देहरादून। इस बार भी सहारा मीडिया के तहत निकलने वाले अखबार राष्ट्रीय सहारा में कार्यरत किसी भी कर्मचारी को दीपावली पर भी सालों से दिया जा रहा आधा-अधूरा वेतन भी नहीं मिला। यह हाल तब से है जब से इसके मुखिया सुब्रतो राय गिरफ्तार हुए थे। शुरुआती दिनों में वेतन के मद अनियमित रूप में पूरी तनख्वाह दी जाती रही। फिर आधी कर दी गई और अब दो-तीन साल से स्लैब के अनुसार दी जाने लगी।
प्रबंधन ने दो ग्रुप बना दिया। 30 हजार और 50 हजार का। जिसकी सैलरी 49 हजार है उसे भी 30 हजार मिलेगा और जिसकी लाख-दो लाख है उसे भी 50 हजार। पर इसका भी नियमित पालन नहीं किया जाता। कब सैलरी आएगी यह सुब्रतो राय के अलावा शायद ही किसी को पता रहता हो। हर विषय पर लिख मारने वाले सहारा मीडिया के सर्वेसर्वा उपेंद्र राय के लिए यह विषय ही नहीं है कि वेतन न मिलने वालों की दिक्कत पर भी कभी कुछ लिखें। लिख नहीं सकते तो अपने साप्ताहिक परिशिष्ट हस्तक्षेप में ही लिखवा लें।
बहरहाल…नाममात्र के रूप में दिया जाने वाला अनियमित वेतन भी इस त्योहार पर सहारा ने अपने कर्मचारियों को नहीं दिया। जबकि यह अपने यहां काम करने वाले को कर्मचारी नहीं अपने परिवार का हिस्सा कहते हैं। और यह भी कहते हैं यहां पर कोई मालिक नहीं है सब के सब कार्यकर्ता हैं। अब कोई बताएगा कि अधिकारी रूपी किन-किन कार्यकर्ताओं को वेतन दिया गया और किन-किन को नहीं। यह कोई पहला त्योहार नहीं है। दीपावली ही एकमात्र ऐसा त्यौहार है जिसमें गिरे से गिरा संस्थान भी अपने कर्मचारियों को अच्छे-अच्छे उपहार देता है।
मिठाई तो सब देते ही हैं लेकिन सहारा में यह चलन दशकों से नहीं है। 90 के शुरुआती दशक में मिठाई देने की परंपरा थी। जैसे ही बोनस की गिरफ्त में आये दीपावली की मिठाई बंद कर दी गई। खुद को विश्व का सबसे बड़ा (भावनात्मक) परिवार कहने वाला सहारा साल में एक डायरी देता था बस… जबसे उसके मुखिया जेल गये डायरी ही नहीं डीए बंद, बोनस बंद, सैलरी एडवांस बंद, फेस्टिवल एडवांस बंद, ऊपर से दी जाने वाली धनराशि (चहेतों को ही मिलती थी) बंद, कैंटीन की सब्सिडी बंद, अधिकारियों को दिया जाने वाला कैंटीन का कूपन भी बंद कर दिया गया है। संस्थान अपने कर्मचारियों को स्तर (1+1,1+2,1+3 मतलब एक अपना अखबार सहारा साथ में कोई और) के अनुसार से अखबार देता है। रिपोर्टर के अलावा अधिकारियों को टेलीफोन व कन्वेंश के मद में पैसा।
बड़े अधिकारियों को पेट्रोल के पैसे भी लीटर के हिसाब से दिये जाते थे और कंपनी गाड़ी की सर्विसिंग भी कराती थी। स्थानीय संपादक तक को गाड़ी मिली थी चालक और सहायक अलग से। पर जब से सुब्रतो राय जेल गये एक एक कर सुविधाएं कम होते होते समाप्त हो गई। यही बंद करने के नशे में चूर प्रबंधन ने पे स्लिप देना भी बंद कर दिया है। सूत्रों ने बताया कि, पे स्लिप वहां से तो आती है पर दी नहीं जाती।
गौरतलब है कि सहारा की अन्य कंपनियों/विभागों में नियमित वेतन दिया जा रहा है। सिर्फ मीडिया के कर्मचारियों को ही वेतन से वंचित किया जा रहा है।
बताते चलें कि वेतन न मिलने से सहारा के एक कर्मचारी प्रदीप मंडल ने लखनऊ आफिस की सातवीं मंजिल से कूदकर जान दे दी तो गोरखपुर के रहने वाले एक साथी की भूख से मौत हो गई। कई दिनों से खाना न खाने से उसकी आंते चिपक गई थीं।
इसी तरह राष्ट्रीय सहारा देहरादून में कार्यरत विजय पंवार की १७ वर्षीय बेटी ने इलाज के अभाव में दम तोड़ दिया। तो बड़ी संख्या ऐसे कर्मचारियों की भी हैं जो बीमार हैं लेकिन वेतन न मिलने के कारण अपना इलाज नहीं करा पा रहे हैं।
सहारा मीडिया में काम करने वाले लोग आज दोहरे शोषण के शिकार हो रहे हैं।
- हर कर्मचारी की महीनों की तनख्वाह बाकी है। जो कि लाखों में है।
- वेतन न मिलने से बहुतों ने नौकरी छोड़ दी तो बड़ी संख्या में लोगों को निकाल दिया गया। ऐसे में हरेक को कई लोगों का काम करना पड़ रहा है।
- सालों से वेतनवृद्धि नहीं हुई है।
- कई साल से डीए शून्य है।
- कई साल से बोनस नहीं दिया जा रहा है।
- 10-12 साल से प्रमोशन नहीं हुआ।
- पे स्लिप नहीं दी जा रही है।
- पीएफ का क्या हाल है पता नहीं। खबर है कि, मार्च 2015 से सहारा ने पीएफ ही जमा नहीं किया।
- अखबार का पैसा नहीं दिया जा रहा है।
- आठ-आठ साल से एक नियमित कर्मचारी की तरह काम करने के बावजूद अंशकालिक कर्मचारियों को कन्फर्म नहीं किया जा रहा है।
- ठेके पर सालों साल लोगों से काम लिया जा रहा है।
- कई कर्मचारियों से जबरन इस्तीफा ले लिया गया।
13- रिटायरमेंट के बाद भी किसी भी कर्मचारी को किसी तरह का बकाया नहीं दिया गया।
अरुण श्रीवास्तव
November 11, 2021 at 11:18 am
इ तो बहुतय बुरा है। हम तो समझत रहे कि, मुझे और मुझ जैसों को नौकरी से निकालने के बाद सब कुछ ठीकै होय गवा होइ। जनवरी 16 के अंतिम सप्ताह में जब मैं बिस्तर पर था तो मेरे घर आकर H.R. वालों ने बर्खास्तगी का पत्र पकड़ाया। आंदोलन के दौरान एक समाचार मेरे नाम से लग गया था। प्रबंधन के ऑखों की किरकिरी मैं तभी से हो गया था। तब भी समय से वेतन नहीं मिलता था, मिलता था आधा-अधूरा। वेतन खाता गवाह है। डीए हड़पा (पे स्लिप है मेरे पास)) जाने लगा था। पता नहीं क्यों हर संस्थान में कर्मचारी ही ‘ उधारू के बैल’ समझे जाते है। क्या सहारा समय से अपने कार्यालयों का किराया नहीं देता। बिजली, पानी, टेलीफोन, नेट, समाचार एजेंसी, अखबारी कागज व सामग्री का भुगतान नहीं करता। क्या सहारा को सरकारी विज्ञापन नहीं मिलता। अखबार का दाम तो राष्ट्रीय सहारा ने बढ़ा दिये और पेज भी कम कर दिये फिर भी पैसों का ” टोटा” ? पता नहीं लेखकों को पारिश्रमिक दिया जा रहा है या उनसे भी फोकट में लिखवाया जा रहा है।