सुशोभित-
मैंने सुना है, अज्ञेय मृत्यु शैय्या पर थे। चिकित्सक हाल पूछने आए। पूछा, क्या दर्द हो रहा है? उन्होंने कहा, हां। फिर पूछा, बहुत पीड़ा है? वो बोले, हां, बहुत है। चिकित्सक ने कहा, असहनीय है? इस पर अज्ञेय बोले, नहीं, असहनीय नहीं है, क्योंकि सहन तो कर ही रहा हूं। असहनीय होता तो सहन न कर पाता। कहिए कि तीव्र (severe) कष्ट है, असहनीय (unbearable) नहीं है!
मृत्यु शैय्या पर भी अज्ञेय भाषा के प्रति सावधान थे!
अज्ञेय ने पूरा जीवन भाषा का सधा हुआ, सचेत व्यवहार किया। टकसाल में ढले शब्द बोले, हवा में चिंदियां न बिखेरी। लेखक होने का यही अर्थ है कि हर शब्द के पीछे मनन दिखे, यों ही कुछ भी न कह दें। एक एक वाक्य में परिश्रम हो, सत्य का शोध हो। और हर शब्द के लिए एक उत्तरदायित्व, कि कोई पूछ बैठे यह शब्द क्यों लिखा तो लेखक विस्तार से उसके संदर्भों को आलोकित करने में सक्षम हो।
‘असहनीय’ शब्द निरर्थक है। बहुत सारे शब्द निरर्थक हैं। जैसे अप्राकृतिक, यह निरर्थक है। क्यूंकि जो भी घटित हो सकता है वो सब प्राकृतिक है, अन्यथा वो हो नहीं सकता था। भौतिकी के नियम अनुमति नहीं देते। लेकिन हम अवांछनीय या अनुचित को अप्राकृतिक बोलते हैं।
जैसे अकाल मृत्यु शब्द निरर्थक है। all deaths are natural. But the unwanted or unexpected one’s are called Akaal. Although it should not be unexpected.
मनुष्य का इतिहास भाषा की लापरवाही, उसकी तंद्रा का इतिहास है। लोग प्रेम और ईश्वर जैसे अनेक शब्दों का उपयोग करते हैं बिना उनके अभिप्राय या context पर विचार किए। इसकी भी एक थ्योरी है कॉग्निटिव साइंस में कि मनुष्य कैसे चीज़ों का शॉर्ट कट चुनते हैं, भाषा में भी।
जो भाषा के प्रति सचेत हो गया उसको फिर एक नए विश्व का अन्वेषण करना पड़ता है, पुराना अप्रासंगिक हो जाता है क्योंकि वह एक्यूरेट नहीं होता। उसकी टेक बन जाती है यह पूछना कि what does it mean to be this or that…
Pkumar
August 28, 2022 at 5:40 pm
वाह। बहुत बढ़िया।