Connect with us

Hi, what are you looking for?

टीवी

इंडिया वांट्स टू नो, व्हाई मीडिया इज सो इनसेन्सिटिव अबाउट इट्स ओन पीपल! क्योंकि ‘सच ज़रूरी है’

‘सच ज़रूरी है’ की टैगलाइन के साथ ख़बरों के बाज़ार में कुछ सालों तक सच का कारोबार करने वाला न्यूज चैनल पी7 बंद हो गया। 400 से ज्यादा स्थाई कर्मचारी एक झटके में सड़क पर आ गए और आजकल वो अपने हक के लिए दफ्तर में धरना प्रदर्शन करने को मजबूर हैं। वो लोग जिन्होंने इस चैनल को एक मुकाम पर पहुंचाने के लिए जी-जान लगाकर काम किया वही लोग आज मालिकान के सामने अपनी सैलरी और बकाया रकम के भुगतान के लिए धरने पर बैठने को मजबूर हैं। अपने ही मेहनत की कमाई पाने के लिए उन्हें कानून का सहारा लेना पड़ रहा है।

‘सच ज़रूरी है’ की टैगलाइन के साथ ख़बरों के बाज़ार में कुछ सालों तक सच का कारोबार करने वाला न्यूज चैनल पी7 बंद हो गया। 400 से ज्यादा स्थाई कर्मचारी एक झटके में सड़क पर आ गए और आजकल वो अपने हक के लिए दफ्तर में धरना प्रदर्शन करने को मजबूर हैं। वो लोग जिन्होंने इस चैनल को एक मुकाम पर पहुंचाने के लिए जी-जान लगाकर काम किया वही लोग आज मालिकान के सामने अपनी सैलरी और बकाया रकम के भुगतान के लिए धरने पर बैठने को मजबूर हैं। अपने ही मेहनत की कमाई पाने के लिए उन्हें कानून का सहारा लेना पड़ रहा है।

पी7 में काम करने वाले 400 से ज्यादा लोगों की जिंदगी में अचानक दाखिल हुआ है ये एक ऐसा अंधेरा है जिसकी सुबह ना जाने कब होगी, होगी भी या नही, कुछ नहीं मालूम क्योंकि ये कोई इकलौता न्यूज़ चैनल नहीं है जहां ताला लग गया। पिछले दो सालों में कम से कम दर्जन भर से ज्यादा बड़े-मझोले-छोटे और दो टके के चैनल हैं जो अचानक बंद हो गए और वहां काम करने वाले सैकड़ों लोगों को आज तक कहीं रोजगार नहीं मिल पाया। ऐसे में उसी जमात का हिस्सा बन रहे ये 400 लोग कहां जाएंगे? कहां मिलेगी इन्हें नौकरी? कैसे करेंगे गुज़र-बसर? क्या होगा इनका, इनके बच्चों, इनके परिवारों का भविष्य? ये सवाल बेहद बड़ा है। संवेदनशील है। पर हमारे और आपके लिए। उस इंडस्ट्री के लिए नहीं जिससे ये लोग ताल्लुक रखते हैं। खासकर टीवी न्यूज इंडस्ट्री के लिए तो बिल्कुल भी नहीं है जिससे ये लोग सीधे तौर पर जुड़े रहे। 

Advertisement. Scroll to continue reading.

हैरान मत होइए। सच कह रहा हूं मैं। अगर ये मामला पत्रकारिता या टीवी न्यूज इंडस्ट्री के लिए मायने रखता तो मुझे इस बारे में खबर जरूर होती क्योंकि मुझे ये तो पता है कि गाजियाबाद या नोएडा के किस इलाके में कौन से दिन किस महिला के गले की चेन लूटी गई या फिर किस सड़क पर, किस दिन, कौन से गड्ढ़े में, कौन गिरते-गिरते बचा। पर मुझे उन लोगों के बारे में कोई खबर नहीं मिली जो दूसरों की जिंदगी की तकलीफों, परेशानियों और अन्याय की ख़बरें पहुंचाने के लिए दिन रात मेहनत करते रहे। उन्हें तो शायद ये मुगालता भी रहा हो कि वो जिस पेशे में हैं उसमें उनके साथ कुछ गलत नहीं होगा या अगर ऐसा कुछ हुआ तो कम से कम उनके साथ उनकी पूरी की पूरी इंडस्ट्री खड़ी होगी। मगर अफसोस कि वो मुगालते में थे। सच इसके उलट है। साथ खड़े होने, आंदोलन करने और इंसाफ के लिए मुहिम चलाने की बात तो छोड़ दीजिए उनके बारे में, उनके भविष्य के बारे में, उनकी तकलीफों के बारे में लिखना या छापना ना किसी सो काल्ड बड़े पत्रकार ना ही किसी मीडिया संस्थान ने जरूरी समझा।

मुझे पूरा यकीन है कि 400 लोगों के सड़क पर आ जाने, अपने हक के लिए लड़ाई लड़ने की बात मुझे और मुझ जैसे बहुत से लोगों को जरूर पता होती अगर ये लोग दुर्भाग्यवश उस इंडस्ट्री का हिस्सा ना होते जहां सबसे ज्यादा दोगलापन है। ये एक ऐसी इंडस्ट्री है जहां एडिटर टाइप लोग किसी नए रंगरूट को रिक्रूट करते हुए इसे मिशन बताकर कम से कम पैसों में काम करने के लिए बारगेन कर लेते हैं और फिर प्रोफेशन के नाम पर उसका जमकर शोषण करते हैं। मीडिया में कुछ समय गुजारने वाला हर शख्स अच्छी तरह जान जाता है कि उन महान पत्रकारों या महान पत्रकारिता संस्थानों का असली मिशन क्या है जो दुनिया भर में सरोकार की पत्रकारिता का डंका पीटते फिरते हैं। वरना भला ये कैसे मुमकिन है कि दुनिया भर की टुच्ची खबरें दिखाकर और छापकर दर्शकों और पाठकों की नज़र में पत्रकारिता को दो कौड़ी का पेशा बना चुके अखबारों और चैनलों पर 400 से ज्यादा लोगों के भविष्य से जुड़ी खबर को गलती से भी जगह ना मिले।

Advertisement. Scroll to continue reading.

ये मामला सिर्फ पी7 का नहीं है। वीओआई, महुआ न्यूज, सीएनईबी, 4रीयल न्यूज, जीएनएन, सुभारती जैसे न जाने कितने चैनल हैं जिन पर ताला लगने के बाद सैकड़ों लोग सड़क पर आ गए। न जाने कितने लोग खुदकुशी करने की हालत में पहुंचे होंगे। न जाने कितने परिवार भुखमरी के कगार पर पहुंचे होंगे। न जाने कितने ही बच्चों की पढ़ाई-लिखाई छूटी होगी। न जाने कितनों की जिंदगी में हमेशा के लिए कभी ना छंटने वाला अंधेरा दाखिल हुआ जो पत्रकारिता में कुछ कर गुजरने की हसरत लिए आए थे। क्या हुआ उन नौजवानों का जो प्राइवेट मीडिया संस्थानों में लाखों रूपए फीस भरकर,  महीनों आधे दर्जन न्यूज चैनलों में अवैतनिक इंटर्नशिप करने के बाद 10 हजार रूपए की नौकरी हासिल कर पाए थे। पर क्या कभी आपने कहीं किसी चैनल या किसी अखबार में ऐसी खबरों को जगह मिलते देखा। क्या कभी किसी ने बंद होते चैनलों और दांव पर लगती जिंदगियों को लेकर कोई सवाल उठाया।

क्या किसी ने बेरोजगार हुए सैकड़ों लोगों की जिंदगियों में झांककर देखने की कोशिश की कि आखिर ऐसे लोग कहां जाते हैं, क्या करते हैं, कैसे चलती है उनकी जिंदगी जिन्हें एक झटके में न्यूज चैनलों से निकाल दिया जाता है या तालाबंदी की वजह से वो सड़क पर आ जाते हैं? आखिर क्या वजह है कि सरोकार की पत्रकारिता का दंभ भरने वाले एनडीटीवी, टाइम्स नाऊ, आजतक और सीएनएन जैसे बड़े इलेक्ट्रानिक मीडिया संस्थान, ‘नेशन वान्ट्स टू नो’ जैसे जुमलों के जरिए पूरे देश की तरफ से वकालत का ठेका लेने वाले अर्नब गोस्वागी टाइप नामी-गिरामी एडिटर, हाथ मल-मलकर अपनी लच्छेदार बातों के जरिए खुद को अलग और महान दिखाने की कोशिश में लगे रहने वाले पुण्य प्रसून वाजपेयी और सो काल्ड सेंसटिव रिपोर्टिंग के जरिए दर्शकों के दिलों में सेलिब्रिटी पत्रकार का दर्जा हासिल कर लेने वाले रवीश कुमार जैसे पत्रकारों ने इस मामले को इस काबिल नहीं समझा कि वो अपने चैनलों पर इस बारे में कोई मुहिम छेड़ सकें, इस बारे में कोई डिबेट करें या इसे लेकर सड़क पर उतरकर कोई जमीनी रिपोर्ट ही दिखा दें।

Advertisement. Scroll to continue reading.

आखिर इन तमाम लोगों को अपनी ही बिरादरी के लोगों के साथ हो रहा अन्याय क्यों नहीं नजर आता। क्या सच में 400 लोगों की जिंदगी का सवाल इतना मामूली है कि मीडिया अपनी ही बिरादरी के लोगों के प्रति इतना उदासीन रहे? आखिर वो कौन सी मजबूरी है जो इन महान पत्रकारों को पत्रकारिता का धर्म निभाने से रोकती है। क्या सिर्फ इसलिए कि इस मामले में गरीबी-भुखमरी, दलित चिंतन, महिला विमर्श, ह्यूमन राइट्स, माइनॉरिटी फैक्टर या जेंडर सेंसिटिविटी जैसा कोई ‘वेल एस्टेब्लिश्ड’ सोशल कॉज नज़र नहीं आता जो रामनाथ गोयनका टाइप जर्नलिज्म का अवार्ड हासिल करने में अहम भूमिका निभाते हैं। आखिर क्यों, वो तमाम लोग जो मीडिया में बड़े-बड़े ओहदों पर हैं, प्रभावशाली हैं, एडिटोरियल डेसिजन्स लेने में अहम भूमिका निभाते हैं..ऐसे मामलों में सिर्फ और सिर्फ चुप्पी साधे रखते हैं?

बात सिर्फ पत्रकारों और मीडिया संस्थानों की नहीं है। सवालों के घेरे में एनबीए टाइप वो संस्थान भी आते हैं जो टीवी न्यूज चैनलों के स्वघोषित प्रतिनिधि बने फिरते हैं। अगर ऐसे संगठनों की भूमिका और हाल फिलहाल के क्रिया कलापों पर नजर डालें तो आप पाएंगे कि ऐसे संगठन एक इकाई के तौर पर चैनलों के बिजनेस इंटरेस्ट के साथ तो जमकर खड़े होते हैं लेकिन जब मामला उसी चैनल के किसी कर्मचारी का होता है तो वो गांधारी बन जाते हैं। क्योंकि घूम फिरकर हर संस्थान कहीं ना कहीं किसी ना किसी रूप में एंटी एम्लाई कारगुजारियों में संलिप्त होता है। प्रिंट में काम करने वाले पत्रकारों के पास फिर भी ऐसे कई मंच हैं जिन्हें सरकारों और दूसरी विधाई संस्थाओं की मान्यता हासिल है, जो कई बार प्रेशर ग्रुप की तरह काम करते हैं लेकिन दुर्भाग्यवश टीवी में काम करने वाले पत्रकारों के पास ऐसा कोई संगठन नहीं जो उनके हक के लिए आवाज उठाए, जो उनके हितों के लिए चैनल मालिकों के खिलाफ आंदोलन में साथ दे, जो उनकी मांगों को पुरजोर ढ़ंग से उठाकर उन्हें मनवाने के लिए सिस्टम पर कोई राजनीतिक दबाव ही बना सके।

Advertisement. Scroll to continue reading.

पिछले कुछ सालों में न जाने कितने चैनल बंद हुए। कितने बिक गए। कितनों के लाइसेंस रद्द हो गए। हर हाल में चैनल मालिकों और उनके लांचिंगकर्ताओं की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ा। जिन्होंने चैनल का धंधा खोला उनके हित कुछ अलग थे। जिन्होंने उन्हें झांसे में रखकर चैनल खुलवाए उनके हित कुछ अलग थे। चैनल बंद होने से उनके हितों पर कितनी आंच आई होगी ये तो नहीं मालूम पर इतना जरूर मालूम है कि ना तो चैनल खोलने वालों और ना ही खुलवाने वाले महान पत्रकारों, किसी के सामने भी निवाले का सवाल कभी खड़ा हुआ होगा जो पी7 और ऐसे तमाम चैनलों के बंद हो जाने के बाद सड़क पर आ चुके पत्रकारों के सामने है। बावजूद इसके इनके पास ना तो इनके अपनी ही बिरादरी के लोगों का समर्थन हासिल है और ना ही इनके पास अपना कोई संगठन है जिसके जरिए वो अपनी मांगों को मनवाने के लिए कोई दबाव ही बना सकें। मुझे तो ये भी लगता है कि अगर भड़ास4मीडिया जैसा निर्भीक और सही मायने में सरोकार की पत्रकारिता को जिंदा रखने वाला प्लेटफार्म नहीं होता तो शायद ऐसे लोगों के बारे में अपनी तकलीफ-अपना चिंतन रखने तक का कोई मौका ही होता हमारे पास।

खैर, बहुत टाइम वेस्ट कर दिया अपना और आपका। ठंड बहुत है, एक काम करिए रजाई में दुबकिए, अपने फेवरिट न्यूज एंकर का शो ट्यून करिए और चाय की गरम चुस्कियों के साथ आनंद उठाइए..जाहिर तौर पर इंडिया ओनली वांट्स टू नो समथिंग डिफरेंट…व्हिच कैन ओनली बी डिसाइडेड बाइ इंटेलेक्चुअल फायरब्रांड जर्नलिस्ट्स लाइक अर्नब गोस्वामी, फेयर जर्नलिज्म आइकॉन पुण्य प्रसून वाजपेयी एंड हरदिल अज़ीज रवीश कुमार।

Advertisement. Scroll to continue reading.

लेखक विवेक सत्य मित्रम् कई न्यूज चैनलों में वरिष्ठ पदों पर काम कर चुके हैं. उनसे संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है. 

Advertisement. Scroll to continue reading.
Click to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Advertisement

भड़ास को मेल करें : [email protected]

भड़ास के वाट्सअप ग्रुप से जुड़ें- Bhadasi_Group

Advertisement

Latest 100 भड़ास

व्हाट्सअप पर भड़ास चैनल से जुड़ें : Bhadas_Channel

वाट्सअप के भड़ासी ग्रुप के सदस्य बनें- Bhadasi_Group

भड़ास की ताकत बनें, ऐसे करें भला- Donate

Advertisement