रंगनाथ सिंह-
राजनीति की माया निराली! आजतक ने खबर चलायी है कि संघमित्रा मौर्य एक जनसभा से पहले मंच पर मौजूद थीं। वह अपने आँसू नहीं रोक पायीं। यह सभा उसी लोकसभा में थी जिसकी संघमित्रा जी सांसद थीं। उनका टिकट काटकर दुर्विजय शाक्य को दे दिया गया।
संघमित्रा जी आज रो रही हैं लेकिन वे मूलतः अपने पिता के कर्मों का फल भोग रही हैं। उनके पिता हिन्दू धर्म को “मिटा देने” की मुहिम पर हैं। उनका दुर्भाग्य है कि उन्होंने यह बीड़ा तब उठाया जब हिन्दुओं की राजनीतिक शक्ति पिछले 200 साल के सर्वोच्च स्तर पर है।
बेटी होने के नाते संघमित्रा जी पार्टी और पिता के बीच फँसकर रह गयीं। नतीजा ये हुआ कि उनका टिकट कट गया। चूँकि स्वयं उन्होंने ऐसा कोई कृत्य नहीं किया था इसलिए पार्टी में उनकी जगह बरकरार रही। शायद उन्हें यह याद आ गया हो कि जिस सीट के लिए वे प्रचार करने आई हैं, उसपर कभी वे विराजमान थीं।
लव-कुश समाज से आने वाली दूसरी प्रतिभाशाली नेता पल्लवी पटेल भी इस चुनाव में लगभग इसी स्थिति में पहुँच गयी हैं। वह अपने सूबे के मुख्य विपक्षी दल के साथ थीं। उनके भाषणों से लगता था कि उनका भविष्य उज्ज्वल है लेकिन अचानक से उन्होने न जाने किस पिनक में छुट्टा-छुट्टी कर ली और हैदराबादी भाइयों की पार्टी से पार्टनरशिप कर ली! विडम्बना यह है कि यूपी का मीम समाज चाहे-अनचाहे उस दल को वोट देगा जिसे पल्लवी जी छोड़ आई हैं।
यह पोस्ट केवल इसलिए लिख रहा हूँ क्योंकि कुछ साल पहले लगता था कि ये दोनों नेता यूपी के राजनीतिक आकाश पर चमकेंगी। आज अलग-अलग कारणों से दोनों का राजनीतिक करियर गच्चा खाता दिख रहा है।