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साहित्य

रॉयल्टी विवाद पर ‘आउटलुक’ में प्रकाशित रिपोर्ट में आरोपी राजकमल और वाणी प्रकाशनों का नाम ग़ायब!

रंगनाथ सिंह-

अरविंद दास की वॉल से पता चला कि आउटलुक में आशुतोष भारद्वाज ने विनोद कुमार शुक्ल द्वारा राजकमल और वाणी प्रकाशन पर रॉयल्टी को लेकर लगाये गये आरोपों के हवाले से कुछ लिखा है। वह लेख पढ़ गया। आशुतोष जी व्यस्त पत्रकार हैं इसलिए वह अपने लेख में राजकमल और वाणी का नाम लिखना भूल गये। आशुतोष ने यह भी लिखा है कि असगर वजाहत ने विनोद कुमार शुक्ल प्रकरण के बाद अपने प्रकाशक से किताबें वापस लेने की घोषणा की है, वह कौन प्रकाशक है इसकी जानकारी आउटलुक के पाठकों को कभी नहीं होगी क्योंकि आशुतोष जी नाम देना भूल गये।

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आशुतोष भारद्वाज आउटलुक के पाठकों को यह बताना भी भूल गये कि उनकी ताजा किताब भी राजकमल प्रकाशन से छपी है। आशुतोष ने अपने लेख में चन्दन पाण्डेय जी को लेखक की तरफ से लड़ते हुए सिपाही की तौर पर पेश किया है। एचटी में रीतेश मिश्रा ने भी चन्दन पाण्डेय के इस सिपाही-स्वरूप को पेश किया है। अरविंद दास ने भी अपनी पोस्ट में चन्दन पाण्डेय का जिक्र किया है तो सोचा देख लूँ कि चन्दन ने इस मसले पर किया लिखा है?

चन्दन की वॉल पर गया तो देखता हूँ कि वह भी काफी व्यस्त लेखक हैं। उन्होंने इस मुद्दे पर कई किस्तों लम्बा फर्रा लिखा है बस किसी फर्रे में राजकमल और वाणी का नाम लिखना रह गया है। चन्दन जी को कुछ खर्रे लिखने के बाद यश प्रकाशन द्वारा विजया शर्मा पर किये गये अत्याचार की सुध आयी और फिर उन्हें याद आया कि कि तरह उनके तीन मित्रों ‘मनोज कुमार पाण्डेय, राकेश मिश्र और वंदना राग’ के संग आधार प्रकाशन ने बड़ी नाइंसाफी की थी। ये अलग बात है कि चन्दन का पहला उपन्यास जिसका अंग्रेजी अनुवाद भारत भूषण तिवारी ने किया है, हाल ही में राजकमल ने छापा है। पता नहीं, राजकमल उन्हें मानदेय देगा या नहीं! इसकी थोड़ी चिन्ता है।

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चन्दन जी के साथ ही क्रिस हरमन की सामग्री को अनुवाद करके मौलिक बना लेने वाले अशोक कुमार पाण्डेय को भी याद आया कि उनके संग भी संवाद और आधार प्रकाशन ने बहुत नाइंसाफी की थी। ये भी अलग बात है कि अशोक कुमार पाण्डेय की ताजा मौलिक अनुवाद भी राजकमल प्रकाशन से ही छपा है।

आउटलुक वाले लेख में ही आशुतोष भाजपा हटाओ अभियान के सिपाही की तरह भी नजर आने का प्रयास करता दिख रहे हैं। फेसबुक पर भी आशुतोष जब नहीं तब भाजपा-विरोधी दिखने का प्रयास करते हैं लेकिन भाजपा के प्रबल प्रचारक मकरंद परांजपे की सरपरस्ती में शिमला में फेलोशिप और पत्रिका का सम्पादकत्व ग्रहण करने के बाद से उनकी इस पोस्चरिंग को लोग गम्भीरता से नहीं लेते। चन्दन पाण्डेय भी सोशलमीडिया पर भाजपा से दिनरात सीधी टक्कर लेते रहते हैं। उनको लोग कितनी गम्भीरता से लेते हैं इसपर तब विचार करेंगे जब राजकमल द्वारा उन्हें दी जाने वाली रायल्टी का पता चलेगा। इन दोनों सज्जनों की तवज्जो के लिए नीचे लगी तस्वीर दी जा रही है जिसमें राजकमल प्रकाशन के प्रमुख अशोक माहेश्वरी राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद से साहित्यिक शिष्टाचार के नाते भेंट करते नजर आ रहे हैं। ऐसी तस्वीरों पर ऐसे कलमवीर अतीत में काफी उत्तेजित होते रहे हैं, यह तस्वीर बस इसलिए दी जा रही है।

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नॉम चोमस्की और एडवर्ड हर्मन ने एक किताब लिखी थी- मैनुफैक्चरिंग कन्सेन्ट (सहमति का निर्माण)। इन दोनों समादृत लेखकों को अब मैनुफैक्चरिंग डिसेंट (असहमति का निर्माण) लिख देनी चाहिए। वो चाहें तो विनोद कुमार शुक्ल के मामले को उदाहरण के तौर पर अपनी किताब में दे सकते हैं। विडम्बना देखिए कि विनोद कुमार शुक्ल के मसले पर जिन लोगों ने डिसेंट की जगह हथिया ली है उन सबका सीधा ताजा सम्बन्ध उन प्रकाशकों से है जिनसे विनोद जी अपनी किताबें मुक्त कराना चाहते हैं। यही हमारे समय का मूल संकट है कि वास्तविक विपक्ष/डिसेंट/असहमति लोकवृत्त से गायब हो चुकी है और उसकी जगह बिजूके खड़े किये जा चुके हैं। खैर, बिजूकों की ऐतिहासिक नियति रही है कि आते-जाते पंछी उनके सिर पर बीट करते हैं, करते रहेंगे।

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