अयोध्या प्रसाद ‘भारती’
क्या अब भी कोई शक रह गया है कि भारत आजादी के बाद के सबसे खराब दौर से गुजर रहा है ? जहां गुंडों को खुली छूट है। अपने अपराधी बचाए जा रहे हैं, दूसरे निरपराध और भले लोग भी फंसाए और बदनाम किये जा रहे हैं। संचार, विचारों और ज्ञान के प्रसार के साधनों, कानून और और न्याय के संस्थानों पर संकीर्ण आरएसएस और काॅरपोरेट परस्त लोगों का कब्जा हो रहा है। सुप्रीम कोर्ट अभी तक इससे बचा था, जस्टिस दीपक मिश्र के प्रधान न्यायाधीश बनने के बाद यह कमी भी पूरी हो गयी। यह बड़ा ही दुखद है कि सर्वोच्च न्यायालय के जजों को पब्लिक के बीच में आकर कहना पड़ा कि आला अदालत में मनमानी हो रही है और लोकतंत्र खतरे में है।
न्यायपालिका पर लिखना बड़ा रिस्की काम है। न्यायपालिका अपने काम-काज, व्यवहार की जरा सी भी आलोचना पसंद नहीं करती। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में इसके काम-काज को लेकर सवाल उठने लगे हैं। उन जजों के साहस को सलाम जिन्होंने सुप्रीम कोर्ट में चल रही मनमानी पर सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को पत्र लिखकर और बाकायदा प्रेस कांफ्रेंस में उसे जारी कर उजागर किया। यह अलग बात है कि यही वह जज थे जिन्होंने कलकत्ता हाईकोर्ट के न्यायाधीश कर्णन के खिलाफ सजा सुनाई थी। न्यायाधीश कर्णन ने सुप्रीम कोर्ट में व्याप्त भ्रष्टाचार का मुद्दा उठाया था।
चीफ जस्टिस के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट के 4 वरिष्ठ जजों द्वारा प्रेस कॉन्फ्रेंस किए जाने के बाद बताया जाता है कि इससे न्यायपालिका के साथ-साथ भाजपा में भी हलचल मच गई है। ऐसा होना स्वाभाविक है। जस्टिस चेलामेश्वर, जस्टिस रंजन गोगाई, जस्टिस मदन भीमराव और जस्टिस कुरियन जोसेफ पहली बार मीडिया के सामने आए और सुप्रीम कोर्ट के कामकाज पर सवाल उठाए। उच्चतम न्यायालय के कामकाज को लेकर चारों जजों ने जो चिट्ठी चीफ जस्टिस को भेजी थी, वह सार्वजनिक कर दी गई है। चिट्ठी के मुताबिक, इस कोर्ट ने कई ऐसे न्यायिक आदेश पारित किए हैं, जिनसे चीफ जस्टिस के कामकाज पर असर पड़ा, लेकिन जस्टिस डिलिवरी सिस्टम और हाई कोर्ट की स्वतंत्रता बुरी तरह प्रभावित हुई है।
चिट्ठी में आगे लिखा है कि सिद्धांत यही है कि चीफ जस्टिस के पास रोस्टर बनाने का अधिकार है। वह तय करते हैं कि कौन सा केस इस कोर्ट में कौन देखेगा। यह विशेषाधिकार इसलिए है, ताकि सुप्रीम कोर्ट का कामकाज सुचारू रूप से चल सके। लेकिन इससे चीफ जस्टिस को उनके साथी जजों पर कानूनी, तथ्यात्मक और उच्चाधिकार नहीं मिल जाता। इस देश के न्यायशास्त्र में यह स्पष्ट है कि चीफ जस्टिस अन्य जजों में पहले हैं, बाकियों से ज्यादा या कम नहीं।
चिट्ठी के मुताबिक इसी सिद्धांत के तहत इस देश की सभी अदालतों और सुप्रीम कोर्ट को उन मामलों पर संज्ञान नहीं लेना चाहिए, जिन्हें उपयुक्त बेंच द्वारा सुना जाना है। यह रोस्टर के मुताबिक तय होना चाहिए। जजों ने कहा हमें यह कहते हुए दुख हो रहा है कि इन नियमों का पालन नहीं किया जा रहा है। चिट्ठी में कहा गया कि ऐसे भी कई मामले हैं, जिनका देश के लिए खासा महत्व है। लेकिन, चीफ जस्टिस ने उन मामलों को तार्किक आधार पर देने की बजाय अपनी पसंद वाली बेंचों को सौंप दिया। इसे तुरंत रोके जाने की जरूरत है। जजों ने लिखा कि यहां हम उन मामलों का जिक्र इसलिए नहीं कर रहे हैं, ताकि संस्थान की प्रतिष्ठा को चोट न पहुंचे। लेकिन इस वजह से न्यायपालिका की छवि को नुकसान हो चुका है।
इस प्रकरण पर पूर्व वित्त मंत्री और भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता यशवंत सिन्हा का स्टेंड काबिलेगौर है। उन्होंने कहा- सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस दीपक मिश्रा के खिलाफ सार्वजनिक तौर पर आवाज उठाने वाले चारों जजों के साथ वह अडिग होकर खड़े हैं। उन्होंने कहा कि जजों की आलोचना करने के बजाय लोगों को उन मुद्दों पर मंथन करना चाहिए जो उन्होंने बताए है। यशवंत सिन्हा ने ट्वीट किया- सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठ जजों द्वारा की गई प्रेस कॉन्फ्रेंस निश्चित रूप से अभूतपूर्व थी। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि जब राष्ट्रीय हित का दाव होता है तब व्यापार के सामान्य नियम लागू नहीं होते हैं।
एक और महत्वपूर्ण बात यह भी हुई कि कम्युनिस्ट पार्टी के नेता और तमिलनाडु से राज्यसभा सांसद डी राजा जस्टिस चेलामेश्वर के घर उनसे मुलाकात करने पहुंच गए। इस मुलाकात के बारे में जब उनसे मीडिया ने जानना चाहा तो उन्होंने कहा- चेलामेश्वर को लंबे समय से जानता हूं। जब मुझे पता चला कि उन्होंने अन्य जजों के साथ असाधारण कदम उठाया है, तो लगा कि उनसे जरूर मिलना चाहिए। मैं इसे सियासी रंग नहीं दे रहा हूं। इस बात पर सबको ध्यान देना चाहिए। यह देश के भविष्य और लोकतंत्र की बात है।
स्मरण रखें कि कुछ दिन पहले ही चीफ जस्टिस से वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण का विवाद हुआ था। भूषण उनकी मनमानी को लेकर परेशान थे। प्रशांत भूषण के पिता शांति भूषण सर्वोच्च न्यायालय में भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठा चुके हैं।
चार जजों के आरोपों से संकेत मिलता है कि तय नियमों के बजाए प्रधान न्यायाधीश कोर्ट का काम-काज अपनी मर्जी के हिसाब से चलाने का प्रयास कर रहे हैं। न्यायपालिका में भ्रष्टाचार और मनमानी का व्यवहार कोई पहली बार सामने नहीं आ रहा है। निचली अदालतों से लेकर उच्च अदालतों तक में यह प्रायः देखने को मिलता है। कभी-कभी बड़ा अजीब लगता है कि कई बार सामान्य मामलों में भी कोर्ट स्वतः संज्ञान लेकर मामले चलाता है तो कई बार गंभीर मामलों में याचिकाएं दाखिल होने पर भी बात नहीं सुनी जाती।
नोटबंदी से कुछ दिन पहले सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दाखिल की गई थी जिसमें मांग की गई थी कि सहारा और बिरला की डायरियों में गुजरात के मुख्यमंत्री को दी गई रकम का जो जिक्र है उसकी जांच के आदेश सुप्रीम कोर्ट दे। यह अलग बात है कि इस मांग को शीर्ष अदालत ने नामंजूर कर दिया। लेकिन नोटबंदी के समय यह चर्चा खूब हुई कि न्यायालय कोई आदेश क्या पता दे ही दे इससे बड़ा धमाका देश भर में होगा, क्योंकि बात तब के गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी से जुड़ी थी, इसलिए इससे पहले दूसरा धमाका कर दिया जाए, इसलिए आनन-फानन में नोटबंदी की गई। खैर… हकीकत तो मोदी ही जानते होंगे।
इधर पिछले करीब दो महीने से जस्टिस लोया की संदिग्ध परिस्थितियों में हुई मौत, जो भाजपा अध्यक्ष अमित शाह से जुड़ा एक मुकदमा देख रहे थे, की जांच पर सुप्रीम कोर्ट के रवैये पर कुछ चर्चा बाहर आई थी। तब से सुप्रीम कोर्ट में कुछ खदबदा रहा था। उपरोक्त चारों जजों का और भी कुछ दुख-दर्द रहा हो सकता है, लेकिन उन्होंने बहुत कुछ न बताते हुए कम शब्दों में ही यह इशारा कर दिया है कि शीर्ष अदालत में काम-काज में कोई भारी गड़बड़ है।
मामले पर कुछ लोग कह रहे हैं कि इन चार जजों को ऐसा नहीं करना चाहिए था, कोलेजियम में बात रखते, राष्ट्रपति के पास जाते, यह करते और वह करते। लेकिन जो किया वह न करते। भले लोगों सब जानते हैं कि जिस व्यवस्था के हम अंग होते हैं उसमें नीचे से ऊपर तक कोई नहीं सुनता। यह चारों जज भी कोई मामूली जज नहीं हैं। प्रेस कांफ्रेंस में इनके चेहरे पर जो दुख और हताशा दिख रही थी उससे यह साफ है कि वे जानते थे कि उनकी बात कहीं नहीं सुनी जानी है। इसलिए पब्लिक में बात रखना उनके लिए मजबूरी बन गया था। और उन्होंने सही किया। अंदर क्या चल रहा है अब इस पर बात होनी चाहिए। पब्लिक की मेहनत की कमाई से न्यायपालिका पर भी भारी-भरकम खर्च होता है इसलिए कहां क्या हो रहा है, जनता को पता होना चाहिए और व्यवस्थाएं दुरुस्त होनी चाहिए।
एक सामान्य, गरीब आदमी न्याय से काफी दूर है। कहने को कहते रहिए कि हर किसी को न्याय उपलब्ध है। करोड़ों केस यूं ही नहीं पेंडिंग पड़े हैं। जस्टिस दीपक मिश्र के प्रधान न्यायाधीश बनने से पहले ही यह बात पब्लिक में आ चुकी थी कि वे सत्ताधारी पार्टी के समर्थक हैं। अंदाजा लगाया जा सकता है कि सत्ता के लोगों से जुड़े कुछ बड़े मामलों को वे प्रभावित करने का प्रयास कर रहे होंगे। ऐसा पहले भी होता रहा है, आखिर न्यायालय भी सरकार का ही एक विभाग है और जज भी औरों की तरह एक सामान्य मनुष्य। सत्ता का समर्थन या कोई लालच उसे भी प्रभावित करता होगा। कहा जा रहा है कि इससे लोगों में न्यायपालिका पर से भरोसा उठ गया है। अरे साहब, कोर्ट-कचहरियों के चक्कर लगाईये, प्रभावित लोगों के बीच रहिए, पता लगेगा, न्यायपालिका से भरोसा उठे जमाना गुजर गया।
इस प्रकरण से एक बात और साबित हो गयी, पहले कहा जाता था कि न्यायालय ही न्याय की आखिरी उम्मीद है। हालांकि हताश लोग फिर भी थक हार कर मीडिया के पास जाते थे। 12 जनवरी 2018 को यह साबित हो गया कि सर्वोच्च अदालत के लोगों को भी न्याय की आखिरी उम्मीद मीडिया में नजर आई। मजाक करने को यह भी कहा जा सकता है आजाद भारत के 70 सालों में यह भी पहली बार हुआ कि सर्वोच्च न्यायालय के जजों को सरकारी व्यवस्था से भरोसा उठ गया और उन्हें हताश होकर अपनी बात पब्लिक के सामने कहनी पड़ी। यह अलग बात है कि नरेंद्र मोदी और उनके भक्त इसको एक उपलब्धि के रूप में लेंगे कि नहीं। लेकिन जो गड़बड़ियां न्यायपालिका में हैं, इस प्रकरण से वे दुरुस्त होंगी, ऐसी हम उम्मीद हमें करनी चाहिए।
यूं कहा जा रहा है कि सरकार ने प्रकरण से पल्ला झाड़ लिया है। सरकार समर्थक भक्त प्रवक्ता टीवी और पब्लिक में चारों जजों के विरोध के तरीके को गलत बता रहे हैं। इससे यह संदेह तो पैदा हो ही रहा है कि सरकार का हित प्रभावित हो रहा है। सुप्रीम कोर्ट की अंदरूनी कलह का कारण भी कुछ हद तक सरकार है। ऐसे में देश और दुनिया में पहले के तमाम प्रकरणों को लेकर भारत की जो साख गिरती आ रही है अब उसमें भारी इजाफा हो गया है। अमेरिकी कोर्ट वर्तमान राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के फैसले एक के बाद एक पलटते आ रहे हैं। वहीं पिछले एक साल से सुप्रीम कोर्ट पर गवर्नमेंट फ्रेंडली होने का आरोप लग रहा है। इसलिए वर्तमान प्रकरण से सरकार पर सवाल उठेंगे ही। अब देखना यह है कि सुप्रीम कोर्ट और सरकार न्यायपालिका में जनता का भरोसा कैसे लौटाते हैं।
–अयोध्या प्रसाद ‘भारती’
लेखक-पत्रकार
1978 से पत्रकारिता-लेखनरत
रुद्रपुर (उत्तराखंड)
ई-मेल [email protected]
vinay oswal
January 15, 2018 at 1:01 pm
क्या इस देश को , संविधान की भावनाओं से नहीं सत्ताधारी पार्टी की भावनाओं के अनुसार चलाने के लिए तैयार किया जा रहा है ?सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के क्रिया कलापों को कल, विभिन्न टीवी चैनलों के टॉक शो में चार के मुकाबले बीस मतों से सही ठहराने की होड़ देख कर , ऐसा लगा कि किसी को इस बात से कोई सरोकार नही है कि – – – ” न्यायाधीशों के लिए स्थापित मर्यादा कि – – वे न्यायायलयों के आंतरिक मतभेदों और मसलों को सार्वजनिक नही करते , का उलंघन हुआ है या नहीं ? अगर हुआ है तो क्या उन जजों के विरुद्ध कोई अनुशासनात्मक कार्यवाही होगी ? और ये कार्यवाही कौन करेगा ? कब करेगा ? ” ये कभी तय होगा या इन सवालों और उसके सम्भावित उत्तरों , को सदा सदा के लिए दफना दिया जाएगा ? पहली बार देश के सामने आयी इस घटना को दफना दिया गया तो भविष्य में पुनरावृत्ति होने पर भी दफ़नाने की परंपरा का सूत्रपात हो गया समझना चाहिए । आपस में मिल बैठ कर आपसी मतभेदों को सुलझाने के प्रयासों में और दफ़नाने के प्रयासों में क्या अंतर होगा मेरी समझ से परे है । सीधा सीधा उद्देश्य है पूरे मसले पर लीपा-पोती करना। आज सत्ता के सूत्र किसी पार्टी के हाँथ में हैं, कल दूसरी पार्टी के हाथ में हों सकते हैं । आज चार जजों को किसी एक पार्टी के साथ सहानुभति रखने के आरोप लगा के पल्ला झाड़ने वाले तैयार रहे , कल किन्ही दूसरे जजों पर उनकी पार्टी के साथ सहानुभति रखने के आरोप लगेंगे। न्यायाधीशों को अब राजनैतिक पार्टियों का सक्रिय कार्यकर्ता बताने या होने के आरोप खुल्लम खुल्ला लगाने की परम्परा को सार्वजनिक स्वीकृति दिलाना , जिनका लक्ष था , वो उन्हें हांसिल होगया। भविष्य में अन्य संवैधानिक संस्थाओं की सार्वभौमिकता और सम्मान का भी , इसी तरह सड़कों पर मान मर्दन किया जा सकता है । बहुत कुछ ऐसा और भी हो सकता है , जिसकी कल्पना इस देश के आवाम ने कभी की ही नही है । इस देश को संविधान की भावनाओं से नहीं सत्ताधारी पार्टी की भावनाओं के अनुसार चलाने के लिए तैयार किया जा रहा है । चुनाव कराना सरकारों की संवैधानिक बाध्यता है। जब आवाम ही सरकारें को इस बाध्यता का सम्मान न करने से मुक्त कर देगा तो लोकसभा और विधानसभाओं में सत्ताधारी पार्टियाँ ही सदस्यों को नामित करेगी । देश में एक दलीय शासन व्यवस्था का सूत्रपात हो गया ऐसा अंदेशा तो व्यक्त किया ही जा सकता है।