सर्वदा कविता के सुखद आनंद में जीने वाले पंकज सिंह को उनकी ही एक कविता में विनम्र श्रद्धांजलि!

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Vinod Bhardwaj : पंकज सिंह से मेरा पुराना परिचय था. 1968 से उन्हें जानता था. आरम्भ लघु पत्रिका की वजह से. 1980 में जब मैं पहली बार पेरिस गया था, तो उन दिनों वे वहीँ थे. काफी उनके साथ घूमा. रज़ा से मिलने उनके साथ ही गया था. लखनऊ में रमेश दीक्षित के घर पर एक बार खुसरो का ‘छाप तिलक’ उनसे सुनकर मन्त्र मुग्ध हो गया था. बहुत सुन्दर गाया था उन्होंने. अजीब बात है कि फेसबुक पर हम मित्र नहीं थे पर वे मेरी कई चीज़ें शेयर कर लेते थे अपनी वाल पर, अधिकार की तरह. पिछली कई मुलाकातों में उन्होंने मुझसे सेप्पुकु पढ़ने की बात की. तय हुआ हम जल्दी ही मिलेंगे. पर आज यह बुरी खबर मिली. मेरी विनम्र श्रद्धांजलि.

Dayanand Pandey : मित्र पंकज सिंह नहीं रहे, इस ख़बर पर बिलकुल यकीन नहीं हो रहा। कुछ खबरें ऐसी होती हैं जो धक से लग जाती हैं कि अरे! यह ऐसी ही ख़बर है। बहुत सारी यादें हैं। फ़िल्मकार प्रकाश झा और उन के साथ गुज़री कुछ न भुला पाने वाली साझी यादें हैं। दिल्ली में जब रहता था, तब की मुलाक़ातें हैं। लखनऊ की मुलाक़ातें हैं। मदिरा में भीगी हुई रातें हैं। फ़ेसबुक की बातें हैं । भाषा और शब्दों के प्रति अतिशय सतर्क रहने और सचेत करने वाले पंकज सिंह कामा और पूर्ण विराम तक की संवेदना को समझते थे, बहुत शालीनता से समझाते भी थे। लेकिन अभी कुछ भी कह पाने का दिल नहीं हो रहा। मुझ से कुल दस साल ही बड़े थे। यह भी कोई जाने की उम्र थी भला? ‘मैं आऊंगा चोटों के निशान पहने’ कभी लिखने वाले भी जानते हैं कि जाने के बाद कोई नहीं लौटता। सर्वदा कविता के सुखद आनंद में जीने वाले पंकज सिंह को उन की ही कविता में विनम्र श्रद्धांजलि !

गेरू से बनाओगी तुम फिर
इस साल भी
घर की किसी दीवार पर ढेर-ढेर फूल
और लिखोगी मेरा नाम
चिन्ता करोगी
कि कहाँ तक जाएंगी शुभकामनाएँ
हज़ारों वर्गमीलों के जंगल में
कहाँ-कहाँ भटक रहा होऊंगा मैं
एक ख़ानाबदोश शब्द-सा गूँजता हुआ
शब्द-सा गूँजता हुआ
सारी पृथ्वी जिसका घर है
चिन्ता करोगी
कब तक तुम्हारे पास लौट पाऊंगा मैं
भाटे के जल-सा तुम्हारे बरामदे पर
मैं महसूस करता हूँ
तुलसी चबूतरे पर जलाए तुम्हारे दिये
अपनी आँखों में
जिनमें डालते हैं अनेक-अनेक शहर
अनेक-अनेक बार धूल
थामे-थामे सूरज का हाथ
थामे हुए धूप का हाथ
पशम की तरह मुलायम उजालों से भरा हुआ
मैं आऊंगा चोटों के निशान पहने कभी

Pankaj Chaturvedi : पंकज सिंह दुर्लभ इंसान और कवि तो थे ही, कविता के अनूठे पक्षधर भी थे. उन्होंने एक बार कहा था कि कवि को ‘डिफ़ेंसलेस’ जीवन क्यों जीना चाहिए? आज उनकी विदाई से मैं स्तब्ध रह गया. जैसे हम और अरक्षित हो गये. विनम्र श्रद्धांजलि!

Surendra Grover :  बेहद दुखद और झकझोर कर रख देने वाली बुरी खबर है कि वरिष्ठ कवि और पत्रकार Pankaj Singh हमें छोड़ कर चले गए.. मुझसे कुछ समय पहले ही फोन पर मिलने आने के लिए कहा भी था पर अफ़सोस कि मैं उनके इस आदेश का पालन नहीं कर पाया.. कल्बे कबीर के साथ कार्यक्रम बनाने की कोशिश की जो असफल रही फिर Uday Prakash जी के साथ उन्हें टैग करते हुए पोस्ट भी की थी एक हफ्ते पहले ही पर नाकामयाब रहा.. अपने छोटे सा बर्ताव करते थे जब भी मिले.. फिर एक बार अनाथ हो गया हूँ.. सादर श्रद्धांजलि..

जन विजय : कवि पंकज सिंह का देहान्त। मैं उन्हें पिछले 35 साल से जानता था। मैं बेहद दुखी हूँ। उदय, तुम्हारे साथ ही 1980 में मैंने जे०एन०यू० में पहले-पहल पंकज सिंह को देखा था डाऊन कैम्पस में लाइब्रेरी के पास। पंकज सिंह केदारनाथ सिंह के साथ घूम रहे थे और उन्हीं दिनों प्रख्यात चित्रकार रज़ा के साथ साल भर पेरिस में गुज़ार कर लौटे थे। तुम्हीं ने मेरा परिचय पंकज से कराया था। बाद में पंकज से मेरी गहरी दोस्ती हो गई थी। मैंने ही 1982 में पंकज को सविता से मिलवाया था। सविता तब इन्द्रप्रस्थ कालेज में एन०ए० में पढ़ रही थी। बाद में पंकज सविता के साथ मास्को भी आए थे और मेरे घर पर ही रुके थे। आज मेरी नज़रों के सामने वे दृश्य घूम रहे हैं, वे स्मृतियाँ बार-बार आ रही हैं।

Dhiraj Kumar Bhardwaj : अभी-अभी यशवंत सिंह से फोन पर खबर मिली कि वरिष्ठ पत्रकार पंकज सिंह जी का निधन हो गया. हालांकि फेसबुकियों के लिये उनका नाम कम परिचित है, लेकिन पत्रकारिता में उनका नाम काफी पुराना है. पुराने कांग्रेसी नेता तारिक अनवर ने जब अपने कॅरीयर की शुरुआत में सन 1972 में युवक धारा के नाम से एक पत्रिका निकाली थी तो उसके संपादक पंकज भैया ही हुआ करते थे. फिर बाद में नभाटा, हिन्दुस्तान, बीबीसी लंदन आदि कई संस्थानों में देश-विदेश में काम किया. कई कॉलेजों में पत्रकारिता की पढ़ाई भी उन्हीं की बदोलत शुरु हुई. कॉरपोरेट पत्रकारिता का आखिरी असाइनमेंट कल्पतरू एक्सप्रेस के साथ रहा. मुझसे पहली मुलाकात 2010 में मेरी संस्था राष्ट्रीय पत्रकार कल्याण ट्रस्ट के वार्षिक सम्मेलन में हुई थी. फेसबुक और गूगल प्लस अकाउंट भी उन्होंने मेरे बहुत अनुरोध करने पर बनाया, लेकिन सोशल नेटवर्किंग साइटों पर ज्यादा सक्रिय नहीं रहे. पिछले दिनों मुलाकात हुई तो बता रहे थे कि कल्पतरू वालों ने उनकी कई महीने की तनख्वाह मार ली. वे नोएडा-दिल्ली की सीमा पर बने ईस्ट एंड अपार्टमेंट में रहते थे. हाल-फिलहाल में मुलाकातों का सिलसिला थोड़ा कम हो गया था. पिछली मुलाकात में उन्होंने कहा भी था कि अब जिंदगी का बहुत भरोसा नहीं रहा… आज अचानक ऐसा लग रहा है मानों अपने परिवार का कोई सदस्य बिछुड़ गया हो. पुराने एलबमों में तलाशा तो हमारी पहली मुलाकात की कुछ तस्वीरें मिल गयीं.

पत्रकार विनोद भारद्वात, दयानंद पांडेय, सुरेंद्र ग्रोवर, पंकज चतुर्वेदी, जनविजय, धीरज भारद्वाज के फेसबुक वॉल से.


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