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47 बरस और 125 अंक : दोस्तों, यह ‘पहल’ का अंतिम अंक है!

कुछ पंक्तियां

राजकुमार केसवानी

दोस्तों,

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यह ‘पहल’ का अंतिम अंक है।

इस एक वाक्य को लिखने के लिए जितने साहस की आवश्यकता थी, उसे जुटाने में कई माह लग गए। इससे आगे की बात तो शायद किसी फूटे झरने की मानिंद बेतरतीब और बेसाख़्ता ही निकल पड़े।

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47 बरस और 125 अंक। 47 बरस पहले कथाकार ज्ञानरंजन ने एक वैचारिक महायज्ञ की योजना बनाई। हर काल और हर समय में सामाजिक विषमताओं से जूझने के लिए ऐसे यज्ञ की आवश्यकता होती ही है। इस यज्ञ में पहली आहुति ख़ुद ज्ञानरंजन ने दी – अपने कथाकार की। उसके बाद उनकी तलाश शुरू हुई उन लोगों की जो जिनके भीतर सामाजिक प्रतिबद्धता और संवेदना की लौ लगी हो या उसका स्पर्श हो। अपने जाने-सुने और निज अनुभव के आधार पर कह सकता हूं कि ज्ञानरंजन ने कई सारे मामलों में अपने आप से बेख़बर लोगों को अल्लादीन के चराग़ की तरह रगड़-रगड़ कर उनके भीतर के जिन को बाहर निकाल दिखाया।

मेरे लिए निजी तौर पर ‘पहल’ में ज्ञान जी के साथ संपादक का पद पाना ठीक वैसा ही है जैसे किसी स्कूल या कालेज के छात्र को उसी स्कूल-कालेज में टीचर का पद मिल जाए। फ़र्क है तो सिर्फ़ इतना कि यहां टीचर बनकर भी छात्र की तरह सीखने का क्रम ही जारी रहा। ख़ासकर अनुशासन।

‘पहल’ में मेरी वास्तविक और सक्रिय सहभागिता कोई दस बरस पहले शुरू हुई, जब 90 अंक पर आकर इस पत्रिका का सफ़र कुछ अरसे के लिए थम गया था। पाठकों और लेखको में बराबर की बेचैनी थी। ज्ञान जी से मेरे मुहब्बत के रिश्तों से बाख़बर दोस्तों का एक ही सवाल होता – ‘पहल’ बंद कैसे हो सकता है? आख़िर हुआ क्या है? यही वो अवसर था, जब मित्रों और अवसरवादियों की ख़ासी पहचान हुई। मित्रों को फ़िक्र थी कि ‘पहल’ फिर से किस तरह शुरू हो तो अवसरवादियों की फ़िक्र थी इस बात की कहानियां कैसे बनें। कहानियां बनीं। कुछ देर, कुछ दूर तक चलीं और मुंह के बल गिर पड़ीं।

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इस वक़्त मुझे सबसे ज़्यादा याद आ रही है मंगलेश डबराल की। उसे स्वर्गीय नहीं लिख पाता सो नहीं लिख रहा। मंगलेश बार-बार फोन करके कहता कि राजकुमार, अगर ‘ज्ञान भाई’ की सेहत की बात है या कोई आर्थिक संकट है, तो हम लोग मिलकर उनकी मदद क्यों नहीं कर सकते। तुम उन्हें समझाओ।

ज्ञानरंजन को समझाओ? कैसे? मैं ख़ुद नहीं जानता था कि यह किस तरह होगा, मगर यह ख़ुद-ब-ख़ुद ही हो गया। ज्ञान जी भोपाल आए। इस बार उनमें सामान्य चहचहाहट कम और संजीदगी ज़्यादा थी। मुझे लगने लगा कि उन पर ‘पहल’ का प्रकाशन बंद हो जाने का नकारात्मक असर हुआ है। जिस लम्हे उन्होने ज़रा फ़ारिग़ होकर आसन जमाया तो अहसास हुआ कि ‘पहल’ का प्रकाशन बंद नहीं हुआ। बस कुछ देर से थमा हुआ है।

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मैने ‘पहल’ को लेकर तमाम मित्रों की चिंताओं से उन्हें अवगत कराया। उनके जवाब से पता लगा कि वे इन तमाम बातें उन तक पहले से ही उन तक पहुंच चुकी हैं। कुछ देर की बातचीत से लगने लगा कि इस स्थिति से वे ख़ुद भी ख़ुश नहीं हैं लेकिन समस्याएं भी बहुत हैं। उनकी सेहत और आर्थिक आवश्यकताएं। फिर भी वे ‘पहल’ को जारी रखने के लिए तैयार थे। मुझसे उन्होने एक सवाल किया – तुम साथ आओगे?

यह 2010 की बात है। मैं ‘दैनिक भास्कर’ से संपादक के पद से रिटायर होकर बैठा था। उम्र भर की आपाधापी में छूट रहे लिखने-पढऩे वाले पचासों काम थे, जिनको पूरा करने का इरादा बांध रहा था। तभी ज्ञान जी का भोपाल आना हुआ।

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अगले ही दिन से नई-नई योजनाएं बनने लगीं। नए-नए फ़ैसले हुए। सबसे अहम फ़ैसला था – ‘पहल’ के लिए किसी सरकार से कोई विज्ञापन नहीं मांगेंगे। मुझे इस बात की ख़ुशी है कि इस फ़ैसले के बाद पूरे 35 अंक प्रकाशित हुए लेकिन कभी किसी सरकार या संस्थान से कोई इश्तिहार मांगा नहीं। हां, ‘पहल’ के प्रेमियों ने स्व-स्फ़ूर्त पहल करके अपना प्रेम ज़रूर प्रदर्शित किया और भरपूर मदद की।

कई किस्से हैं. एक बार एक रिटायर्ड सेना अधिकारी ने अपनी पत्नी की मृत्यु के बाद अपनी संपति से एक बड़ी राशि ‘पहल’ के लिए देने की इच्छा प्रकट की। उनकी चाहत थी कि किसी आर्थिक उलझन की वजह से पत्रिका बंद न हो जाए। ऐसे अवसरों पर ज्ञान जी की हालत देखकर मुझे एक भोपाली शब्द बहुत याद आता था – भैरा जाना। ज्ञान जी किसी मोटी रकम की आहट भर से बुरी तरह भैरा जाते थे। उसी हालत में मुझसे बात करके अपना निर्णय सुना देते – नहीं यार यह ग़लत बात है। किसी की उम्र भर की कमाई लेकर हम क्यों काम करें?

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एक योजना बनी कि ‘पहल’ के पुराने विशेषांक, जिनकी बार-बार और लगातार मांग बनी रहती है, उनको पुस्तक रूप में प्रकाशित कर दिया जाए। इस तरह समाज के लिए कुछ ज़रूरी चीज़ें महफ़ूज़ भी हो जाएंगी और उपलब्धता भी बनी रहेगी। इसकी ज़िम्मेदारी भी मुझ पर छोड़ दी।

इस सिलसिले में वाणी प्रकाशन के अरुण माहेश्वरी से बातचीत हुई। वह भोपाल आ गए. हम तीनो बैठे। अरुण इस प्रोजेक्ट को लेकर बहुत एक्साईटेड थे। उन्होने ‘पहल’ के एक अंक के प्रकाशन पर आने वाले ख़र्च को लेकर सवाल किया। ख़ासी रक़म थी। एक मिनट के मौन के बाद उनका प्रस्ताव आया कि ‘पहल सीरीज़’ की एक किताब छापने के एवज़ में वो ‘पहल’ के एक अंक पर ख़र्च होने वाली राशि का भुगतान करेंगे। इस तरह हम आर्थिक चिंताओं से मुक्त हो जाएंगे।

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प्रस्ताव काफ़ी लुभावना था। सहमति सी बन गई। लेकिन शांत चित होकर अकेले में विचार किया तो बात जमी नहीं। इसमे एक बहुत बड़ा नैतिक संकट था। इन सारे अंकों में प्रकाशित लेखकों में से कभी किसी को कोई मुवाअज़ा नहीं मिला। अब उनके श्रम को हम पत्रिका के प्रकाशन का साधन बना लें, यह उचित नहीं। बहुत सोच-विचार के बाद हमने प्रस्ताव दिया कि जितनी रकम वो ख़र्च करने का इरादा करते हैं, वह सारी रकम उस अंक के लेखकों में समान रूप से बांट दें। साथ ही बाद में अर्जित होने वाली रायल्टी भी सीधे उन्हीं को भेजी जाए।

इस बात पर सहमति हुई और काम शुरू हुआ। कारणों की तह में जाने की बात छोड़कर इतना भर बताऊंगा कि यह प्रोजेक्ट चार पुस्तकों के प्रकाशन तक सीमित होकर दम तोड़ गया। इन पुस्तकों में ‘नव जागरण और इतिहास चेतना’ और ‘मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र : एक चिंतन’ जैसी मह्त्वपूर्ण पुस्तकें सम्मिलित हैं।

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‘पहल’ की वापसी का भरपूर स्वागत हुआ। राजेंद्र यादव ने तो दैनिक ‘अमर उजाला’ में बाकायदा एक लेख लिखा – ‘इस पहल का स्वागत है।’ इस स्वागत में सैंकड़ों नाम शामिल होते चले गए। एक काबिले ज़िक्र बात यह भी कि इस स्वागत के साथ मदद के लिए भी कई सारे हाथ आगे बड़ते चले आए। इन सबकी प्रतिबद्धता किसी एक व्यक्ति या एक पत्रिका के प्रति नहीं बल्कि उस विचार के लिए थी जिस विचार के परिष्कार के लिए ‘पहल’ पहचानी जाती रही है।

तैयारी शुरू हुई नई योजना बनाने से। इस योजना में उर्दू-हिंदी के साथ ही साथ समस्त भारतीय भाषाओं को शामिल करना भी था। हमेशा की तरह नहीं बल्कि इस तरह कि वह भाषा का एक मुक़म्मल नक़्शा बन जाए। हर रंग अलग मगर हर रंग में शामिल। इसी कोशिश में सरहद की हद को भी लांघने का इरादा बना लिया। कराची में ‘आज’ जैसी प्रतिष्ठित उर्दू पत्रिका के संपादक, मित्र अजमल कमाल को ‘पहल’ में साथी संपादक की भूमिका के लिए आमंत्रित किया। इस प्रस्ताव को स्वीकार करने में अजमल को कुछ देर ज़रूर लगी लेकिन सहयोग हमेशा मिलता रहा। बाद को अजमल को सार्क यूनीवर्सिटी, दिल्ली में अध्ययन के लिए स्कालरशिप मिली तो उसने एक अर्से तक बाकायदा संपादकीय भागीदारी भी निभाई। और बहुत ख़ूब निभाई।

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इसी तरह विचार बना कि सामाजिक संवाद के लिए पत्रिका को अकेले अक्षर तक ही सीमित करना ज़रा अन्यायपूर्ण है। कार्टून जैसी प्रभावकारी विधा को समिलित करने की ग़रज़ से लेखक-कार्टूनिस्ट मित्र राजेंद्र धोड़पकर को आमंत्रित किया। राजेंद्र ने अपनी तमाम अख़बारी और दीगर ज़िम्मेदारियों के साथ ही साथ इस विचार का साथ देने का निर्णय लिया। और क्या ख़ूब साथ दिया। मित्रों की प्रशंसा का आधिक्य चाटुकारिता बन जाता है। सो इतना भर ज़रूर कहूंगा कि राजेंद्र धोड़पकर ने अपने योगदान से ‘पहल’ के ज़रिए जो काम किया उसे आप सबने देखा और सराहा है।

इन सफ़लताओं के साथ ही कुछ असफ़लताएं याद करना भी ज़रूरी है। योजनाएं तो बहुत बनीं लेकिन सब सिरे नहीं लगीं। मसलन इंटरव्यू की श्रंखला। व्यक्ति और समाज। व्यक्ति और रचना। गोया उसका आंतरिक और बाहरी संसार। इसके लिए ज़रूरी संसाधन को दोष देते हुए अपनी व्यक्तिगत कमज़ोरियों को भी शामिल करना आवश्यक है।

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इसी तरह ‘पहल’ सम्मान को फिर से प्रचलित करने का विचार। यह काम ज़रूरी तो लगता था लेकिन अर्थशास्त्र के सिद्धांत इस विचार के आड़े आते रहे और यह भी हो न सका। इन्हीं सिद्धांतों ने कई सारी योजनाओं को ध्वस्त किया।

मेरी अपनी एक निजी असफलता का उल्लेख भी आवश्यक है। ज्ञानरंजन के साथ काम तो बांट लिया लेकिन उनकी चिंताए नहीं बाँट पाया। इसकी वजह शायद यह रही कि मैं ‘पहल’ से अधिक ज्ञान जी से जुड़ा था, जबकि ज्ञानजी का सब कुछ ‘पहल’ से जुड़ा था।

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इस वक़्त न जाने क्यों मुझे पत्रिका ‘शेष’ के प्रकाशक-संपादक हसन जमाल को याद करने का बहुत मन हो रहा है। वे ज़माने से बहुत ख़फ़ा हैं। ख़फ़्तगी ज़ाहिर करने का उनका तरीका ज़माने को भी नहीं भाता था। मैं निजी तौर पर मानता हूं कि ज़माने ने उनकी कोशिशों की क़द्र न की। एक सुंदर विचार और निस्वार्थ भाव से हिंदी-उर्दू की खाई को पाटने की कोशिश में उन्होने ख़ुद को खाई में फंसा लिया और ‘शेष’ का प्रकाशन बंद हो गया। हसन जमाल ‘पहल’ के साथी रहे हैं और उनका उल्लेखनीय योगदान रहा है।

‘पहल’ ज्ञानरंजन की एक लम्बी कहानी है, जिसके पात्र अनेकानेक कवि, लेखक, विचारक हैं। इनमे से अधिकांश ने अपने-अपने कारनामो से अपनी एक अलग पहचान बनाई। इस पहचान के साथ-साथ पहल की पहचान भी जुड़ती और बड़ती रही है।

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हर कहानी का अंत होता है, लेकिन कहानी कभी ख़त्म नहीं होती। मनुष्य का पुनर्जन्म का सिद्धांत अब तक मात्र एक विचार है लेकिन कहानी के संदर्भ में यह एक स्थापित सत्य है। हर पुरानी कहानी नए संदर्भों में, नए देश-काल में, नए नाम और नए रंग-रूप में जन्म लेती रहती है। किसी कुम्हार के घड़े की तरह। मिट्टी वही लेकिन टूटकर बिखरकर भी बन जाती है कभी घड़ा, कभी कटोरा और कभी प्याला।

-राजकुमार केसवानी

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साभार- पहल


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