Sant Sameer : तो आज मेरी ज़िन्दगी ने भी उम्र के छियालीस पड़ाव पार कर लिए। यह भी कमाल ही है। एक वक़्त था कि डॉक्टरी अनुमानों के हिसाब से मुझे तीस बरस के आसपास की ज़िन्दगी जीनी थी, पर ये अतिरिक्त सोलह बरस किसी तोहफ़े से कहाँ कम हैं! मेरी कम्पनी ने दिया हो न दिया हो, लेकिन ज़िन्दगी ने भरपूर बोनस दिया है। कहने वाले कह सकते हैं, तक़दीर का फ़साना। क़िस्मत में जीना बदा हो तो डॉक्टरों के फ़तवे किसी का कुछ नहीं बिगाड़ सकते; लेकिन दोस्तो! ज्योतिष के पण्डितों ने जो कहा, मैंने अकसर उसका उल्टा किया।
क़िस्मत के हाथों ज़िन्दगी की लगाम थमा दी होती तो शायद ये पंक्तियाँ लिखने के लिए आज आपके बीच मौजूद न होता। बाँह में बँधा वह तावीज़ ही था, जिसे मैंने क़रीब पन्द्रह-सोलह बरस की उम्र में तोड़ फेंका था और भाग्य के बजाय अपने उस निर्माता पर भरोसा करना शुरू किया था, जिसने मुझे इस दुनिया में भेजा। इस भरोसे ने ही मुझे एक दिन अपना ख़ुद का डॉक्टर बना दिया।
यह सच है कि हममें से किसी ने भी अपने-आपको नहीं बनाया, इसलिए जीवन की डोर भी हमारे ख़ुद के हाथों में नहीं हो सकती, लेकिन जिसने भी हमें इस दुनिया में भेजा है, उसने बा-हैसियत भेजा है। आख़िर उसकी दी हुई अपनी इस बेशक़ीमती हैसियत को क़िस्मत नाम की किसी ऐसी चीज़ के हाथों में हम क्यों सौंपें, जिसके बारे में किसी को कुछ नहीं पता। मैं समझता हूँ कि मौत का आ जाना कोई क़िस्मत की बात नहीं है, यह कुछ चीज़ों का निश्चित परिणाम है।
मौत आए तो स्वागत कीजिए, हो सके तो किसी उत्सव की तरह। रोनेवालों को भी रो लेने दीजिए, आख़िर उनका भी आप पर कुछ हक़ है। ख़ैर, क़िस्मत के भरोसे अपनी क़िस्मत सँवार चुके लोगों का दिल दुखाने का मेरा कोई इरादा नहीं है।
कादंबिनी मैग्जीन में कार्यरत पत्रकार संत समीर की एफबी वॉल से.
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