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सुख-दुख

राष्ट्रीय सहारा के वरिष्ठ पत्रकार मोहम्मद अली को भी छीन ले गया कोरोना

नवेद शिकोह-

लखनऊ में कोरोना का आकड़ा कम हो रहा है लेकिन पत्रकारों की मौतें नहीं थम रही। बृहस्पतिवार को सुबह युवा पत्रकार अखिलेश कृष्ण मोहन की मौत की खबर आई तो शाम राष्ट्रीय सहारा के वरिष्ठ सहाफी मोहम्मद अली भी चल बसे। चांद रात जब ईद का चांद दिखने की खबर आई तो उसी वक्त पता चला कि लखनऊ की उर्दू सहाफत के चांद को कोरोना की मौत के काले बादलों ने घेर लिया। पत्रकारिता के आसमान का एक और सितारा टूट गया।

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लखनऊ के एरा मेडाकल कॉलेज में कोरोना से लड़ रहे मोहम्मद अली वेंटीलेटर पर थे और उन्हें बचाने की हर संभव कोशिश की गई, लेकिन उन्हें बचाया नहीं जा सका। जन्मभूमि अंबेडकर नगर में उन्हे आज शुक्रवार को सुपुर्द-ए-ख़ाक कर दिया गया।

क़रीब तीस बरस पहले लखनऊ के मशहूर सहाफी हिसाम सिद्दीकी के उर्दू-हिन्दी अख़बार जदीद मरकज़ में मोहम्मद भाई ने सहाफत की शुरुआत की थी। इसके बाद वो राष्टीय सहारा आ गए थे। उन्होंने मुझे ख़ुद बताया था कि करीब पच्चीस बरस सहारा में काम करते रहने के दौरान हर उर्दू अखबार से उनको ऑफर आया लेकिन उनके ज़मीर ने उस सहारा को छोड़ने की इजाज़त नहीं दी जिसने उनके कैरियर को सहारा दिया था।

आग और अवधनामा जैसे तमाम अखबारों ने बड़े ओहदों के लिए उन्हें बुलाया था। इसके अलावा जागरण समूह का हिस्सा उर्दू इंकलाब जब लखनऊ में लॉन्च होने की तैयारी कर रहा था तब इस ग्रुप के हेड शकील हसन शमसी साहब ने भी उन्हें ऑफर दिया था। बावजूद इन सब के बुरे वक्त में भी राष्ट्रीय सहारा का साथ ना छोड़कर उन्होंने अपनी वफादारी साबित की थी।

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वफादारी, ईमानदारी, जफाकारी,बुलंद इख़लाक़ और अदबी शऊर के फरमाबरदार सहाफी मोहम्मद अली की मौत ने फिर साबित कर दिया कि कोरोना ढूंढ-ढूढ कर सबसे कीमती नगीने लिए जा रहा है। खिराजेअक़ीदत!


दया शंकर शुक्ल सागर-

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सहाफ़त की शुरूआत मैंने उर्दू हफ्तेवार अख़बार से की. अख़बार का नाम था ‘जदीद मरक़ज़’ यानी आधुनिक केन्द्र. ये जदीद इस मायने में था कि ये देवनागरी लिपि में उर्दू में निकलने वाला पहला अखबार था। हिसाम भाई उसके एडीटर हुआ करते थे. माशाल्लाह आज भी हैं और खूब लिख रहे हैं. मोदी राज को जितनी लानत मलानत वे भेज सकते हैं भेजते हैं. खैर उन पर फिर कभी.

मुहम्मद अली साहब इसी अखबार में काम किया करते थे. बेहद संजीदा किस्म के नौजवान पत्रकार थे. डेस्क पर कापी जांचा करते थे. हिन्दी और अंग्रेजी खबरों का देवनागरी उर्दू में तर्जुमा किया करते थे. उनकी तबयित में निहायत मासूम सी शराफत थी. जो हर वक्त उनके चेहरे पर झलकती थी. बात करते वक्त वे बार-बार अपनी नाक पोंछते रहते थे जैसे वे अज़ली जुकाम के शिकार हैं. बाद में मुझे पता चला कि ये उनकी अदा थी.

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हमारे एडीटर हम लोगों को बहुत कम तनखवाह दिया करते थे. इतनी कम कि हम एक कमरे का किराया दे सकें और दो वक्त की रोटी का जुगाड़ हो जाए. तब मेरे वालिद नौकरी शुदा थे इसलिए मेरी तनख्वाह से मेरा जेब़ खर्च और पुरानी स्कूटर के पेट्रोल का खर्च निकल जाता था. लेकिन मुहम्मद अली साहब का तो परिवार उन्हीं पर निर्भर था. शायद वे अपने परिवार को गांव में ही रखते थे क्योंकि सारा दिन तो वे दफ्तर में ही रहते थे.

कम तनख्वाह से उनका दिल हमेशा टूटा-टूटा सा रहता था. हमारे एडीटर साहब तो कहा करते थे कि “अखबार निकाल कर मैं कौम की खिदमत कर रहा हूं.” लेकिन मुहम्मद भाई कहते- “मैं तो कौम की खिदमत के साथ-साथ आपकी और आपके अखबार की भी खिदमत कर रहा हूं. मैं अखबार का सब एडीटर हूं कोई साधु या फ़कीर नहीं मुझे भी घर चलाना पड़ता है. मेरे खुदा, इतनी कम तनख्वाह में गुजारा कैसे होगा?”

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वे मुझसे अक्सर कहते कि गलत पेशे में आ गया. इससे बेहतर तो ये होता कि गेहूं पीसने की चक्की लगा लेता. घर में कम से कम रोटी के लाले तो न पड़ते. इसके बाद मैं लखनऊ के “दैनिक जागरण” चला गया जिसके सम्पादक एक थाकड़ पंडित विनोद शुक्लजी थे. और कुछ सालों बाद मुहम्मद भाई भी सहारा के उर्दू अखबार के मुलाजिम हो गए. फोन पर हमारी कभी कभी बात हो जाती थी.

अभी पिछले महीने उनसे बात हुई थी. बड़ी शिद्दत से पुराने खुशनुमा दिनों को याद करते कि कैसे हम सारे पत्रकार और मशीनमैन प्रेस में आधी रात को रद्दी अखबार बिछा कर एक साथ दाल रोटी खाया करते थे. उन सबमें मैं ही हिन्दू था बाकी सारे मुसलमान. कितनी मुहब्बत थी हम सब में. और उस सस्ते से ढाबे के खाने का क्या स्वाद हुआ करता था. एडीटर साहब प्रेस के ऊपर ही अपने परिवार के साथ रहते थे तो कभी-कभी रहमदिल. Saehba Hisam भाभी सालन या कबाब वगैरह भी भेज देती थीं.

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आज ईद के दिन खबर आई कि मुहम्मद भाई नहीं रहे. कोरोना उन्हें भी ले गया. एक और सदमा. सुबह से अकेले कमरे में उदास बैठा हूं. दिल भारी है जैसे किसी ने एक बड़ा सा पत्‍थर छाती पर बांध दिया हो. सोचा मुहम्मद भाई पे एक मर्सिया लिख दूं कि दिल कुछ हल्का हो जाए. पर सच में बहुत मायूस हूं. ये जानते हुए भी इक दिन हम सबको रुख्सत होना है. पर एक नामुराद बीमारी से जिसका कोई इलाज तक नहीं, ऐसे खामोश से चले जाना? खुदा करे मुहम्मद भाई को जन्नत नसीब हो जहां का मालिक खुद खुदा है. मुझे उम्मीद है कि वो अपने मुलाजिमों को ज्यादा बेहतर पगार देता होगा.

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