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‘पहल’ मैग्जीन के आखिरी अंक में संपादक ज्ञानरंजन ने किस तरह दी-ली विदाई, पढ़ें

कुछ अतिरिक्त पंक्तियाँ

ज्ञानरंजन-

‘पहल’ का अंक 125 हमारी और उसकी यात्रा का अब आख़िरी अंक होगा। अभी तक यह ख़बर अफ़वाहों में थी जो सच निकली। यह निर्णय हमारे और ‘पहल’ से जुड़े तमाम लोगों के लिए तकलीफ़देह है। हर चीज़ की एक आयु होती है, जबकि हम अपनी सांसों से अधिक जी चुके हैं। हमारे संपादकीय साथी मिल जुल कर इससे सहमत हैं। उन्हें मेरी सेहत को लेकर चिन्ता और शुभकामना है। पहल के मंच का एक बैक स्टेज भी है जो सामने आया नहीं और संभवत: कभी नहीं आयेगा। वह एक बहुत बड़ी दुनिया है जो आती जाती रही, बदलती रही, घूमती रही।

जब हमने पहल शुरू की हम संपादक नहीं थे। उसकी कलाओं और मशक्कतों से अवगत नहीं थे। आज भी हम पूरा पूरी संपादक नहीं हैं, एक समूह है जो मिल जुल कर गाड़ी चलाता रहा। संपादन की मुख्य धाराओं के अगल बगल से निकलते रहे पर पारंगत नहीं हो सके। बस एक पंक्ति हमारी जरूर थी उस पर जोश, जज़्बे और आवेग के साथ चलते रहे। हमारी शैली यही थी जिसमें ताज़ा और आज़ाद ख्याल बने रहे। एक ज़रूरी सुचारु व्यवस्था न होने के कारण हम अब थक भी रहे हैं। हमने कभी ‘पहल’ को एक संस्था या सत्ता की व्यवस्था नहीं दी। चीज़ें आती रहीं, हम निपटते रहे, अपने को भ्रष्ट होने से बचाते रहे।

हमें अपनी ही पंक्ति पर बार बार बदलते समय और उसमें आते जाते तूफानों और सच्ची प्रतिभाओं की पहचान करती थी सो हमें तटस्थता और कठोरता की शैलियों का पालन करना पड़ा। हज़ारों लोग पहल में छपने से वंचित रह गये। हम जितना कर सके वह खरा था। नये जमाने के शत्रुओं की पहचान भी ज़रूरी थी। प्रगति विरोधी, साम्प्रदायिक और तानाशाह शक्तियों और घरानों से हमारी मुठभेड़ चलती रही। हम पर्याप्त मरते जीते रहे। ‘पहल’ का टिकट बहुतों ने लिया पर कुछ बीच में उतर गये, कुछ आजीवन साथ निभा सके, इसके लिए कमिटमेन्ट अनिवार्य था जो हमारे रक्त और रगों में था। इसमें पाठक, लेखक, वित्तीय सहयोगी, अनाम शुभचिन्तक, पक्षधर, मोहब्बत करने वाले, बैक स्टेज, अण्डरवर्ल्ड के लोग शामिल हैं। इसका बयान एक लम्बी जीवनी बन सकता है जिसकी ज़रूरत नहीं है। और 47 वर्ष बाद अनेक लोग गुमनामी में रहना चाहते हैं या लापता हैं।

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हमारे पास फूटी कौड़ी नहीं थी और शुरूआत हो गई। आज भी हमारे पास फूटी कौड़ी नहीं है। मनोबल है। आश्चर्य की बात है कि ऐसे सैकड़ा में लोग हैं जो जब चाहे स्वयंस्फूर्त राशियाँ, छोटी बड़ी जब तब पहल के नाम करते रहे। कुछ तो ऐसे आजीवन है कि कतई व्यक्त नहीं होना चाहते। यही उनकी शर्त है। हम मानते हैं कि प्रायोजित सम्पदा से छोटी पत्रिकाओं का काम नहीं हो सकता। ईंधन चाहिए। जब ख़त्म होने लगे ईंधन जुटाया जाय और झोंक दिया जाय। फिर विचार की अग्नि और जीवन तथा साहित्य की बुनियादी लड़ाईयों का साथ न छोड़ा जाय। 50-60 साल के इतिहास में अनेक गर्वीली और शानदार साहित्यिक पत्रिकाएँ हिन्दी में निकलीं। कुछ अच्छी थीं पर उनके साथ संपादक की जीविका का सवाल था या संस्थान निर्भर थीं। बहरहाल, हमारा मार्ग यह था कि पत्रिका मात्र चंदे से नहीं असंख्य जुड़ावों से चले। पहल की आंतरिक रचना प्रक्रिया एक ऐसी कृतज्ञता में है जिसके हक़दार देश भर के अनगिनत साहित्य प्रेमी हैं। हमारे साथ चुपचाप सूंघने वाली, जलने वाली, दोहरा सलूक करने वाली हस्तियाँ भी छाया की तरह लगी रहीं, पर हमारे भीतर भी बिल्लियाँ और चीटियाँ चौबीस घंटे जीवन्त थीं।

हमने संपादकीय घोषणाएँ नहीं कीं और उसके अतिरेक से बचते रहे 50 साल में कोई फतवा हमारा नहीं है। हमने रचनाएँ आदर, प्यार, आग्रह से मांगीं और उन्हें प्रस्तुत किया। इस अंक में कृष्ण मोहन का एक उदाहरण है कि जिनसे बीस साल पहले कविताएँ मांगी थीं और बीस साल बाद उन्होंने स्मरण करते हुए कविताएँ भेजीं। भूखण्ड तप रहा है। संगतकार, कपड़े के जूते, रामसिंह, क्रागुएवात्स, कोठ का बांस, लेबर कॉलोनी के बच्चे, कविता की रंगशाला, ब्रूनो की बेटियाँ, सीलमपुर की लड़कियाँ, यह मृत्यु उपत्यका नहीं है मेरा देश, गांधी मझे भेंटला जैसी कविताएँ प्राप्त कीं और याद इसके साथ ही टूट जाती है। कुंवरनारायण, रघुवीर सहाय, केदारनाथ सिंह के युग के बाहर जो नई कविता थी, पौद-फुलवारी बन रही थी, उसे एक संसार की रोशनी देने की कोशिश की और एक नया पाठक-वर्ग बनता रहा।

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इससे अधिक कहना, अहंकार होगा। इसलिए बकवास और नहीं। एक मुहावरा याद आता है, जो सैनफ्रांसिस्को में एक नारे की तरह लगाया गया – शट अप एण्ड राइट। यह वाचिकों के लिए भी एक नसीहत है। कहना मात्र यह है कि पहल एक देह की तरह थी, जिसकी आयु भी है। यह आयु आ गई, इसको स्वीकार करते हैं। संपादन के लिए जहाँ सम्पादक पीर, बाबर्ची, भिश्ती, खर सब कुछ हो अच्छी सेहत ज़रूरी है। पर यह अंत श्मशान में नहीं, इतिहास में दर्ज हो सकेगा यह उम्मीद करते हैं। हम अमर नहीं थे और मर भी नहीं रहे हैं।

हमारा ढांचा शिथिल पड़ रहा है क्योंकि यह महामारी जाने से इन्कार नहीं कर रही है। इसने हमारे ताने बाने को उलट पलट दिया है। यह महामारी चंचल है, बार-बार अपने को बदलती है, इसने सत्ताओं को भीतरी तौर पर खुश और मन माफिक बनाया है। हमारे कई साथी जो प्रकाश स्तम्भ की तरह थे, इसकी चपेट में चले गये। कुछ को वर्तमान अंधी सत्ता ने मौन और निष्क्रिय कर दिया। हम मुखौटे उतारते रहे और अब प्रतिदिन नए मुखौटे तैयार हो रहे हैं। ऐसे वक़्त में हम आपसे विदा ले रहे हैं।

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यही समय है जब हम कुछ अच्छी ख़बरें भी बताएँ और उन लोगों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करें जिन्होंने विविध प्रकार से, विभिन्न समयों में स्वयं स्फूर्त पहल को जारी रखने में सहयोग दिया। यह कतई व्यवसायिक मार्ग नहीं बना।

‘पहल’ शुरू से ही चूंकि एक अनियतिकालीन क़िताब की शक्ल में निकलती रही, पत्रिका के फॉर्म में नहीं, इसलिए आपात काल की विपत्तियों में अपना बचाव केन्द्रीय गृह मंत्रालय और सूचना प्रसारण मंत्रालय की जटिल तहक़ीक़ातों से कर सके। बाद में रणनीतिक कारणों से पहल के मुद्रणालय और प्रकाशक बदल बदल जाते रहे। ये केवल छापाख़ाने ही नहीं थे ये हमारे साथी थे जहाँ लेन देन का तात्कालिक दबाव नहीं था। इलाहाबाद प्रेस के स्वामी रवीन्द्र कालिया पर तो यदा-कदा पुलिस की छापामारी और पूछताछ भी होती रही। बहरहाल, जबलपुर के सामाजिक कार्यकर्त्ता दुर्गाशंकर शुक्ल के पंकज प्रिंटर्स और द्वारिका तिवारी के महाकोशल ऑफ़सेट, इलाहाबाद में परिमल प्रकाशन के शिवकुमार सहाय, इम्पैक्ट के राधारमण (पियरलेस प्रिंटर्स), रवीन्द्र कालिया के इलाहाबाद प्रेस, नीलाभ के नीलाभ प्रकाशन के सहयोग से ‘पहल’ निकली। आपातकाल में जबलपुर के चित्रा प्रिंटर्स के यहाँ रातों को ट्रेडिल पर अत्यंत गोपनीय तरह से हमारे प्रतिरोधी पर्चे भी छपते रहे। ‘पहल’ के अनेक अंक देश के सुप्रसिद्ध तबला वादक आह्लाद पंडित ने अपना काम छोड़ कर नागपुर के एक मराठी प्रेस से प्रकाशित कराए।

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आपात काल में ही सतना के सिंधु प्रेस में पहल का एक अंक छापा गया। एक ऐसा दौर था जब ‘पहल’ पंचकूला के देश निर्मोही ने आधार प्रकाशन से प्रकाशित किया। पहल के कुछ अंक छापा कला के उस्ताद मोहन गुप्त के सारांश प्रकाशन, दिल्ली में भी छपे। यह सब अबाध चलता रहा, हाँ मशक्कत बहुत थी। और अंतिम दौर का लम्बा समय यादगार है जब पहल के प्रकाशन, वितरण और तमाम दैनिक झंझटों को उठाने वाले गौरीनाथ ने अंतिका प्रकाशन से पहल को संभव बनाया। इसमें अशोक भौमिक और जितेन्द्र भाटिया की असाधारण भूमिका थी। पता ही नहीं चला कि एक बड़ा चित्रकार और एक बड़ा लेखक पहल की गाड़ी खींच रहा है। अब शिवकुमार सहाय, आह्लाद पंडित, राधारमण, नीलाभ, रवीन्द्र कालिया जीवित नहीं हैं कि इन पंक्तियों को पढ़ सकें। मात्र इसका ज़िक्र नाकाफ़ी है। ये लोग अपनी घनघोर मुसीबतों और तकलीफ़ों के मध्य पहल का काम प्राथमिकता से करते रहे। जब लगता था आगे रास्ता बंद हो जायेगा, इन्होंने रास्ते खोले।

बैक स्टेज और परदे के पीछे गहरे संकोच के साथ कुछ और लोग भी खड़े हैं जो कभी सामने आना नहीं चाहते थे। ‘पहल’ की नींव का पत्थर उन्होंने लगाया है। पहल की दूसरी पारी में जब उसके पुनर्गठन की शुरूआत हुई तो मैंने अपने पुराने दोस्त राजकुमार केसवानी को आमंत्रित किया और वे मेरा आग्रह मान गये। वे नैतिक रूप से कठिन, बेहद मानवीय और एक छुपे हुए लेखक हैं। उर्दू रजिस्टर की कल्पना, योजना उन्हीं की थी जिससे पहल की एक बड़ी कमी पूरी हुई। राजकुमार का कलश भरा हुआ है और वह दुर्लभ है। इसको रचनावली में परिवर्तित करने के लिए स्वयं उन्हें कई जीवन लगेंगे। लेकिन उन्होंने पहल को गहरी प्राथमिकता के साथ अपना सर्वोत्तम दिया। जब कि वे एक पुरस्कृत पत्रकार हैं और उनका जीवन परिचय विरल है। राजसत्ता में गहरी पैठ के बावजूद उनकी स्वतंत्रता जानी मानी है और अभी भी वे पूरी तरह श्रमजीवी हैं। जब उन्हें पता चला कि हम ‘पहल’ में सरकारी विज्ञापन नहीं लेंगे तो वे उत्साह और खुशी के साथ हमारे अभिन्न हुए। पहल से जुडऩे के बाद उनकी जहान-ए-रूमी, दास्तान-ए-मुग़ले-आज़म और कशकोल जैसी कृतियाँ आईं। और काम अभी जारी है। उन्होंने हमें विपथगामी होने से बार-बार बचाया। नई पारी में वरिष्ठ कथाकार राजेन्द्र दानी और युवा रचनाकार पंकज स्वामी भी पहल की संपादक मंडली में शामिल हुए। वास्तव में पहल का प्रमुख काम यह लोग करते थे, मैं श्रेय लेता रहा। इन दोनों कथाकारों का रचनात्मक सफ़र जारी है। पंकज स्वामी का पहला संग्रह इस अंतिम अंक के साथ आ रहा है। उनका पदार्पण हिन्दी कथा मंच पर हो रहा है। पहल के मुखपृष्ठों की हिन्दी जगत में एक अलग पहचान है। मुखपृष्ठ कभी दोहराये नहीं गये। यह काम प्रयोगशील अवधेश वाजपेयी ने किया जिनकी चित्रकला की अब भारतभूमि में बड़ी पहचान बन रही है। मुखपृष्ठों को अंतिम रूप देने में संजय आनंद भुलाये नहीं जा सकेंगे, जबकि उनकी घनघोर व्यस्तताएँ रही हैं। और हमारे चुपचाप जुटे हुए श्रमिक मनोहर बिल्लौरे हैं जो सुबह शाम ‘पहल’ के काम के लिए उपस्थित रहे। उन्होंने पहल का पूरा इतिहास और पहल संपादक की सारी बिखरी चीज़ें संभाल के रखी हैं। ‘पहल’ की वेबसाइट को निरंतरता से संचालन करने वाले कुलभूषण का शुक्रिया जो सुदूर दक्षिण में रहते हुए यह काम अथक करते रहे। सहभागिता का एक उदाहरण यह भी है कि ‘पहल’ का अक्षर संयोजन करने वाले पीयूष जोधानी अब तक उसके 50 अंकों को तैयार कर चुके है।

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अंत में, पहल के झोंकों को सुगंध से भरने वाले दिवंगतों और जीवितों को हमारा सलाम और शुक्रिया।

सर्वश्री राहुल बारपुते, मायाराम सुरजन, कमलेश्वर, श्याम कश्यप, वीरेन्द्र कुमार बरनवाल, सुदीप बैनर्जी, एल.के. जोशी, रमाकांत, कामरेड रतिनाथ मिश्र, विनोद कुमार श्रीवास्तव, अनूपकुमार, बुद्धिनाथ मिश्र, प्रकाश दुबे, सुधीर अग्रवाल, परितोष चक्रवर्ती, एन.के. सिंह, कमलेश अवस्थी, चमनलाल, रमेश मुक्तिबोध, संजीव कुमार, ईशमधु तलवार, यशवंत व्यास, निरुपमा दत्त, शंकर, शैलेन्द्र शैल, सुशील शुक्ल, गुलाम मोहम्मद शेख, प्रदीप सक्सेना, दिवाकर झा, सत्येन्द्र सिंह ठाकुर आप सब बहुत याद आते हैं।

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-ज्ञानरंजन

साभार- पहल

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