हेमंत शर्मा-
सुकुल जी की कलम… अपने सुकुल जी यानी Shambhunath Shukla जी विलायत से लौट आए। और उससे भी बड़ी खबर है कि बिना चाल चरित्र से च्युत हुए लौटे है।पंडित जी जिस बह्मचर्य के तेज के साथ गए थे वैसे ही लौटे हैं।हमारी रवायत में सात समंदर पार से लौटने पर व्यक्ति जबतक भोज-भात करा प्रायश्चित न कर ले तब तक वह बिरादरी में शामिल नहीं हो पाता था।अब भोज भात की जगह उपहार ने ले ली है। बाकियों का तो मैं नहीं जानता पर मेरे लिए सुकुल जी एक खूबसूरत कलम और विलायती चॉकलेट ले आए। वह भी दुनिया की सबसे क़ीमती कलम ‘मोंब्ला’ की। सुकुल जी का यह स्नेह मेरे लिए कलम से भी ज़्यादा क़ीमती है।मैं यह भेद इसलिए नहीं खोल रहा हूं कि आप सब भी उनसे तगादा करे की मेरे लिए क्या लाए।
मैं इस पचडे में नहीं पड़ना चाहता कि सुकुल जी किसके लिए क्या लाए हैं।कनाडा के प्रति वे इतने आसक्त हो गए थे कि वही आ गए यही बहुत बडी बात है। पर सुकुल जी ने वर्षों बाद मेरे हाथ में कलम पकड़ा कर फिर से कलम से लिखने का दबाब मेरे उपर जरूर बनाया है।हंलाकि मुझ पर लिखने का दबाव वे हमेशा से बनाते रहे हैं। सुकुल जी जनसता में मेरे समाचार संपादक रहे हैं। हर शाम मुझसे ही लिखवाते थे। हेमंत जी आज कोई बॉटम स्टोरी नहीं है। कुछ लिख कर जल्दी भेजिए।
रिपोर्टर के नाते मुझे कभी यह शिकायत नहीं रही कि मेरी रपट नहीं छपी या पहले पेज पर नहीं छपी। या फिर कम महत्व से छपी।मेरी रपटें हमेशा पहले पन्ने पर बॉटम स्टोरी के तौर पर ही छपती थी।एक साल तो ऐसा हुआ की साल में कुल 365 दिनों में दो सौ से ज़्यादा दिन मेरी ही बॉटम स्टोरी छपी।
हम भटक गए।बात सुकुल जी द्वारा लाई गयी कलम की हो रही थी।वैसे इन दिनों कलम का रिवाज ख़त्म होता जा रहा है।अब ज़्यादातर की-पैड से ही काम चलता है। पर मैं कलम का विकट क़िस्म का प्रेमी हूँ। दुनिया की सभी पुरानी और मशहूर कलमों का बड़ा संग्रह मेरे पास है। इंग्लैंड से लाकर एक कलम मुझे प्रभाष जी ने और एक मेरे पिताजी ने भी दी थी।दोनो मेरे संग्रह की बहुमूल्य कलम है।यह बात सुकुल जी को कैसे पतामालूम नहीं। सुकुल जी द्वारा लायी गयी ‘मोंब्ला’ कलम तन्वंगी नायिका की तरह खूबसूरत और बेजोड है।
दरअसल जर्मन में मोंटब्लैंक’ को मोंब्ला पढ़ा जाता है। वह दुनिया में कलम बनाने की सबसे बड़ी कम्पनी है। लग्जरी प्रोडक्ट बनाने वाली यह जर्मन कंपनी पेनों के अलावा घड़ियां, पर्स और दूसरी एक्सेसरीज भी बनाती है। मोंब्ला के पेन काफी महंगे होते हैं इसलिए इन्हें रखना शान की बात समझी जाती है। दुनिया के तमाम पावरफुल लोग इसी पेन का इस्तेमाल करते हैं।
मोंटब्लैंक पेन की कहानी 1906 में शुरू हुई जब बर्लिन के August Eberstein नाम के एक डिजाइनर ने हैम्बर्ग के बैंकर Alfred Nehemias के साथ साझेदारी कर आम फाउंटेन पेन की एक श्रृंखला विकसित की। जल्द ही उनकी कंपनी का अधिग्रहण तीन ऐसे व्यक्तियों द्वारा कर लिया गया जो मोंटब्लैंक को विश्वव्यापी ब्रांड बनाने की महत्वाकांक्षा रखते थे। ये तीन महाशय थे। Wilhelm Dziambor, Christian Lausen और Claus Johannes Voss।
1908 में कंपनी ने खुद को ‘उच्च श्रेणी के सोने से बने फाउंटेन पेन के निर्माता’ के रूप में गढ़ा। 1908 में इसका नाम बदलकर “Simplo Filler Pen Co.” कर दिया गया। मोंटब्लैंक का ट्रेडमार्क 1910 में पंजीकृत किया गया था, जो पश्चिमी यूरोप के सबसे ऊंचे पर्वत ‘Mont Blanc’ से प्रेरित था। यह नाम गुणवत्ता और उत्कृष्ट यूरोपीय शिल्प कौशल के लिए बाद में जाना गया ।1913 में मोंट ब्लैंक की बर्फ से ढकी चोटी का प्रतिनिधित्व करने वाला एक गोलाकार सफेद सितारा, मोंब्ला कंपनी का आधिकारिक लोगो बना।जो अब विलासिता और गुणवत्ता का प्रतीक है। मोंब्ला ने प्रसिद्ध ‘Meisterstück’ पेन 1924 में लॉन्च किया और मोंटब्लैंक फाउंटेन पेन मॉडल जल्द ही अपने समय का स्टाइल आइकन बन गया। 1920 के दशक के अंत तक, मोंटब्लैंक एक अंतरराष्ट्रीय ब्रांड बन गया था, जिसे 60 से अधिक देशों में जाना जाता था।आज दुनिया भर में साढ़े चार सौ से ज़्यादा उसके बुटीक स्टोर्स हैं।
1929 में, Meisterstück की निब पर 4810′ नंबर उकेरा गया था, यह Mont Blanc पर्वत की ऊंचाई बताता था जो 4,810 मीटर ऊंचा है।Meisterstück आज मोंटब्लैंक का luxury flagship पेन है। जिसकी कीमत एक लाख से भी ज्यादा है। मोंटब्लैंक को 1977 में Alfred Dunhill Ltd द्वारा अधिग्रहित किया गया।जिसके बाद इसकंपनी की पेन श्रृंखला से कम कीमत वाले पेनों को हटा दिया गया और महंगे पेनों के अलावा फैशन के सामानों की एक विस्तृत श्रृंखला बनाई जाने लगी। 1993 में मोंटब्लैंक Swiss Richemont group का हिस्सा बन गया। Swiss Richemont group स्विट्जरलैंड स्थित लक्ज़री वस्तुएं बनाने वाली ख्यात कंपनी है।
कलम सबसे पहले चाहे जिसने बनायी हो। पर लिखने की कला पहले पहल हमारे देश में ही विकसित हुई। यह सवाल मौंजू है कि पहले अक्षर बने या स्याही। पहले लिखना सीखा गया या लिखने के औजार गढ़े गए। इसका इतिहास किसी उलझी हुई लिखावट की तरह है।
लेखनी का सबसे रोचक किस्सा स्याही का है क्योंकि इससे पहले लिखने की दुनिया पत्थरों और लकड़ी पर कुछ शब्द या चित्र उकेरने की थी।स्याही बाद में आयी दुनिया लिखने की स्याही को आज भी ‘इंडियन इंक’ के नाम से ही जानती है। आज भी कलाकार, सुलेखक, टैटू बनाने वाले जिस स्याही का इस्तेमाल करते हैं पश्चिम में उसे इंडियन इंक ही कहा जाता है।भारतीय लिखना पहले से जानते थे।
स्याही का किस्सा इसलिए मज़ेदार है। क्योंकि इसकी मदद से दुनिया को सबसे लंबे वक्त तक चलने वाली लेखनियां मिली। यानी सरकंडे की कमलें और पंख (क्विल) की कलम।और लेखन का प्रतीक बन गया पंख और स्याही की दवात।
चीन में ईसा से करीब 2700 साल पहले तियान चू नामके एक दार्शनिक हुए।वे खोजी आविष्कारक भी थे। उन्होंने पाइन के पेड़ की राख,केरोसिन ,जानवरों की खाल और जिलेटिन को मिलाकर स्याही बना दी।स्याही को स्थायी रखने के लिए ही उसमें जिलेटिन मिलाया गया।
भारत में ‘मसि’ का प्रयोग पहले से होता था। यह भी राख कोयले और जिलेटिन मिलाकर बनाई जाती थी।वेद पुराण और सारे प्राचीन ग्रंथ इसी से लिखे गए तुलसी ने रामचरितमानस में लिखा- “धूम कुसंगति कारिख होई लिखिय पुरान मंजु मसि सोई”। कबीर ने लिखा मसि कागद छुयौ नहीं कलम गहि नहीं हाथ। चीन के लोग भी पेंटिंग बनाने के लिए ऐसी ही स्याही का इस्तेमाल करते थे। चीन की चित्रलिपि के पुराने ग्रंथ ऐसी ही स्याही से लिखे गए हैं।भारत में इससे वनस्पति पत्रों (ताड़पत्र, भोजपत्र ) पर ग्रंथ लिखे गए।करीब 1500 वर्षों तक बौद्ध यात्रियों के ज़रिए चीन और भारत के बीच स्याही का आवागमन चला।पंख और सरकंडे की कलमों से स्याही ज्ञान की रोशनाई बन गयी।
स्याही का इंडियन इंक वाला अवतार 16वीं सदी में आता है। ब्रिटिशों ने इसे भारत से आयात करना शुरु किया। यह चीन और भारत की मिलीजुली स्याही थी। इंडो-चाइनीज उत्पाद जिसे ‘इंडियन इंक’ के नाम से जाना गया।लंदन की ऐतिहासिक इंक कंपनी विंनसर न्यूटन 1832 में बनी।जिसने स्याही कला के नाम से प्रसिद्धी पाई । मशहूर डिजाइनर माइकल पीटर्स ऑब ने इस कंपनी के लिए इंडियन इंक की पैकिंग बनाई। जिस पर एक स्पाइडर अपने असंख्य पैरों से स्याही का इस्तेमाल कर लिख और चित्र बना रहा है। 1973 की यह पैकेजिंग डिजाइन दुनिया के सबसे मशहूर कृतियों में से एक है।
स्याही से आने पहले लेखन,उकेरने की कला से चलता था। गुहा मानव जिन पत्थर, हथियारों या औजारों से शिकार करता था। खालें उतारता था। उसी से गुफाओं में चित्र बनाता था।ईसा से कोई 6000 साल पहले सुमेरियन लोग नुकीली छड़ों से गीली मिट्टी से पत्थर की पट्टी पर लिखते थे। लेकिन मिट्टी से कागज तक पहुंचने में समय नहीं लगा। यह ‘पपायरस’ था। पपायरस का पौधा नील नदी के किनारे होता था ईसा पूर्व प्राचीन इजिप्ट मे इससे कागज बनता था। 79 ईसवीं ने प्लिनी द एल्डर ने अपने संस्मरणों में पपायरस बनाने की प्रक्रिया का ब्योरा बताया है। यह कागज इतना मजबूत था। कि इसपर रीड यानी सरकंडे की कलम ही इस्तेमाल होती थी । ईसा से 100 साल पहले तक शायद चीन की स्याही या इसकी तकनीक इजिप्ट में पहुंच गई थी।अब लेखन के लिए नुकीले औजार पीछे कहीं छूट गए थे।
तुर्की में कलम शब्द ग्रीक के कलामोस से आता है। ग्रीक सरकंडे की कलम के लिए इस शब्द का प्रयोग करते थे। यह शब्द पहले अरबी में आया और फिर तुर्की भाषा में। लेखन को सबसे लंबी लेखनी का साथ मिला पंख या क्विल के तौर पर। क्विल या पंख दुनिया की सबसे लंबे समय तक चलने वाली कलमें रहीं। करीब 1000 साल तक दुनिया को पेन की जरुरत नहीं पड़ी इन्हीं पंखों से मंत्र भी लिखे गए कवितायें भी,मोहब्बत की चिट्ठियां भी और मौत की सजाओं के फरमान भी । करीब 8-9 इंच के पंख को स्याही में डुबाकर 19 वीं सदी तक दुनिया की सबसे प्रसिद्ध रचनायें लिखीं गई।
बर्मिघम के जॉन मिशेल ने 1822 में पहली धातु की निब वाले पेन का बड़े पैमाने पर उत्पादन शुरु किया।निब के उपर एक बड़ा हैंडल होता था जिसे दवात में डुबाया जाता था।बाद में रोमानिया के पेट्राश पोएनरो ने फाउंटेन पेन बनाया जिसे 1827 में फ्रेंच सरकार ने पेटेंट किया।यहीं से लेखनी की रफ्तार तेज हुई 1888 में बॉल प्वाइंट पेन और 1907 में सॉलिड इंक का पेन बना।इस सदी की शुरूआत में पेन पुराने पडने लगे। उनकी जगह उंगलियों ने ली जो कंप्यूटर स्क्रीन पर सीधे लिख रही हैं।
सुकुल जी ने इस कलमघसीट को फिर से कलम के खूंटे पर बॉंध दिया । हाथ में कलम पकडा कर।