आगे भी जाना है. आगे जाने का मतलब ओशो को पछाड़ना नहीं. ओशो से होड़ लेना नहीं. ओशो ने जिस रास्ते को चलने लायक बनाया, कंकड़ पत्थर मिट्टी गिट्टी सब तोड़ ताड़ समतल किया, उस रास्ते पर चलते हुए आगे उस पहाड़ पर चढ़ने की तैयारी करना जिसके लिए ये सारे रास्ते तैयार किए गए, इतनी सारी तैयारी की गई. ओशो ने ध्यान मेडिटेशन पर जितना काम किया है, वह नाकाफी है. वह शुरुआती है. वह वर्णनात्मक ज्यादा है, वह उत्सवधर्मी ज्यादा है, वह गेटटूगेदर सा है. वह भयग्रस्त भीड़ का समूह में इकट्ठा होकर आत्मविश्वास हासिल करने का प्रयास सा लगता है. गलत बिलकुल नहीं है. बस शुरुआत है. वह प्रथम मंजिल का प्रारंभ है. लेकिन दुर्भाग्य या दुख ये है कि इसी प्रथम मंजिल तक ओशो भक्त पहुंचकर चरम अवस्था तक पहुंचना समझ लेते हैं.

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सच कहूं तो ये प्रथम मंजिल, ये प्रथम चरण आपको खुद ब खुद मिल जाता है, अकेले ही, जब आप चैतन्य हो जाते हैं, चाहने की इच्छा से भर जाते हैं, पूर्ण-सा महसूस करने लगते हैं. इस कवायद में आप चाहें जितना नाच गा लें, ध्यान कर लें, उल्लास से भर जाएं. आगे की यात्रा शुरू नहीं होती, बस आप पहले चरण को ही जीते रह जाते हो. आगे के चरण ऐसे हैं जिससे डर लगेगा प्रथम चरण वालों को. मृत्यु, दुख, अंधेरे के साथ जीते हुए आप जीवन, सुख, प्रकाश को महसूस करने लगेंगे. लेकिन यह इतना सामान्य, वर्णनात्मक नहीं है, जितना यहां मैं कह बता पा रहा हूं. यह सपने में पहाड़ से गिरने जैसा है भी और नहीं भी. तो कैसा है यह?

… बताउंगा. थोड़ा वक्त लगेगा. जरूर बताऊंगा. पर क्या आप इसे सिर्फ सुनना जानना चाहते हैं या जीना भी 🙂

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भड़ास के एडिटर यशवंत सिंह के फेसबुक वॉल से उनके कई अपडेट्स का संग्रह.

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