ओम प्रकाश सिंह
मीडिया जिस मुकाम पर है, उसमें अब धमचक भी है, और आंतरिक विस्फोट भी जल्द होने वाले हैं। एक बड़े आंदोलन की जरूरत उठ खड़ी हुई है। जनसत्ता में पत्रकार रहे और अब एक बड़े लेखक श्री दयानंद पांडेय कहते हैं – मीडिया को कारपोरेट स्वार्थों, और भांड़ों और भड़ैतों ने घेर लिया है। जी हां, केवल भांड़ों और भड़ैतों ने ही नहीं, मिरासियों और बाई जी लोगों ने भी। जैसे नृत्य, संगीत आदि एक निश्चित किस्म के लोगों से घिर गये थे, वैसी ही हालत मीडिया की भी हो रही है।
राजस्थान पत्रिका के संपादक श्री गुलाब कोठारी ने दो साल पहले राजस्थान पत्रिका में प्रथम पृष्ठ पर एक संपादकीय लिखा – भ्रष्ट भी धृष्ट भी। उन्होंने कहा कि सरकारी सुविधाओं को लूटकर कुछ पत्रकार मनमानेपन और आवारागर्दी पर उतारू हैं; और सरकारें भी ऐसे ही पालतू साड़ों को पाल रही हैं। राजस्थान पत्रिका के खिलाफ कुछ पहलवानों ने धरने-प्रदर्शन भी किये। पर अब प्रेस काउंसिल के चेयरमैन जस्टिस मार्कंडेय काटजू ने भी चेतावनी जारी की है कि किस तरह उत्पाद बेचे जा रहे हैं, और पब्लिक को बरगलाया जा रहा है, उस पर हमारी खूब नजर है। फिल्म छाप रहे हैं, खेल छाप रहे हैं, और गैर-मुद्दों को मुद्दा बना रहे हैं, जाति और संप्रदाय की नफरत फैला रहे हैं, लूट और ब्लैकमेल कर रहे हैं। अवाम सचेत न हो, वह अपने हित-अनहित न सोचने लगे, इसलिए लोगों को भरमाया जा रहा है। हम बोलेंगे बच्चू लोगों, सब देख रहे हैं।
और, श्री बी.जी. वर्गीज के स्मरण से पत्रकारिता के तकाजे पर बात लेख पर भी खूब प्रतिक्रियाएं आ रही हैं। मुंबई से युवा पत्रकार श्री फहीम अब्बाद फराही ने लिखा है – आज पत्रकारिता को ऐसी जिंदगी चाहिए, जो पूंजीपति वर्ग के हस्तक्षेप से मुक्त हो। इसके बगैर पत्रकारिता लगभग एक तरह की गुलामी है।
और, मुंबई के एक और बहुत सुधी युवा पत्रकार मेरे इन बॉक्स में लिखते हैं – रास्ता क्या है? जो अच्छा लिखने-पढ़ने वाले हैं, वे मीडिया में दरकिनार हैं। इसके बदले मालिकान उन्हें प्रोमोट करते हैं, जो विज्ञापन या जिस किसी और तरीके से संभव हो, पैसे लाकर कंपनी के खाते में जमा कराते हैं। मालिकों के बिजनेस इंटरेस्ट को प्रोमोट करते हैं। आप सोच सकते हैं कि आम पत्रकार किस परिस्थिति और किस मानसिकता में जी रहा है। इन भांड़ और भड़ैतों से छुट्टी कैसे मिले? इन युवा पत्रकार का नाम मैं जान-बूझकर नहीं दे रहा हूं,ताकि ये किसी घेरेबंदी में न फंसें। लेकिन शुद्ध कीचड़ के भीतर से उन्होंने ऐसी आवाज उठायी है, इसके लिए समूचे अंतर्मन से उनकी अभ्यर्थना कर रहा हूं।
निर्भय पथिक के संपादक श्री अश्विनी मिश्र ने कहा है – बाजार और बाजारीकरण हाबी हो गया है। इसलिए बाजारू पत्रकार भी हाबी हो गये हैं। यह देखने की कोई व्यवस्था ही नहीं है कि जो अखबार निकाल रहा है, वह किस इरादे से निकाल रहा है। पैसा कमाना है इसलिए हर हथकंडे इस्तेमाल किये जा रहे हैं। कई आम पत्रकार भी इसी में अपना कैरियर तलाश रहे हैं। और ज्यादातर लोगों के पास ऐसे लोगों की गुलामी करने के सिवा चारा ही क्या है? सबको घर-परिवार चलाना है। जीना है।
और दक्षिण मुंबई के संपादक श्री सुमंत मिश्र कहते हैं -पत्रकारों में आपसी संवाद नहीं है, एकता नहीं है, इसलिए मीडिया दुर्दशा की शिकार है।
जनसत्ता की टीम तो ऐसे किसी आंदोलन से जुड़ती ही है। श्री अंबरीश कुमार इस आलेख को अपनी वेबसाइट जनादेश डॉट कॉम पर डाल रहे हैं। इंदौर से रुपेंद्र सिंह और भोपाल से राजेंद्र सिंह जादौन भी ऐसा ही कर रहे हैं। बहुत सुधी पत्रकार सुधीर सक्सेना ने अपनी पत्रिका इन दिनों में छापने के लिए मांगा है। और फहीम अब्बाद फराही ने तो अपने सेकुलर संदेश के लिए इसे पहले ही चुन लिया है। जनसत्ता के बहुत सुधी पत्रकार संजय कुमार सिंह ने लिखा है –
मीडिया में श्री वर्गीज के निधन को महत्व ना मिलने का एक कारण आपने यह भी बताया है कि डेस्क पर बैठे (कनिष्ठ, नवसिखुए) पत्रकारों को शायद श्री वर्गीज के बारे में जानकारी ना हो – इससे सहमत या असहमत हुआ जा सकता है पर कनिष्ठों के माथे ठीकरा फोड़ने भर से काम नहीं चलेगा। मुझे याद है प्रभाष जोशी ऐसे मौकों पर दफ्तर में (अपने कमरे में नहीं, डेस्क पर हम लोगों के बीच होते) थे और उनका दुख, उनकी चिंता साफ झलक रही होती थी। वो लोगों से चर्चा करते थे और खुद जरूर कुछ ना कुछ लिखते थे। आज के संपादकों में कितने लोग जॉर्ज वर्गीज के बारे में लिख सकते हैं, लिखने को कुछ होता तो लिखे ही होते। बाकी विज्ञापन बटोरने और दारू पीने से फुरसत मिले तो सेटिंग गेटिंग के बाद समय कहां मिलता है। जूनियर को सिखाना होता है जो लगभग बंद सा है। इसका असर धीरे-धीरे दीखने लगा है। जो नुकसान वर्षों में हुआ है उसकी भरपाई मुझे नहीं लगता कि सिर्फ चिंता करने से दूर होगी।
और श्री दयानंद पांडेय के दो कहे को और देख लीजिए – ”चौथा खंभा तो बस एक कल्पना भर है। और सच्चाई यह है कि प्रेस हमारे यहां चौथा खंभा के नाम पर पहले भी पूंजीपतियों का खंभा था और आज भी पूंजीपतियों का ही खंभा है। हां, पहले कम से कम यह जरूर था कि जैसे आज प्रेस के नाम पर अखबार या चैनल दुकान बन गए हैं, कारपोरेट हाऊस या उसके प्रवक्ता बन गए हैं, यह पहले के दिनों में नहीं था। पहले भी अखबार पूंजीपति ही निकालते थे पर कुछ सरोकार, कुछ नैतिकता आदि के पाठ हाथी के दांत के तौर पर ही सही थे। पहले भी पूंजीपति अखबार को अपने व्यावसायिक हित साधने के लिए ही निकालते थे, धर्मखाते में नहीं। पर आज? आज तो हालत यह है कि एक से एक लुच्चे, गिरहकट, माफिया आदि भी अखबार निकाल रहे हैं, चैनल चला रहे हैं और एक से एक मेधावी पत्रकार वहां कहांरों की तरह पानी भर रहे हैं या उन के लायजनिंग की डोली उठा रहे हैं। और सेबी से लगायत, चुनाव आयोग और प्रेस कौंसिल तक पेड न्यूज की बरसात पर नख-दंत-विहीन चिंता की झड़ी लगा चुके हैं। पर हालात मर्ज बढ़ता गया ज्यों-ज्यों दवा की सरीखी हो गई है। नौबत यह आ गई है कि अखबार या चैनल अब काला धन को सफेद करने के सब से बड़े औज़ार के रूप में हमारे समाज में उपस्थित हुए हैं। और इन काले धन के सौदागरों के सामने पत्रकार कहे जाने वाले पालतू बन गए हैं। पालतू बन कर कुत्तों की वफादारी को भी मात दिए हुए हैं यह पत्रकार कहे जाने वाले लोग। संपादक नाम की संस्था समाप्त हो चुकी है। सब से बुरी स्थिति तो पत्रकारिता पढ़ रहे विद्यार्थियों की है। पाठ्यक्रम में उन्हें गांधी, गणेश शंकर विद्यार्थी, पराडकर, रघुवीर सहाय, कमलेश्वर, मनोहर श्याम जोशी, प्रभाष जोशी, राजेंद्र माथुर आदि सरीखों की बात पढ़ाई जाती है और जब वे पत्रकारिता करने आते हैं तो गांधी, गणेश शंकर विद्यार्थी या पराडकर, जोशी या माथुर जैसों की जगह रजत शर्मा, बरखा दत्त, प्रभु चावला आदि जैसों से मुलाकात होती है और उनके जैसे बनने की तमन्ना दिल में जागने लगती है। अंतत: ज़्यादातर फ्रस्ट्रेशन के शिकार होते हैं। बिलकुल फिल्मों की तरह। कि बनने जाते हैं हीरो और एक्स्ट्रा बन कर रह जाते हैं। सो इन में भी ज्यादातर पत्रकारिता छोड़ कर किसी और रोजगार में जाने को विवश हो जाते हैं। ”
श्री दयानंद पांडेय का ही दूसरा कहा देखिए –
”अब तो हालत यहां तक आ गई है कि अखबार मालिक और उस का सो काल्ड प्रबंधन संपादकों और संवाददाताओं से खबर नहीं बिजनेस डिसकस करते हैं। सब को बिजनेस टारगेट देते हैं। मतलब विज्ञापन का टारगेट। अजीब गोरखधंधा है। विज्ञापन के नाम पर सरकारी खजाना लूट लेने की जैसे होड़ मची हुई है अखबारों और चैनलों के बीच। अखबार अब चुनावों में ही नहीं बाकी दिनों में भी खबरों का रेट कार्ड छाप कर पैसा वसूल रहे हैं। बदनाम बेचारे छोटे-मोटे संवाददाता हो रहे हैं। चैनलों तक में यही हाल है। ब्यूरो नीलाम हो रहे हैं। वेतन तो नहीं ही मिलता सेक्यूरिटी मनी लाखों में जमा होती है। तब परिचय पत्र जारी होता है। मौखिक संदेश होता है कि खुद भी खाओ और हमें भी खिलाओ। और खा पी कर मूस की तरह मुटा कर ये अखबार या चैनल कब फरार हो जाएं कोई नहीं जानता। तो पत्रकारिता ऐसे हो रही है। संवाद सूत्रों की हालत और पतली है। दलितों और बंधुआ मजदूरों से भी ज्यादा शोषण इन का इतनी तरह से होता है कि बयान करना मुश्किल है। ये सिक्योरिटी मनी भी जमा करने की हैसियत में नहीं होते तो इन्हें परिचय-पत्र भी नहीं मिलता। कोई विवादास्पद स्थिति आ जाती है तो संबंधित संस्थान पल्ला झाड़ लेता है और बता देता है कि उस से उस का कोई मतलब नहीं है। और वह फर्जी पत्रकार घोषित हो जाता है। अगर हाथ पांव मजबूत नहीं हैं तो हवालात और जेल भी हो जाती है। इन दिनों ऐसी खबरों की भरमार है समूचे देश में। राजेश विद्रोही का एक शेर है कि, ‘बहुत महीन है अखबार का मुलाजिम भी/ खुद खबर है पर दूसरों की लिखता है।’ दरअसल पत्रकारिता के प्रोडक्ट में तब्दील होते जाने की यह यातना है। यह सब जो जल्दी नहीं रोका गया तो जानिए कि पानी नहीं मिलेगा। इस पतन को पाताल का पता भी नहीं मिलेगा।”
— तो समाधान क्या है? रास्ता क्या है? उपाय क्या है? परिदृश्य तो ये है। आम जन के मुद्दे भी मीडिया से गायब हैं। उसके बदले अवाम को अफीम परसी जा रही है, या बेईमानी दिखाई जा रही है। जन विश्वास का भ्रष्ट से भ्रष्ट दुरुपयोग किया जा रहा है।
पहले एक उल्हासनगर फिनामिनन था – हर कोई, एैरा-गैरा सरकारी तंत्र से अपना काम करवाने के लिए चार पन्ने का एक साप्ताहिक,पाक्षिक या मासिक पत्रिका निकाल लेता था। सरकारी अधिकारियों तक दांत निपोरने तक की पहुंच भी बनती थी, और अधिकारी भी संबंधित व्यक्ति की किसी नंगई-लुच्चई से डरते थे। लेकिन अब वह माजरा बड़े पैमाने पर है। जानिए – एक बड़े अखबार समूह को, जिसके पास चैनल भी है, कॉमनवेल्थ गेम्स में पब्लिसिटी का ठेका चाहिए था। सुरेश कलमाड़ी ने ना-नुकर की और पैसा चाहा। नतीजे में उस समूह ने कलमाड़ी के खिलाफ अभियान छेड़ा। उन्हें जेल तक पहुंचाया। और सत्ता प्रतिष्ठान में बैठे हरेक को बताया कि बात न मानने पर यह होगा। यह समूह देश के सबसे बड़े पत्रकारिता समूहों में से एक है। उसी तरह आदर्श घोटाला उजागर करने की भी बोली लगी थी। श्री अशोक चव्हाण को मुख्यमंत्री पद से हटवाना था। वह सुपारी भी इसी अखबार समूह ने ली। – यह माजरा ऊपर का – और नीचे – चार पन्ने का एक अखबार खबर छापकर खड़ा होता है कि आपने अपनी झोपड़ी दो फुट ऊपर उठा ली है। इसकी शिकायत कर रहा हूं। अब इस चार पन्ने के अखबार मालिक से समझौते पर बैठिए। – नीचे से ऊपर तक मीडिया के नाम पर आम तौर पर इन दिनों यही चलन खड़ा हो गया है। – याद है नीरा राडिया टेप- बरखा दत्त केंद्रीय काबीना में मंत्री बनवा रही थीं, विभागों का बंटवारा करा रही थीं। – और इन लोगों में ऐसी मुकम्मिल गठजोड़ है कि किसी भी बड़े अखबार या चैनल ने टेप्स को नहीं छापे या दिखाये-सुनाये। सुधीर चौधरी का प्रकरण सभी को याद है। वे सीईओ के सीईओ बने हुए हैं। कई चैनलों से कामकाज करने वाली लड़कियों के शोषण की भी खबरें आती रहती हैं, जो दबी की दबी रहती हैं। मीडिया में कहीं भी किसी की भी नौकरी का तो कोई भरोसा ही नहीं। हकीकत यह है कि मालिक जब चाहे निकाल दे। ऐसे-ऐसे कांट्रैक्ट बनाये जाते हैं, जो सिरे से ही अपराध साबित हों। लेकिन पत्रकार नौकरी की चाहत में उन पर दस्तखत करने को मजबूर होते हैं। मीडिया का ताम-झाम एक ओर तो उत्पाद बनकर रह गया है। और उन्हें चलाने वाले, मालिक, संपादक सभी सेल्समैन। दूसरी ओर, उसे बनाना, चलाना निहित स्वार्थों के भी हवाले हो गया है। चौथा खंभा एक बड़ा धोखा बनकर रह गया है। आम और ईमानदार पत्रकार इसमें बुरी तरह पिस रहा है।
1995-96 में पत्रकारिता को पुनर्जीवित करने का अभियान के दौरान अनेक सुधी लोगों ने इस सवाल पर बार-बार विचार किया था। और श्री रामबहादुर राय का एक प्रस्ताव प्रशंसित भी हुआ था – कि पत्रकार मिलकर एक विश्वसनीय मीडिया खड़ा करें। काम सरल और सहज है; 1997 में मैंने स्वयं मुंबई में इसका एक प्रयोग भी किया। पर खर्च की वजह से असफल रहा। अब जब सोशल और डिजीटल मीडिया भी सामने हैं, तो ऐसे प्रयोग कम खर्च पर किये जा सकते हैं; और बहुत आसानी से सफल होंगे। भड़ास डॉट कॉम जैसे उदाहरण दिए जा सकते हैं; लेकिन यह बात बड़ी- उससे भी सरल उपाय हैं –
1. असल पत्रकार अपने अखबारों, चैनलों में वास्तविक खबरों को तरजीह दें। उन्हें मेहनत भी करनी होगी। और कई बार जिल्लत भी उठानी पड़ेगी। लेकिन कुछ अंशों में वास्तविक पत्रकारिता की कमी दूर होगी।
2. यक्ष ने युधिष्ठिर से एक प्रश्न जरूर पूछा होगा। यह कि ब्राह्मण मरा क्यों?
युधिष्ठिर ने जवाब दिया होगा – इसलिए कि उसे गंदगी से घेर दिया गया था। और वह उसे हटा न पाया।
तो, चाहे कैसी भी गंदगी से घिरे हों हम, उसे हटाना होगा। हो सकता है कि प्रतिष्ठानों के भीतर हम ठठाकर न हंस पायें। लेकिन प्रतिष्ठानों के बाहर तो हम स्वतंत्र हैं। जब भी कोई बुरा पत्रकार सामने हो, आप उसे इग्नोर तो कर सकते हैं। दरअसल इन सबकी महत्ता इसलिए कायम हो गयी है कि अच्छे लोगों ने उनके सामने सिर झुका लिया है। अच्छे लोग केवल माथा उठा लें – और पूरे ईमान से बुरे को बुरा कहें तो गंदगी दूर हो जाएगी। याद रखें, चोर और गुनहगार के पास पैसे हो सकते हैं, साधन हो सकते हैं, कलेजा नहीं होता।
3. माथे उठे हुए लोग माथे उठे हुए लोगों को जोड़ें। दुर्भाग्य है कि बुरे लोगों के गिरोह बन गये हैं। और अच्छे लोग अपने-अपने भीतर कैद हैं। यह इकट्ठा होना जरूरी है।
4. जो अच्छे रहे हैं, और चुप हैं; उन्हें बोलने के लिए कोंचें। बातचीत करें। गोष्ठियां करें, सबको बुलायें। अच्छाई को बचाने के लिए अच्छाई को चर्चा में बनाये रखना भी जरूरी है। साल में एक संवाद कर लें, बहुत लोग न जुटें, केवल न्यौता ही बांट दें – तो भी बहुत सारी बुराई कमजोर हो जायेगी। समाज ही खुलकर अच्छा-बुरा कहने लगेगा।
5. सत्ता प्रतिष्ठान में भी कुछ ही लोग होते हैं,जो बुरे लोगों को प्रोमोट करते हैं। इन लोगांे से भी चंद अच्छे लोग कभी-कभी संवाद कर लें कि आप जो कर रहे हैं, उस पर हमारी भी निगाह है। अधिकांश लोग बुरा इसलिए कर पा रहे हैं, क्योंकि अच्छे लोग चुप हैं।
अच्छे पत्रकारों की सभा बनाइए। अच्छी पत्रकारिता को फिजां में फैलाइए। जो सक्रिय पत्रकारिता में न हों, किन्ही दबावों में न हों, वे तो यह काम आसानी से कर सकते हैं।
उपाय और भी हैं –
1. पूरी जानकारी हो तो प्रेस काउंसिल को सूचना दीजिए। खुद न कर सकें तो किसी माध्यम को तलाशें।
2. पुलिस को भी सूचना दी जा सकती है।
3. चुनाव आयोग को सूचना दी जा सकती है।
4. मुख्यमंत्री, सूचना प्रसारण मंत्री से लेकर प्रधानमंत्री तक बोलना शुरू तो कीजिए – बोलें तो- परिणाम आयेंगे ही।
5. सरकारों से कहें कि पत्रकारों और अखबार मालिकों को मिलनेवाली सुविधाएं बंद की जायें। अब उनकी भूमिका दूसरी है तो सरकार उन पर पब्लिक फंड क्यों लुटाये?
6. इन सब बोलने का नतीजा यह होगा कि लोग भी आपके साथ चलेंगे।
जान लीजिए, अब मामला पेड न्यूज भर का नहीं रहा है। कई अखबार तो खबरें भी उन्हीं की छापते हैं, जो पैसा देते हैं। यानी अखबार ही पेड अखबार हो गये हैं। इसलिए प्रिय पाठकों बोलना तो होगा – इंतजार कीजिए, बोलना शुरू हो।
संकेत शुभ हैं। श्री एन.के. सिंह भी मामले पर विचार कर रहे हैं। शलभ भदौरिया जी का भी संदेश आया है। जनसत्ता के तमाम साथियों को मैं खुद संदेश भेज रहा हूं। नहीं होगा तो पत्रकारिता को पुनर्जीवित करने का अभियान का एक शुरुआती सम्मेलन मुंबई में ही हो जायेगा। जाति, संप्रदाय, भ्रष्टता और अफीमवाली बाजारू पत्रकारिता के खिलाफ बात तो करनी होगी।
जनसत्ता के संजय कुमार सिंह कहते हैं : ”मालिक की तो छोड़िए, एक समय टाइम्स ऑफ इंडिया के संपादक गिरिलाल जैन कहा करते थे कि प्रधानमंत्री के बाद उनका पद सबसे महत्वपूर्ण है। और प्रधानमंत्री का चुनाव तो देश की सवा सौ करोड़ जनता करती है (चलिए मान लेते हैं जो वोटर हैं वहीं) पर टाइम्स ऑफ इंडिया का संपादक तो लाला चाहे किसी को भी बना सकता है। और यही करते हुए टाइम्स ऑफ इंडिया के संपादक का ये हाल हुआ कि कौन है – किसी को पता नहीं होता। मालिकानों की ताकत भी इसी हिसाब से कम हुई है। कोई माने या ना माने लालाजी को जरूर अहसास होगा भले तिजोरी भर रही है इसलिए मगन हों।”
लेखक ओम प्रकाश सिंह एब्सल्यूट इंडिया अखबार, मुंबई के संपादक हैं. उनसे संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है.
dhananjai singh
January 8, 2015 at 7:57 am
kabhi majithia k baare mei bhi isi gambhirta k sath kalam chalaiye Omeprakash ji!
Dhanyvad
purushottam asnora
January 8, 2015 at 3:28 pm
उत्तराखण्ड में एक कहावत है- तुस्यरकि कड्कड् घामें आंण तक (पाला तब तक ही कठोर रहता है जब तक धूप नहीं निकलती), अर्थात झूठ के पांव सच्चाई के सामने आने तक ही दिखते हैं। ओमप्रकाश जी! आपने ठीक कहा है अच्छे लोग जब तक चुप रहेंगे खराब लोगों का बर्चस्व रहेगा। अच्छे लोगों के आगे आते ही भ्रष्टों, बेईमानों का सिर अपने आप नीचा हो जायेगा।
मीडिया की आज जो स्थिति है वह गले तक दलदल में डूबने जैसी है। मालिक को पैसा चाहिए, संपादक को पद और नौकरी, उससे नीचे बेचारे रोजी रोटी के लिए जुटे हुए हैं। जोत लो, डंडा या चाबुक मारो, खाल उतार लो, काम करो, जैसा कहें वैसा करो। हां कुछ चमचे बन जाते हैं उनकी मौज है, संपादक को उल्टी सीधी पढा लो और सुपर बन जाओ। मालिक का इशारा हुआ और संपादक चैकन्ना हो गया। उसे नही पता कि मीडिया के अर्थ क्या हैं और लोकतंत्र में वह चैथा खम्बा किस लिए है? संपादक की कुर्सी भी उसे नमक हलाली के लिए मिली है कोई पत्रकारिता का प्रकाण्ड पंडित होने की एवज नहीं।
उत्तराखण्ड में आयी आपदा में भी मीडिया को विज्ञापन चाहिए थे, सरकार की कमी छुपाने की एवज जम कर लूटा लाख नही करोडों के विज्ञापन एक-एक समूह ने लिए। ये कैसा मीडिया है जो लोगों की जान, घर-परिवार की तबाही, बिलखते निराश्रित हा गयेे बच्चे- महिलाओं-वृद्धों, सडक-बिजली-पानी-दूरसंचार-चिकित्सा-शिक्षा के बजाय विज्ञापन की लूट में शामिल हो थू के काबिल ही तो है।
इस नर्क में पत्रकारिता को ले जाने के लिए हम सभी जिम्मेदार हैं जो स्वयं को पत्रकार कहते हैं। सचमुच हमने उनके मुंह पर थूका नहीं, उन्हें थप्पड भी नहीं मारा और एक प्रकार से उनकी गुलामी स्वीकार कर ली। सिर ऊंचा करके चलने के लिए पेट में रोटी भी चाहिए जिसे हमारे भ्रष्ट प्रभु ने देना है। हमने ये नियति मान ली है। जबकि ऐसा नहीं है। बच्चा बाद में पैदा होता है, प्रकृति उसके पालन का इंतजाम मां की छाती में दूध बना पहले कर लेती है। एक कहावत है जिसने सिर दिया है वह सेर भी देगा। मनुष्य निहायत इमानदार पैदाईश है यदि हम फरेबी बन जाये ंतो किसका क्या दोष।
हम पुनः आपकी बात पर आयें यदि उठा सिर बढेगा तो नीच कर्म पर लगाम लगेगी। मीडिया जो गर्त में है उसे बचाना ही होगा।
purushottam asnora
January 8, 2015 at 3:53 pm
उत्तराखण्ड में एक कहावत है- तुस्यरकि कड्कड् घामें आंण तक (पाला तब तक ही कठोर रहता है जब तक धूप नहीं निकलती), अर्थात झूठ के पांव सच्चाई के सामने आने तक ही दिखते हैं। ओमप्रकाश जी! आपने ठीक कहा है अच्छे लोग जब तक चुप रहेंगे खराब लोगों का बर्चस्व रहेगा। अच्छे लोगों के आगे आते ही भ्रष्टों, बेईमानों का सिर अपने आप नीचा हो जायेगा।
मीडिया की आज जो स्थिति है वह गले तक दलदल में डूबने जैसी है। मालिक को पैसा चाहिए, संपादक को पद और नौकरी, उससे नीचे बेचारे रोजी रोटी के लिए जुटे हुए हैं। जोत लो, डंडा या चाबुक मारो, खाल उतार लो, काम करो, जैसा कहें वैसा करो। हां कुछ चमचे बन जाते हैं उनकी मौज है, संपादक को उल्टी सीधी पढा लो और सुपर बन जाओ। मालिक का इशारा हुआ और संपादक चैकन्ना हो गया। उसे नही पता कि मीडिया के अर्थ क्या हैं और लोकतंत्र में वह चैथा खम्बा किस लिए है? संपादक की कुर्सी भी उसे नमक हलाली के लिए मिली है कोई पत्रकारिता का प्रकाण्ड पंडित होने की एवज नहीं।
उत्तराखण्ड में आयी आपदा में भी मीडिया को विज्ञापन चाहिए थे, सरकार की कमी छुपाने की एवज जम कर लूटा लाख नही करोडों के विज्ञापन एक-एक समूह ने लिए। ये कैसा मीडिया है जो लोगों की जान, घर-परिवार की तबाही, बिलखते निराश्रित हा गयेे बच्चे- महिलाओं-वृद्धों, सडक-बिजली-पानी-दूरसंचार-चिकित्सा-शिक्षा के बजाय विज्ञापन की लूट में शामिल हो थू के काबिल ही तो है।
इस नर्क में पत्रकारिता को ले जाने के लिए हम सभी जिम्मेदार हैं जो स्वयं को पत्रकार कहते हैं। सचमुच हमने उनके मुंह पर थूका नहीं, उन्हें थप्पड भी नहीं मारा और एक प्रकार से उनकी गुलामी स्वीकार कर ली। सिर ऊंचा करके चलने के लिए पेट में रोटी भी चाहिए जिसे हमारे भ्रष्ट प्रभु ने देना है। हमने ये नियति मान ली है। जबकि ऐसा नहीं है। बच्चा बाद में पैदा होता है, प्रकृति उसके पालन का इंतजाम मां की छाती में दूध बना पहले कर लेती है। एक कहावत है जिसने सिर दिया है वह सेर भी देगा। मनुष्य निहायत इमानदार पैदाईश है यदि हम फरेबी बन जाये ंतो किसका क्या दोष।
हम पुनः आपकी बात पर आयें यदि उठा सिर बढेगा तो नीच कर्म पर लगाम लगेगी। मीडिया जो गर्त में है उसे बचाना ही होगा।