इस देश में झारखंड नहीं होता और न कोयला खानें होतीं तो मेरे पत्रकार बनने का कोई इरादा कभी न था। झारखंड और भारत की औद्योगिक उत्पादन प्रणाली को समझने के लिए सीधे जेएनयू से मैं अपरिचित मदन कश्यप के भरोसे अपने मित्र उर्मिलेश के कहने पर कुछ दिन झारखंड में बिताने के लिए कड़कती हुई उमस के मध्य तूफान एक्सप्रेस से मुगलसराय उतरकर पैसेंजर गाड़ी से धनबाद पहुंच गया था और कवि मदन कश्यप ने मुझे गुरुजी दिवंगत ब्रह्मदेव सिंह शर्मा के दरबार में पेश कर दिया था और गुरुजी ने ही हाथ पकड़कर मुझे पत्रकारिता का अ आ क ख ग सिखाया।
तब पत्रकारिता में अपने होने का सबूत देने में इतना उलझ गया कोयला खदानों में कि फिर भद्रसमाज में होने का अहसास न हुआ और न आगे पढ़ाई जारी रखने की कभी इच्छा हुई।
उन दिनों के अखबारों में तमाम मसीहावृंद के सुभाषित पढ़ लें तो जाहिर हो जायेगा कि वे हिंदुत्व का कैसे मुकाबला कर रहे थे। हमारे आदरणीय मित्र आनंद स्वरूप वर्मा ने अस्सी के दशक के मीडिया के उस युंगातकारी भूमिका पर सिलसिलेवार लिखा है। मने दिल्ली में उनसे मिलकर और अभी हाल में फोन पर उनसे अनुरोध किया है कि भारतीय मीडिया के कायाकल्प के उस दशक के सच को किताब के रूप में जरूर सामने लाये थो तमाम दावेदारों के दावों का निपटारा हो जाये। हमने वे तमाम आलेख हस्तक्षेप के लिए आनंद जी से मांगे हैं। मिलते ही हम साझा करेंगे।
सारी विधायें अब कारपोरेट हैं और केसरिया भी और हर जुबान पर देशी विदेशी पूंजी का ताला है और तमाम उजले चेहरे करोड़ों के रोजाना भाव बिक रहे हैं। हमारी औकात चाहे जो हो, हमारी हैसियत चाहे जो हो, हम इस दुस्समय को यूं गुजरते हुए कयामत बरपाने से पहले कम से कम दम भर चीखेंगे जरूर आखिरी सांस तक।
हमारे हिसाब से हिंदुत्व की सुनामी तो राममंदिर आंदोलन की शुरुआत कायदे से होने से पहले, राजीव गांधी के राममंदिर के ताला तुड़वाने से बहुत पहले आपरेशन ब्लू स्टार और सिखों के नरसंहार के जरिये पैदा हो गयी थी, जब समूचा सत्ता वर्ग और सारा मीडिया सिखों के सफाये पर तुला हिंदुत्व का आवाहन कर रहा था।
हस्तक्षेप से साभार