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साहित्य

जब कठिन समय आता है तो अभिव्यक्ति के कई माध्यम ढूँढने होते हैं : राजेश जोशी

Rajesh Joshi

अनिश्चितता में हम रोज़ कुछ निश्चित करने की कोशिश कर रहे हैं। सरकार, जरूरी व्यवस्थाओं को सुनिश्चित करने में सक्रिय है तो आम जनता और कुछ संस्थाएं सड़क पर बदहवास चले जा रहे हैं लोगों के लिए खाना या पानी उपलब्ध कराने की कोशिश कर रहे हैं। कुछ दूर के लिए कोई सवारी मिल जाने से निश्चिन्तता नहीं मिलेगी। जरा राहत मिल जाएगी। उसकी निश्चिन्तता घर की पहुंच है।

दरअसल यह कोशिशें ही इस समय का सच है। हमारे समय के सवालों का जवाब।

लेखक अनु सिंह चौधरी ने राजकमल प्रकाशन समूह के फ़ेसबुक लाइव से जुड़कर कहा कि, “हमारे भीतर ये सवाल गूंजता है कि जो भी हम कर रहे हैं इसका मानी क्या है? इस बीमारी के बारे में कहीं कोई जवाब नहीं है। तब इतिहास और साहित्य के पन्ने को पलट कर देखना एक उम्मीद, एक हौसले के लिए कि कैसे हमारे पूर्वज़ों ने बड़ी त्रासदियों का सामना किया है। कहानियों, किस्सों या काल्पनिक कथाओं के जरिए अपने समय को देखा है। उम्मीद या नाउम्मीदी कोई तो रास्ता वहां से निकलेगा…”

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कई भाषाओं एवं बोलियों में न केवल महामारियों बल्कि अन्य प्राकृतिक आपदाओं का जिक्र हुआ है। सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला, कमलाकान्त त्रिपाठी, विलियम शेक्सपीयर, अल्बैर कामू, गेब्रियल गार्सिया मार्केज़ जैसे कई साहित्यकारों ने अपने समय की आपदाओं को अपनी रचनाओं का हिस्सा बनाया है।

“लेकिन जब कठिन समय आते हैं तो अभिव्यक्ति के कई माध्यम ढूँढने होते हैं।” राजेश जोशी ने यह बात लाइव बातचीत के दौरान कही। राजकमल प्रकाशन समूह के फ़ेसबुक लाइव से जुड़कर उन्होंने कहा, “यह महान दृश्य है चल रहा मनुष्य है – हरिवंश राय बच्चन की यह पंक्ति आज के समय में बिलकुल बदल जाती है। पैदल चलते हुए मनुष्यों का दृश्य महान दृश्य नहीं हृदय विदारक और दुखी कर देने वाले दृश्य हैं। इस समय उम्मीद देने वाला दृश्य उन डॉक्टर, स्वास्थकर्मियों, सुरक्षाकर्मियों, एक्टिविष्ट को देखना है जो जीवन को बचाने में रात दिन लगे हुए हैं।“

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राजकमल प्रकाशन समूह के साथ फ़ेसबुक लाइव के जरिए राजेश जोशी ने अपनी कई नई कविताएं और कुछ पुरानी कविताओं का पाठ किया। राजेश जोशी ने अपनी कविताओं को जीवन को बचाने में लगे लोगों को समर्पित किया-

“उल्लंघन / कभी जान बूझकर / कभी अनजाने में / बंद दरवाज़े मुझे बचपन से ही पसंद नहीं रहे / एक पांव हमेशा घर की देहरी से बाहर ही रहा मेरा / व्याकरण के नियम जानना मैंने कभी जरूरी नहीं समझा / इसी कारण मुझे कभी दीमक के कीड़ों को खाने की लत नहीं लगी / और किसी व्यापारी के हाथ मोर का पंख देकर उसे खरीदा नहीं / बहुत मुश्किल से हासिल हुई थी आज़ादी / और उससे भी ज़्यादा मुश्किल था हर पल उसकी हिफ़ाजत करना..”

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प्रस्तुति- सुमन परमार

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