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सुख-दुख

जिस बात को कहने के लिए रजनीश चालीस पेज लेते हैं, उसे कृष्णमूर्ति चार पंक्तियों में कहने में सक्षम हैं!

सुशोभित-

रजनीश-कृष्णमूर्ति द्वैत बड़ा रोचक है। रजनीश पूरा जीवन कृष्णमूर्ति के व्यक्तित्व के प्रति आदर-भाव से भरे रहे। इतना आदर उन्होंने अपने किसी समकालीन के प्रति नहीं जतलाया था। अपनी प्रिय किताबों की सूची में कृष्णमूर्ति की तीन पुस्तकें सम्मिलित करते हुए रजनीश ने कहा था कि मुझे उनसे प्रेम भी है और उनसे अरुचि भी है। प्रेम इसलिए, क्योंकि वे सत्य कहते हैं। अरुचि इसलिए क्योंकि वे अतिशय बौद्धिक हैं, रूखे-सूखे हैं, नीरस हैं। किन्तु कृष्णमूर्ति की ‘कमेंट्रीज़ ऑन लिविंग’ का उल्लेख करते हुए रजनीश भावाकुल हो उठे। बोले, “वह पुस्तक इतनी सुंदरतम है कि वह आपको एक दूसरे लोक में ले जा सकती है।” फिर कुछ ठहरकर बोले, “क्या तुम मेरी आँखों में आँसू देख सकते हो?”

रजनीश का यह दुर्लभ स्नेह-प्रदर्शन अकारण नहीं था। स्वयं रजनीश की किताब ‘क्रांतिबीज’ कृष्णमूर्ति की ‘कमेंट्रीज़ ऑन लिविंग’ से प्रेरित थी, अलबत्ता उन्होंने इसे कभी सार्वजनिक रूप से कहा नहीं। परन्तु प्रकृति के दृश्यों का वर्णन करते हुए एक इनर-पर्सपेक्टिव के साथ चेतना के प्रसंगों को नोटबुक में दर्ज करते चले जाना- मानो स्वयं से संवाद कर रहे हों- यह हूबहू कृष्णमूर्ति की शैली थी। कृष्णमूर्ति की किताब ‘फ़र्स्ट एंड लास्ट फ्रीडम’ को भी रजनीश ने अपनी एक किताब के शीर्षक के रूप में अपनाया।

अमेरिका में एक इंटरव्यू के दौरान उनसे पूछा गया कि आज अमेरिका में सबसे महत्वपूर्ण जीवित व्यक्ति कौन है? उन्होंने कहा, “कोई भी नहीं।” फिर कुछ रुककर बोले, “हाँ, एक व्यक्ति है, कृष्णमूर्ति।” फ़रवरी 1986 में जब कृष्णमूर्ति का देहान्त हुआ, तब रजनीश यूनान में थे। ख़बर सुनकर बोले, “आज मैं अकेला हो गया!”

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इसकी तुलना में कृष्णमूर्ति ने रजनीश के बारे में भरसक मौन साधे रखा था, जैसी कि उनकी प्रकृति थी। कथित रूप से उन्होंने रजनीश पर एकाध बार कुछ टीका-टिप्पणी की, जिस पर रजनीश ने अपनी सुपरिचित शैली में उन्हें आड़े हाथों भी लिया, लेकिन उनके प्रति उनका आदर कभी डिगा नहीं। जब रजनीश गोरख पर बोल रहे थे तो उन्होंने भारत के आध्यात्मिक-आकाश के बारह नक्षत्रों की सूची बनाई थी। वैसा उन्होंने कविवर सुमित्रानंदन पंत के आग्रह पर किया था। कृष्णमूर्ति को उन्होंने उन बारह नामों में शामिल किया था, जबकि अष्टावक्र को छोड़ दिया, रमण को छोड़ दिया, अरविंद को छोड़ दिया। फिर जब कविवर पंत ने इनमें से पाँच नाम घटाकर अंतिम सात नामों की सूची माँगी तो उन्होंने बुद्ध को बचाकर कृष्णमूर्ति का नाम सूची से हटा दिया। कहा, “बुद्ध आ गए यानी कृष्णमूर्ति पूरे के पूरे आ गए।” यह बात सच है कि कृष्णमूर्ति का वांग्मय बुद्ध के ही वचनों की आधुनिक, महत्तम, विस्तीर्ण व्याख्या है- ‘अप्प दीपो भव’- यह वाक्य कृष्णमूर्ति में अंतस् में आजीवन गूँजता रहा था।

कृष्णमूर्ति जैसा निर्भीक, निरालम्ब सत्यान्वेषी कोई दूसरा नहीं हुआ। प्रकट में देखें तो रजनीश अधिक साहसी, मुखर, मूर्तिभंजक लगेंगे, कृष्णमूर्ति उनकी तुलना में विनयी, अस्फुट, संकोचपूर्ण मालूम होंगे। लेकिन कृष्णमृर्ति ने यह महत्तम साहस किया था कि उन्होंने सत्य की प्राप्ति के लिए किसी भी उपकरण, साधन, विधि, सम्प्रदाय, परम्परा या आलम्बन को मानने से इनकार कर दिया। परम वैयक्तिकता का उद्घोष किया। रजनीश इस अद्भुत साहस के लिए ही कृष्णमूर्ति के प्रति विनीत थे। ये वो कृष्णमूर्ति हैं, जिन्हें वर्ल्ड-टीचर के रूप में थियोसॉफ़िकल सोसायटी ने नियुक्त कर दिया था। अडयार में लीडबीटर ने उन्हें खोज निकाला था, एनी बेसेंट ने उन्हें मातृत्व-भाव से अंगीकार कर लिया था। यह सार्वजनिक-घोषणा कर दी गई थी कि कृष्णमूर्ति बुद्ध के अवतार मैत्रेय के वाहक होंगे। ऑर्डर ऑफ़ द स्टार इन द ईस्ट का गठन कर दिया गया था। मंच तैयार था और कृष्णमूर्ति को उस पर पदासीन भर होना था। किन्तु उन्होंने इनकार कर दिया। ऑर्डर को भंग कर दिया। कहा, “सत्य एक पथहीन भूमि है, और आप किसी भी रास्ते, किसी भी धर्म, किसी भी सम्प्रदाय द्वारा उस तक नहीं पहुँच सकते।”

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धर्म और अध्यात्म का इतिहास उन गुरुओं, मसीहाओं और तीर्थंकरों से भरा है, जिनके बाद उनका एक पंथ या सम्प्रदाय विकसित हुआ। इसका कारण था कि बेड़ा पार लगाने वाले के प्रति जनसामान्य अगाध आकर्षण से भरा है, ताकि स्वयं को श्रम न करना पड़े, परिष्कार-परिमार्जन में खटना न पड़े। कृष्णमूर्ति विरले हैं, जिन्होंने आजीवन अपने किसी सम्प्रदाय के जन्मने की सम्भावनाओं का निषेध किया और यह भी सुनिश्चित किया कि उनके बाद हायरेर्की में कोई स्वयं को उनका उत्तराधिकारी घोषित कर लोगों को छले नहीं (इस मामले में रजनीश से भूल हुई, जिन्होंने 21 संन्यासियों का ‘इनर सर्किल’ गठित किया था और उसने आज रजनीश-आंदोलन को अपहृत कर लिया है)। कृष्णमूर्ति ने अपने संदेश को शुद्धतम रखा है। वैसी सत्यनिष्ठा, ईमानदारी, उजली मेधा दुर्लभ थी।

रजनीश और कृष्णमूर्ति में आकाश-पाताल का भेद रहा। वे परस्पर पूरक भी थे और पूर्वोत्तर भी। कृष्णमूर्ति आलम्बनों का विरोध करते थे, रजनीश ने आजीवन किन्हीं सम्बुद्धों या परम्पराओं के आलम्बन से संकोच नहीं किया। कृष्णमूर्ति इस बात से सहमत नहीं थे कि ध्यान-विधियों से सत्य पाया जा सकता है, रजनीश ने ज़ोर देकर कहा कि ध्यान ही मार्ग है और नियमित साक्षी को साधेंगे तो समाधि को उपलब्ध होंगे। कृष्णमूर्ति ने कोई नामोपाधि स्वीकार नहीं की, रजनीश ने कई विशेषण अपनाए और त्यागे, कई लीलाएँ रचीं। कृष्णमूर्ति ने अपने संदेश को नपा-तुला, परिशुद्ध बनाए रखा, रजनीश ने अपने संदेश में अनेक धाराओं, युक्तियों, उपायों का समावेश किया। परिणामस्वरूप कृष्णमूर्ति का दर्शन एकरूप है, जबकि रजनीश का बहुलार्थी, अनेकान्त से भरा, बहुधा भ्रान्त कर देने वाला। कृष्णमूर्ति ने अपने वचनों को मनोरंजक और सुग्राह्य बनाने की चिंता नहीं की, रजनीश ने की। या कहें, रजनीश के निजी व्यक्तित्व की छाप से उनके वचन सरस बन गए। कृष्णमूर्ति के यहाँ अवान्तर प्रसंग नहीं मिलेंगे, रजनीश के यहाँ दुनिया-जहान के विषयों पर चर्चा समाविष्ट हुई, संदर्भ दाएँ-बाएँ होते रहे, उनका बहुरंगी व्यक्तित्व उनके व्याख्यानों में ख़ूब झलका। रजनीश लोकप्रिय होने के लिए पूर्वनियत थे, कृष्णमूर्ति प्रामाणिक होने के लिए।

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जीवन, मृत्यु, सम्बंध, प्रेम, ध्यान, चेतना आदि पर कृष्णमूर्ति की सुतीक्ष्ण, बहुमूल्य अंतर्दृष्टि आज अनेक पुस्तकों की अंतर्वस्तु हैं। अनेक वीडियो रिकॉर्डिंग्स उनकी मौजूद हैं, जिन्हें सुनना स्वयं का परिष्कार करना है। आप अगर बौद्धिक क़िस्म के व्यक्ति हैं और खुले आकाश जैसे व्यापक, निर्ग्रंथ, अनावृत सत्य के खोजी हैं तो कृष्णमूर्ति आपको भाएंगे। रजनीश भी भा सकते हैं, लेकिन उनके यहाँ प्रेममार्गी-भक्तिमार्गी धारा के दीवानों-मस्तानों-परवानों की जो टोली जमा हो गई, उसने उनके आंदोलन की वैधता को क्षति पहुँचाई, और यह स्वयं रजनीश का सचेत चयन था। इसने उनके संदेश को अशुद्ध किया है और उसके प्रति एक विरूप धारणा बनाई है।

कुछ समय पूर्व एक वरिष्ठ सज्जन से मेरा संवाद हो रहा था। उन्होंने कहा कि उनका सौभाग्य था जो उन्होंने अपने जीवनकाल में रजनीश और कृष्णमूर्ति दोनों को साक्षात् देखा और उन्हें सुना। फिर आगे जोड़ा कि जिस बात को कहने के लिए रजनीश चालीस पेज लेते हैं, उसे कृष्णमूर्ति चार पंक्तियों में कहने में सक्षम हैं। बात उनकी सही थी। शुद्धतम विचारणा और सम्यक् चिंतन अगर नेति-नेति के भाव से समस्त आलम्बनों को काटता है और सत्य के सिवा किसी और वस्तु से संतोष नहीं करता, जिसमें परिनिष्ठ मेधा का आलोक सूर्योदीप्त होता है, आत्मचेतना के स्वरूप की स्पष्ट प्रतीति और अहंभाव का समूल नाश होता है- वैसा मार्ग कृष्णमूर्ति का है। साधना-पथ पर चलते हुए अगर आप रजनीश से शुरू करेंगे (या रजनीश से प्रभावित होकर अयाचित ही उस पथ पर बढ़ चलेंगे) और कालान्तर में कृष्णमूर्ति पर आकर रुक जाएँगे तो यह अस्वाभाविक नहीं है। कृष्णमूर्ति सारभूत हैं।

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और अगर हम कहें कि रजनीश ने जाने-अनजाने कृष्णमूर्ति के लिए हमें ग्रहणशील बनाने के लिए ज़मीन तैयार की थी, परिश्रम किया था और इस तरह स्वयं को सत्य के उस सारतम संदेश के पुरोवाक् की तरह प्रस्तुत किया था, तो इस पर स्वयं रजनीश को कोई आपत्ति नहीं होगी। कृष्णमूर्ति के देहत्याग पर जब उन्होंने कहा कि अब वे अकेले पड़ गए हैं तो इसका अभिप्राय भी कदाचित् यही था।

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