सिद्धार्थ ताबिश–
बचपन में जब लोगों को ये कहते मैं सुनता था कि फलाने की शादी में जाएंगे अच्छा अच्छा खाएंगे.. या लोगों को शादी से आने के बाद वहां के खाने, यानि क्या अच्छा बना, क्या ख़राब बना था, बताते हुवे सुनता था तो मुझे लगता था कि शायद ये लोग बहुत गरीब हैं और इनके घर में अच्छा खाना नहीं बनता है.. मुझे लगता था कि तभी ये लोग इतनी ठंडक में रात में कहीं शादी पर सिर्फ़ इसलिए जाते हैं क्योंकि इन्हें अच्छा खाना खाना होता है और खाने का पंडाल खुलते ही ये अच्छी अच्छी डिश पर कुत्ते बिल्लियों की तरह टूट पड़ते हैं
फिर जब मैं बड़ा हुआ तब ये समझ आया कि शादियों में सिर्फ़ खाना खाने के लिए जाने वाले दरअसल आर्थिक रूप से गरीब नहीं बल्कि मानसिक गरीब ज़रूर होते हैं.. और ये स्थिति भारत के लगभग समस्त मध्यम वर्गीय परिवारों की है
भारत में अभी भी शादी में जाना, या किसी भी फंक्शन में जाना, अच्छा खाना और ठूंस कर खाना ही मकसद होता है.. मिलना जुलना क्या होता है.. इंसानों को समझना और आपस में उनसे बातें करना क्या होता है ये अभी भारतीयों को आया ही नहीं है.. ये मिलते भी हैं तो बस ये देखने के लिए कि किसने कितने का कपड़ा या जूता पहना हुआ है.. औरतें सदियों की ठिठुरन में चमकीली साड़ियां पहन कर उसके ऊपर एक किलो सोने के गहने लाद कर शोपीस बनकर आती हैं.. इन्हें अभी भी ये लगता है कि इनके गहने देखकर हर कोई इन्हें अमीर समझेगा.. और इन्हें ये भ्रम होता है कि चमकदार लाल सुनहरी साड़ियां पहनकर और उस पर सोना पहन कर ये बड़ी सुंदर दिख रही हैं जबकि सोने के गहने लादे हुवे औरत मुझे सबसे भद्दी दिखती है.. मगर ये मध्यम वर्गीय सामाजिक मिलन की समझ होती है.. अच्छा खाना और गहनों की नुमाइश इनके हिसाब से मिलन समारोह होता है
मैं शादियों में जब जाता था पहले तो मैं लोगों से बात करना और उनके बारे में और जानने में उत्सुक होता था मगर लोग बस एक दूसरे के बारे में और एक दूसरे की बुराई में ही उत्साह दिखाते थे.. और जैसे ही खाना खुलता था वो सारे रिश्ते नाते छोड़कर कुत्तों की तरह खाने पर टूट पड़ते थे.. और सब अच्छा और तर माल अपने परिवार और बच्चों के मुंह में ठूंसने लगते थे और बस खाना खत्म होते ही ऐसा भागते थे जैसे बस ये खाने ही आए थे
अभी भी कुछ दिन पहले सालों बाद मैं एक शादी में गया तो देखा कि अभी भी सब जस का तस है.. वही लोग वैसे ही खाने के लालची और बस खाने और कपड़े की ही प्रदर्शनी के लिए आए हैं.. किसी को किसी से मिलने या जुलने का कोई मोह नहीं.. मगर इन सब से अगर आप पूछें तो ये आपको रिश्ते और परिवार की महत्ता पर पूरी रामायण सुना देंगे
अच्छा खाना अपने घर में बना के खाना सीखिए.. और अच्छा खाना हो तो अच्छे होटलों में चले जाइए.. अपने जीवन की प्राथनिकता का वर्गीकरण करना सीखिए.. किसी समारोह में जाने का मकसद होता है लोगों से मिलना और उनके सुख दुख जानना.. शादी में जाने के मकसद होता है वर वधू को आशीर्वाद और प्रेम देना और उनके घर वालों के साथ उनकी खुशियां बांटना.. खाना तो आप घर पर भी खा सकते हैं.. अब भारत में सूखा नहीं पड़ता है और आप के जीन में भुखमरी की जो कोडिंग हो चुकी है सदियों से उस से बाहर निकालिए.. शादी में खाना अच्छा है तो खा लीजिए मगर शादी में जाने का मकसद अगर आपका सिर्फ़ “खाना” ही है तो इस से बचिए.. घर बैठिए और इस पर चिंतन कीजिए और इस “मानसिक गरीबी” से ख़ुद को और अपनी आने वाली पीढ़ियों को बाहर निकालिए.. इंसान बनने की कोशिश करना शुरू कीजिए अब।
भारत का मध्यम वर्ग शादी जैसे ग़ैर ज़रूरी समारोह के चलते अपने सारे जीवन में कभी चैन से रह नहीं पाता है.. एक पिता के अगर दो बेटियां हैं और एक दो बेटे हैं तो वो सारी उम्र सिर्फ शादी के लिए पैसे जोड़ने में ही मर जाता है.. और वो भी किस लिए? बस ज्यादा से ज्यादा लोगों को अपने घर बुला के खाना खिलाने के लिए।
सोच के देखिये कि ये कितनी बड़ी बेवकूफ़ी है कि एक लड़का और लड़की का मिलन हो रहा है और जीजा से लेकर बुवा सब नाच रही हैं.. सारा घर कर्जे में डूबा जा रहा है इन लोगों के नाचने और खाने के इंतज़ाम करने में.. और इसे ये सारे लोग अपनी “नियति” समझते हैं.. बड़े बड़े गीत लिखेंगे ये शादी पर.. और इस फूहड़ परंपरा को दैवीय बताएँगे।
आप पिता को कहते पायेंगे कि आज लड़की ब्याह के बड़ा बोझ उतर गया.. सोचिये कि किस तरह का बोझ था भला? कोई बोझ नहीं, बस ख़ानदान भर के नाचने और खाने का इंतज़ाम करने का बोझ था.. लड़का और लड़की को बस एक “कमरा” चाहिए होता है सुहागरात के लिए, जिसका कोई खर्चा नहीं होता है.. जितने भी खर्चे हैं सब फूहड़ और बेवकूफी भरे.. और इसी में वो पिता कर्ज़े में डूब जाता है.. शादी का समारोह ऐसा सामाजिक फूहड़पन है जिसका न तो कोई प्राकृतिक औचित्य होता है और न ही सामजिक.. लड़का और लड़की अपने आप मिल कर कोर्ट में शादी कर लें तो यही बुवा और जीजा दोनों के जान के दुश्मन बन जाते हैं.. हाँ अगर ये एक लड़का चुन के लड़की को उसके साथ “सोने” के लिए भेज देते हैं तब ये नाचते हैं, गाते हैं और घर वालों का लाखों रूपया ख़र्च करवा के उनको कर्जे में डुबा देते हैं।
और तमाम लोग जो शादियों में इक्कट्ठा होते हैं उन्हें लगता है कि इस लड़का लड़की के पर्सनल मिलन में उनका भी कोई हाथ या योगदान है.. दुल्हे की बहन अगर दुल्हे के साथ उसकी गाड़ी में न बैठ पाए तो लड़ने लगती है.. फूफा को अगर अच्छी वाली कार में जगह न मिले तो वो मुहं फुला लेते हैं.. सोचिये थोडा कि इस बहन और इस फूफा के लिए दुल्हे और दुल्हन के इस मिलन का क्या अर्थ है? कुछ नहीं.. इन्हें बस खाना है, कार में दुल्हे के बगल में बैठ के जाना है.. लड़की के यहाँ घमंड से उतरना है.. लड़की वालों की हर एक बात पर मुहं टेढा करना है.. फिर घर आके सबको ये बताना है कि किस इंतज़ाम में क्या कमी थी.. फिर सास और बाकी लोगों को मिलकर गाहे बगाहे दुल्हन को ज़लील करना है.. फिर लड़ाईयां करनी है.. सारी उम्र ये ताने मारना है कि फलाने को ये मिला तुमको क्या मिला दहेज़ में.. समझ पा रहे हैं आप? एक लड़का और लड़की का मिलन था, बड़ा ही व्यक्तिगत और इन सब रिश्तेदारों के लिए उस मिलन का क्या अर्थ था? ये बेवकूफी भरे अर्थ थे.. क्या इन सबका दुल्हे की कार या बरात में कोई काम था? नहीं.. कोई भी नहीं.. लड़का लड़की का बस एक पर्सनल मिलन है जिसमे इनमे से किसी का भी कोई भी रोल नहीं होता है.. मगर इन सबने ज़बरदस्ती अपना रोल उसमे निकाल रखा है और इसे ये संस्कृति, परंपरा और जाने क्या क्या नाम देते हैं।
बुवा बोलेगी कि उसे अपने भतीजे की शादी का अरमान है.. बहन बोलेगी कि उसे अरमान है.. मगर दरअसल किसी को कोई अरमान नहीं होता है.. ये सब ऐसा एक “नशे” और “मूर्छा” के तहत बस बोलते हैं.. अपनी शादी का अरमान सिर्फ़ और सिर्फ़ किसी लड़के लड़की को व्यक्तिगत होता है.. और किसी को नहीं.. बाकी जितने ये सब बोलते हैं वो सामाजिक दबाव, मूर्छा और बेवकूफ़ी के तहत बोलते हैं.. ऐसा बोलना इनकी “सामजिक आदत” होती है बस.. और लड़के लड़की सच में समझने लगते हैं कि उनके अपनों को उनकी शादी का अरमान है.. बहन को बस गाड़ी में चौड़े होकर बैठ के जाने और एक दिन के लिए अपने “घमंड” को पोषित करना होता होता है.. मां को घर में एक लड़की ला कर उस से झाड़ू पोछा करवाने का अरमान होता है.. ससुर को सुबह समय से चाय मिलने का अरमान होता है.. सबको इसी तरह के बेवकूफ़ी भरे अरमान होते हैं.. और इनके अरमान तब चूर चूर होते हैं जब लड़का दिन रात अपने बीबी के साथ कमरे में रहने लगता है, उसे चाहने लगता है और सब कुछ उसी के लिए करने लगता है.. तब ये बहन से लेकर सास तक सब बेचैन हो जाती हैं.. क्यूंकि इन्हें इस बात का तो “अरमान” था ही नहीं.. इन्हें जो अरमान था वो तो हो ही नहीं रहा है.. इन्होने लड़का और लड़की के मिलन का सोचा ही नहीं था.. ये सोचते थे कि सुहागरात के बाद दुल्हन कमरे से निकलकर इनके लिए अच्छे अच्छे पकवान बनाएगी, इनकी सेवा करेगी।
मगर जब ऐसा कुछ होता नहीं है फिर उस लड़के को “नकारा” और “जोरू का गुलाम” बता कर घर के दूसरे किसी लड़के को बोलने लगती हैं कि अब हमें “तेरी शादी का अरमान” है बेटा.. इनके ये “अरमान” न कभी पूरे हुवे हैं न पूरे होंगे.. क्यूंकि “शादी” सिर्फ़ और सिर्फ़ एक लड़का और एक लड़की का व्यक्तिगत “अरमान” होती है.. भीड़ का नहीं।
Daya chand yadav
January 7, 2023 at 3:59 pm
सत्य वचन।