यशवंत सिंह पत्रकारिता के बुद्ध बहुत पहले बन चुके थे!

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संजय सिन्हा-

काश उसके पास कपिलवस्तु होता!

इस संसार में जो आया है, एक दिन उसे बूढ़ा हो जाना होता है। पता नहीं कब से हम ये सुनते आ रहे हैं। लेकिन समझने वाला एक ही था- सिद्धार्थ।

सिद्धार्थ को जैसे ही ये सच समझ में आया उन्होंने राज-पाट छोड़ दिया। “जब मेरी ये जवानी खत्म ही हो जानी है, जब मेरा शरीर ही एक दिन मेरा नहीं रहने वाला, तो काहे की मारा-मारी? फिर तो जीने का मर्म समझूं, जीवन को समझूं। और सिद्धार्थ ने बुद्ध बन कर दुनिया को जीवन दर्शन दिया।

पर क्या फायदा? हम में से कितनों ने समझा है सच?

यशवंत सिंह एक ऐसे पत्रकार हैं, जो बुद्धत्व की ओर चल पड़े हैं। उन्होंने पिछले दिनों अपनी वेबासाइट पर अपने गांव के एक ऐसे बुजुर्ग का साक्षात्कार किया, जिसे देख कर सचमुच किसी के भीतर बुद्धत्व पैदा हो जाए।

हरिद्वार में गंगा की गोद में यशवंत

उन्होंने एक बुजुर्ग का वीडियो बनाया और लिखा कि उन्होंने अपने बचपन से खुद के जवान होने तक अपने गांव के बाबा शिव प्रसाद सिंह को जवान ही देखा है। उन्हें लगता था कि बाबा शिव प्रसाद कभी बूढ़े होंगे ही नहीं। बाबा को लेकर यशवंत सिंह के मन में ये बात बैठ गई थी कि शिव प्रसाद सिंह जी पर ईश्वरीय कृपा है और जिस तरह का जीवन वो जीते हैं, उसमें उनके पास बुढ़ापे के फटकने की गुंजाइश ही नहीं है।

हम सबने अपने आसपास बहुत से लोगों को बूढ़ा होते देखा है। एक तंदुरुस्त शरीर को जर्जर होते देखा है। हमने लोगों को मरते हुए भी देखा है। पर हमने ऐसा कब सोचा कि ऐसा तो हमारे साथ भी होगा। अगर हमने ऐसा सोचा होता तो क्या हम भी बुद्ध न हो गए होते?

बाबा शिव प्रसाद सिंह

सिद्धार्थ के सिवा दूसरा कोई बुद्ध हुआ ही नहीं। जिस सच को हमने बार-बार देख कर अपने से नहीं जोड़ा, उस सच को देख कर सिद्धार्थ ने एक बार में अपना भविष्य समझ लिया। “ओह! इस सुंदर शरीर का ये हश्र होना है? फिर किसलिए का राज-पाट? किस बात की मारा-मारी? किस तरह की मौज-मस्ती। ये सब तो भ्रम है। माया है। धोखा है।”

सिद्धार्थ एक बार में सच समझ गए। निकल पड़े, सब छोड़ कर। जीवन की तलाश में।

यशवंत सिंह वैसे तो पत्रकार हैं, पर वो पत्रकारिता के बुद्ध बहुत पहले बन चुके थे। जब लोग अपना बायोडेटा लेकर नौकरी मांगने इधर-उधर भटकते रहे उन्होंने अपनी वेबसाइट बनाई। भड़ास के नाम से। ‘जनसत्ता’ ने सबसे पहले अपने अखबार का टैग लाइन दिया था- सबको खबर दे, सबकी खबर ले।

यशवंत सिंह भी भड़ास पर जुट गए सबको खबर देने में, सबकी खबर लेने में। तमाम तुर्रम खां पत्रकार तो अब नौकरी गंवा कर स्वतंत्र पत्रकारिता कर रहे हैं, यू़ट्यूब चैनल चला रहे हैं। यशवंत सिंह ने डेढ़ दशक पहले मालिक वाली पत्रकारिता को लात मार कर अपना काम शुरू कर दिया था। चौड़ा होकर मालिकों को ललकारने लगे थे, हुक्मरानों को आइना दिखलाने लगे थे।

बहुत से पत्रकार या दूसरी विधा के धुरंधर जब मालिकों के तलवे चाट कर भी अपनी रोजी-रोटी गंवाने को तैयार नहीं होते, यशवंत सिंह ने बहुत पहले नौकरी को टाटा बाय-बाय कर दिया था। हालांकि वो किसी ज़माने में प्रिंट मीडिया में बढ़िया काम कर रहे थे, पर किसी बात पर किसी से अटक गई तो उम्र के उसी पड़ाव पर सब छोड़ कर अपनी डफली लेकर निकल पड़े कि अब जो गाऊंगा, राग अपना होगा, जिस उम्र में लोग हथेली को तराजू बना लेते हैं।

मैं यशवंत सिंह से एक ही बार मिला हूं। कुछ साल पहले इंदौर एयरपोर्ट पर। मैं किसी पत्रकारिता कार्यक्रम में शिरकत करने गया था, शायद यशवंत सिंह भी उसी में आए थे। पर अपना तो हिसाब उस कवि की तरह होता है जो अपनी कविता सुना कर खिसक लेता है। तो मैं ठीक अपने भाषण के समय हॉल में गया था और अपना भाषण पूरा कर निकल लिया। हालांकि उस समय मंच पर अपने आशुतोष थे, जो पहले आजतक में थे, फिर आम आदमी पार्टी में। मेरी पसंद के लेखकों और पत्रकारों में उनका नाम शुमार है।

दूसरे पत्रकार मिले थे ‘चैन से सोना है तो जाग जाओ’ वाले भाई- श्रीवर्धन त्रिवेदी। भारतीय मीडिया में जब क्राइम पत्रकारिता का इतिहास लिखा जाएगा तो श्रीवर्धन त्रिवेदी का नाम उसे नई दिशा देने वाले पत्रकारों में शुमार होगा। उनसे शुरू होता है पत्रकारिता का नया अध्याय।

खैर आज बात पत्रकारिता के बुद्ध की।

इंदौर एयरपोर्ट पर मैं जब बोर्डिंग की ओर बढ़ रहा था तो मुझे एक व्यक्ति दिखा, उस मशीन में अपने दोनों पांव दबवाते हुए जो एयरपोर्ट पर रखी गई है और आधे घंटे या पंद्रह मिनट के हिसाब से पैसे लेकर पांव दर्द दूर करने के लिए। बाकी लोग इधर-उधर भाग रहे थे। लोगों को ताड़ रहे थे। पर ये भाई आंखें बंद किए मशीन से पांव दबवाते हुए बुद्धत्व में डूबा था।

हम ठीक बोर्डिंग गेट पर मिले। मैंने ही टोका था। “आप यशवंत सिंह है न?”
“हां।”
“आप संजय सिन्हा?”
“हां।”

मैंने कहा था, “कमाल के पत्रकार हो यार। अगर किसी को पत्रकारिता करनी हो तो आप जैसी करे, नहीं तो यहां भांडगीरी तो हम कर ही रहे हैं।”

वो मुस्कुराए। उन्होंने कहा, “आज दिन बन गया। मैं भी आपकी कहानियां पढ़ता रहता हूं।”

उसके बाद विमान में मैं अपनी सीट पर, वो अपनी सीट पर। फिर हम नहीं मिले।

इसमें कोई संदेह नहीं कि यशवंत सिंह सबकी खैर लेते हैं। इसी खैर लेने के चक्कर में वो एक बार जेल भी हो आए हैं। आदमी जेल के नाम से कांप उठता है, पर यशवंत सिंह ने वहीं से अपनी फोटो रिलीज कराई कि जेल जा रहा हूं। जेल से ही उन्होंने एक किताब लिखी- जानेमन जेल। ये किताब मुझे अपने संजय कुमार सिंह ने दी थी। मैंने पूरी किताब पढ़ी।

कोई संदेह नहीं कि रिपोर्ट लिखने का अपना अंदाज है यशवंत सिंह का। एकदम साफ-साफ। एकदम बेलाग। सामने कोई हो, परवाह नहीं। खांटी पत्रकार।

उनके पास पैसे खत्म हो जाते हैं तो किसी से मांग लेते हैं। कभी शेयर निवेश में थोड़ा कमा लेते हैं तो बाकी लोगों को कमाने का उपाय बताने लगते हैं। कुछ छिपाते नहीं, कुछ छिपने देते नहीं हैं।

पिछले साल कोरोना में जब बीमार पड़ कर बहुत से लोग दुनिया को अलविदा कह रहे थे, उसी समय यशवंत सिंह को भी कोरोना ने धर दबोचा। जितने दिन लिख सकते थे लिखते रहे कि मैं भी फंस गया। खैर, किसी की नज़र इन पर पड़ी तो ये अस्पताल में भर्ती हुए लेकिन वहां भी टिक नहीं पाए। लोगों को मरते देख कर अस्पताल से ही भाग खड़े हुए, वो भी तब जब लोग एक बेड की ख़ातिर पता नहीं किस-किस की सिफारिश लगवा रहे थे। यशवंत सिंह ने मान लिया कि अस्पताल में रहे तो यमराज के दूत छोड़ेंगे नहीं, क्योंकि उन्हें अस्पताल का पता मालूम है।

यशवंत भयंकर कोरोना में अस्पताल से भाग कर घर चले आए और अब साल भर बीतने के बाद उन्होंने इस बात का जश्न मनाया कि वो बच गए हैं।

वो कुछ दिन दिल्ली एनसीआर में रहते हैं, फिर कभी गांव चले जाते हैं या फिर हरिद्वार। जिस तरह उन्होंने अपना सब बहुत पहले छोड़ दिया, उसमें मुझे लगता है कि उनके पास राजपाट लुटाने को होता तो यकीनन वो अपना ‘कपिलवस्तु’ भी लुटा बैठे होते।

अब सवाल ये कि संजय सिन्हा आज उनकी कहानी क्यों सुना रहे हैं? पत्रकारिता का एक नियम होता है, व्हाई टुडे? यानी आज क्यों?

संजय सिन्हा ने जब यशवंत सिंह के गांव वाले बाबा शिवप्रसाद सिंह का इंटरव्यू देखा तो ऐसा लगा कि यशवंत सिंह में अभी वो तत्व बचा है, जिसे हम मनुष्य होना कहते हैं। उन्होंने उस आदमी को कैमरे में समेटा है, जिसकी हम अनदेखी करते हैं। हम तो अपने चेहरे की झुर्रियां तक को नहीं पढ़ते, ऐसे में कोई जो दूसरों की झुर्रियां पढ़ने की कोशिश करे तो उसकी कहानी सुनानी तो बनती है।

अब क्योंकि मीडिया से जुड़ा हर शख्स उनकी वेबासाइट ज़रूर देखता है, चाहे चुपके से सही तो मैं भी समय निकाल कर उनकी वेबसाइट झांक लेता हूं। उसी में मैंने देखा बाबा का छोटा-सा इंटरव्यू। यशवंत सिंह गांव गए थे। वहां उन्हें वो बाबा दिखे जिन्हें कई वर्षों से उन्होंने देखा नहीं था। अरे, ये भी बुजुर्ग हो गए? इन्होंने भी लाठी का सहारा ले लिया? यशवंत सिंह रुकते हैं। वीडियो बनाते हैं। पूछते हैं, कैसे हैं बाबा?

बाबा कांपती आवाज़ में जवाब देते हैं, “ये हाथ अब दुखता है। बहुत दवा खा लिए, ठीक नहीं होता है हाथ का दर्द। अब बिना लाठी के एक कदम नहीं चल सकते।”

यशवंत सिंह कहते हैं, “बाबा, बुढ़ापा में ऐसा तो होता ही है।”
“अरे अब तो उस लोक में जाने का समय आ गया है न!”
“ऐसा न कहें। अभी तो आपको बहुत जीना है।”


संजय सिन्हा हर उस शख्स की कद्र करते हैं, जिसके भीतर मानव होने का थोड़ा भी गुण बचा हो। ऐसे में आज की कहानी समर्पित है लोगों को भड़ास निकालने के लिए अपना मंच देने वाले यशवंत सिंह को। लगभग सिद्धार्थ की उम्र में ही सब छोड़ कर बुद्ध बनने की ओर चल पड़े एक पत्रकार को।

आज जब लोग एक मालिक की टेढ़ी नज़र तक का सामना नहीं कर पाते, यशवंत सिंह मालिक, सरकार, प्रशासन, पुलिस और यहां तक कि पत्रकार साथियों तक की टेढ़ी नज़र को अशरफी मानते हैं।

टेढ़ी नज़र अशरफी श्रीवल्ली…

जय हो।

#ssfbFamily #SanjaySinha

लेखक संजय सिन्हा फ़ेसबुक के बेहद लोकप्रिय स्टोरीटेलर हैं। वे आजतक समूह समेत कई बड़ी मीडिया कंपनियों में संपादक रहे हैं। सोशल में मीडिया में संजय के लाखों फ़ॉलोअर हैं। उनके नाम रोज़ाना एक कहानी लिखने का अदभुत रिकार्ड है। उनकी कहानियों की कई किताबें भी आ चुकी हैं। आज की उपरोक्त कहानी पर आई ढेरों प्रतिक्रियाओं को देखने पढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें- https://www.facebook.com/1133687907/posts/10226338167497242/?d=n

उपरोक्त पोस्ट पर यशवंत की टिप्पणी-

क्या कहूँ। निःशब्द हूँ! आज आँख ही खुली उस फ़ोन से जिसमें आप द्वारा लिखी कहानी में मेरा ज़िक्र होने की जानकारी थी। … और अभी थोड़ी देर में थाने निकलना है, अपने पर लगे एक फ़र्ज़ी मुक़दमे में जाँच का सामना करने। वकील ले जाने की बजाय अकेले जाऊँगा। जेल या हरिद्वार। बस दो रास्ते हैं। कभी एक पाँव रेल और एक जेल का नारा लगता था देश में। आपकी कहानी में खुद एक किरदार बनना गर्व की बात है। Sanjay Sinha जी को और #ssfbfamily के परिजनों को सलाम प्रमाण। आपकी उस बारीक नज़र और गहन संवेदना को भी सलाम जो चुपचाप बहुत सारे डिटेल्स प्रासेस करती रहती है.

एक अन्य जगह यशवंत की टिप्पणी-

आज तो दिन बना दिया संजय सिन्हा जी ने! संजय जी हमारे दौर के चर्चित स्टोरी टेलर हैं.. आजतक ग्रुप समेत कई बड़ी मीडिया कंपनियों में संपादक रहे हैं… फ़ेसबुक पर उनका एक विशाल परिवार है… #ssfbfamily डालकर फ़ेसबुक पर सर्च करते ही उनकी और उनसे जुड़ी पोस्ट्स कहानियाँ मिल जाएँगी… आज की उनकी कहानी में एक किरदार होना मेरे लिए गर्व की बात है… आज आँख ही खुली उस फ़ोन से जिसमें संजय जी द्वारा लिखी कहानी में मेरा ज़िक्र होने की जानकारी थी। अभी थोड़ी देर में थाने निकलना है, अपने पर लगे एक फ़र्ज़ी मुक़दमे में जाँच का सामना करने। वकील ले जाने की बजाय अकेले जाऊँगा। जेल या हरिद्वार। बस दो रास्ते हैं। कभी एक पाँव रेल और एक जेल का नारा लगता था देश में। अब न नारे हैं न आंदोलन! बस भय और उत्पीड़न है! संजय जी की आज की कहानी का लिंक ये है- लिंक ये है… https://www.facebook.com/1133687907/posts/10226338167497242/?d=n पढ़िए और संजय जी को फ़ॉलो करिए… वे कहानियों के ज़रिए कई क़िस्म के काम करते हैं.. प्रेरित करना, सवाल उठाना, भंडाफोड़ करना, सकारात्मक सोच बनाना…



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