संजय श्रीवास्तव-
राजेंद्र माथुर के बहाने… फेसबुक पर लोग संपादक स्वर्गीय राजेंद्र माथुर को याद कर रहे हैं. मौजूदा पत्रकारिता की भी बातें कर रहे हैं. मैं 70 के दशक और 80 के दशक के ज्यादातर हिस्सों में मध्य प्रदेश में बड़ा हुआ. नई दुनिया उस समय केवल इंदौर से प्रकाशित होता था. पूरे मध्य प्रदेश का चहेता अखबार था. बहुत सी जगहों पर ये अखबार शाम को पहुंचा करता था. तब नई दुनिया की खबरों को लेकर एप्रोच, ट्रीटमेंट, संपादकीय, संपादकीय लेखों और लेआउट के साथ प्रयोगों में कथित राष्ट्रीय अखबारों से बहुत आगे था. माथुर साहब उसके संपादक थे.
एक दिन नई दुनिया ने पहले पेज पर एक छोटा सा समाचार छापा कि उनके संपादक राजेंद्र माथुर नवभारत टाइम्स के संपादक बनकर दिल्ली जा रहे हैं. अखबार ने उन्हें उनके योगदान के लिए याद किया. बताया कि उन्होंने कैसे नई दुनिया को बदला और एक खास तेवर दिया. अखबार प्रबंधन ने उन्हें आगे के लिए शुभकामनाएं दीं गईं. माथुर साहब दिल्ली आ गए.
उन्हीं दिनों दिल्ली पीटीआई में एक पत्रकार संबंधी ने बताया कि माथुर साहब के संपादक बनने के बाद नवभारत टाइम्स बदल गया है, उसे सियासी गलियारों में नोटिस लिया जाने लगा है. फिर मेरठ में रहने के दौरान जब नौजवानों की एक संस्था ने माथुर साहब समेत दिल्ली के वरिष्ठ पत्रकारों को एक संगोष्ठी में बुलाया तो माथुर साहब का भाषण प्रवाहपूर्ण और दिमाग की खिड़कियों को खोलने वाला महसूस हुआ. उस भाषण में उनमें संपादकों जैसा ना तो अभिमान था ना ही विद्वता का दम भरने वाला दंभ. उनका भाषण वैसा ही था जो उत्सुकता से भरा युवा श्रोता वर्ग बदलते समाज, देश और पत्रकारिता के बारे में सुनना चाहता था. निश्चित तौर पर इसको लंबा समय हो चला है.
90 के दशक में हिंदी अखबारों में उभार का जो दौर बड़े होते बाजार के साथ शुरू हुआ था, वो अब तकनीक के और आगे बढ़ने के साथ हांफता सा लग रहा है. माना जाने लगा है कि अखबारों यानि प्रिंट मीडिया का दौर ढलान की ओर है. मैं व्यक्तिगत तौर पर महसूस करता हूं कि तकनीक तो विकसित हो रही है लेकिन अखबार भाषा, खबरों के प्रस्तुतिकरण, चेतना के स्तर पर निराश करने लगे हैं. बुरा मत मानिएगा अखबारों में पिछले एक – डेढ़ दशकों में संपादक जैसी संस्था खत्म हो चुकी है. जो संपादक होने का दम भरते हैं वो वास्तव में हैं क्या, वो खुद तय करें.