गोरखपुर से लेकर लखनऊ और पटना तक विभिन्न अखबारों में वरिष्ठ पद पर काम करने वाले वरिष्ठ पत्रकार राघवेंद्र दुबे आज के दिन यानि 21 सितंबर को 63वां पूरा कर रहे हैं. अपनी मिट्टी, लोक जीवन, लोक चिंतन, देसज संवेदना और लोकभाषा के इस उस्ताद कारीगर ने इस मौके पर अपने जीवन और खुद को लेकर एक पोस्ट फेसबुक पर प्रकाशित किया है जिसे नीचे दिया जा रहा है…
Raghvendra Dubey : ऐसा नहीं है कि कुछ कहने-लिखने के लिए, मैं अपनी जिंदगी के ख़्वाब या दुश्वारियों को एक खूबसूरत तरतीब न दे पाता। ये हुनर है मुझमें। लेकिन गहरे असमंजस में हूं। सच तो ये है कि जिंदगी से कोई नाखुशी या शिकायत भले न हो, कोई खुशी या इतराने जैसी बात भी नहीं है। अपने जन्मदिन 21 सितम्बर पर एक ठंडा सवाल, दीवाल पर नमी सा हमेशा पसरा रहा है — क्यों खुश होना चाहिए , या उदास भी।
कुछ जो अबतक अधूरा रह गया उसे देखूं या रूह की खुसबू बटोर लूं, यह कशमकश, अपने वजूद की, बीते सालों में तो और गहरी होती गई। कई बार ऐसा भी लगा। एक जादुई खेल जैसा। किसी रहस्यमय दूर नियंत्रक ने, अच्छा-खासा वक्त, जिसे शायद मैं अपने ढंग से संवारता, अलग-अलग और साफ-साफ न नजर आने वाली शक्लों में मेरे ही आगे नचा दिया। हम जैसों की अजब सी हालत है और समय जिनकी अंगुलियों में नाच रहा है, उन वहशियों में गजब की ताकत है। जिनके पैरों तले जमीन नही है, उनके सिर पर उसूलों की छत है।
मैं परेशान हूं, इस दुनिया, अपने और कुछ रचने के हौसले के बीच के अंतरकथ्य और अन्तर्सम्बन्धों की पड़ताल में। चलिए मुझे अपनी ही एक बात पर तो भरोसा है। अपना 63 वां पूरा करते हुए, जब चाहूँगा, जीना सीखना शुरू कर दूंगा। इस 21 सितम्बर से ही। इस दिन रघुपति सहाय फिराक, गोरखपुरी की यह गज़ल खुद को गिफ्ट करूंगा। बहुत पहले से उन क़दमों की आहट जान लेते हैं, तुझे ऐ ज़िन्दगी हम दूर से पहचान लेते हैं / मेरी नज़रें भी ऐसे काफ़िरों की जानो — ईमाँ हैं , निगाहें मिलते ही जो जान और ईमान लेते हैं / जिसे कहती है दुनिया कामयाबी वाए नादानी, उसे किन कीमतों पर कामयाब इनसान लेते हैं ….. ( पूरा नहीं लिख रहा हूँ और यह यकीन भी है कि मेरे दोस्तों में से ज्यादातर ने इसे पूरा पढ़ा ही होगा)
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