Sanjaya Kumar Singh : “प्रेसटीट्यूट” अभियान के बीच आउटलुक की एक खबर को लेकर सरकार और सत्तारूढ़ दल फॉर्म में हैं। देखिए कि कैसे एक मामले में पत्रिका का गला घोंटने की कोशिश हो रही है और एक पुराने मामले को भी नए सिरे से हवा दी जा रही है। इस बीच, आउटलुक के वरिष्ठ संपादकीय सहयोगी को बर्खास्त कर दिए जाने की खबर है। मीडिया को खबरों के लिए सुबह-शाम गाली देने और पत्रकारिता सीखाने वाले तमाम वीर-बहादुर इस बर्खास्तगी पर चुप हैं। एक तरफ पत्रकारिता को बेच खाने वाले को पूरा “मूल्य” मिल रहा है और दूसरी तरफ सीमित या निश्चित वेतन के बदले ईमानदारी से काम करने वाले को बर्खास्त कर दिया जा रहा है। प्रेसटीट्यूट कहने वाले चुप हैं। आउटलुक के प्रकाशक रहे (Peri Maheshwer) पेरी महेश्वर की पोस्ट का हिन्दी अनुवाद देखिए….
“लोग कृष्ण प्रसाद के निष्कासन पर मेरी राय जानना चाह रहे हैं। वे एक ऐसे व्यक्ति हैं जो पत्रकारिता के प्रति ईमानदारी और प्रतिबद्धता को सीने से लगाए रखते थे। उन्हें ना कोई खरीद सकता था ना डरा सकता था। आप उनसे असहमत हो सकते हैं पर उनकी ईमानदारी पर सवाल नहीं उठा सकते हैं। 15 साल तक प्रकाशक रहने के बाद मैं बड़े आराम से कह सकता हूं कि – कांग्रेस हो या भाजपा – भारत में स्वतंत्र मीडिया के लिए जगह नहीं है। किसी खबर को प्रकाशित होने से रोकने के लिए मंत्री के नियमित फोन आना सामान्य है। ‘शुभचिन्तकों’ द्वारा शिष्ट संदेश के रूप में धमकी हर महीने की घटना है। और हाल के ‘प्रेसटीट्यूट’ अभियान ने सत्ता प्रतिष्ठान के लिए काम आसान कर दिया है। जब ऐसे किसी संपादक को ऐसी स्थितियों में बर्खास्त किया जाता है तो किसी को लाभ नहीं होता है। हर कोई एक अदृश्य शक्ति के दबाव में काम करता है। हर कोई मुश्किल में है। हर किसी की रातें खराब होती हैं। संपादक की नौकरी जाती है। प्रकाशक मुश्किल काम करता है ताकि उपक्रम चलता रहे जबकि साख खराब होती है। पत्रकारिता का नुकसान होता है, अभिव्यक्ति की आजादी खत्म होती है। भारत के लोगों का नुकसान होता है। संदेश देने वाला हारता है। संदेश खो जाता है। कौन जीतता है?”
वरिष्ठ पत्रकार संजय कुमार सिंह की एफबी वॉल से.
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