तीन दिन, तीन मौंतें और कई सवाल.. पिछले तीन दिनों में तीन पत्रकारों की मृत्यु पर यूपी प्रेस क्लब की शोक सभा सवालों के घेरों में है। मौत के मातम पर भी भेदभाव के आरोप लगाने वाले तर्कसंगत सवाल उठ रहे हैं। वरिष्ठ पत्रकार प्रमोद सिंह, उपेंद्र मिश्र और शफीकउर्रहमान चल बसे। पिछले तीन दिनों में एक के बाद एक इन सहाफियों की मौत की खबरों से गमज़दा माहौल की फिजाओं में एतराज़ की धुंध तब पैदा हो गई जब यूपी प्रेस क्लब ने शोक सभा आयोजित कर दो पत्रकार साथियों को याद किया पर राज्य मुख्यालय मान्यता प्राप्त बुजुर्ग सहाफी शफीकुर्रहमान का जिक्र तक नहीं किया गया।
सवाल उठना लाज़मी थे। सबसे पहले राज्य मुख्यालय मान्यता प्राप्त युवा पत्रकार शेखर पंडित ने इसपर एतराज़ जताया। इसके बाद इस युवा पत्रकार के समर्थन में तमाम आवाज़ें उठने लगीं। जितने मुंह उतनी बातें। कलम के सिपाहियों के शब्दबाण चलने लगे। अपने/अपने अंदाज में कोई कुछ बोला तो कोई कुछ।
कोरोना की खबरें कवर करने वाले तमाम पत्रकार संक्रमित हो गये ये तो पूरी तरह सच है, पर क्या दशकों से उत्तर प्रदेश की धर्म-जाति की सियासत कवर करने वाले लखनऊ के चंद पत्रकार भी धर्म-जाति की सियासत से प्रभावित हो गये हैं!
कुछ ऐसे ही तंज़ यूपी प्रेस क्लब के रवैयों को लेकर किये जा रहे हैं। आलोप लग रहे हैं कि शोकसभा में भी भेदभाव साफ नजर आ रहा है। पिछले रविवार, सोमवार और मंगलवार को लगातार तीन दिन लखनऊ से जुड़े पत्रकारों की मौत का सिलसिला दुर्भाग्यपूर्ण था।
सबसे पहले राज्य मुख्यालय मान्यता प्राप्त बुजुर्ग सहाफी शफीकुर्रहमान का इंतेक़ाल हुआ। इसके बाद वरिष्ठ पत्रकार प्रमोद सिंह की मृत्यु हुई। मंगलवार को वरिष्ठ पत्रकार उमेंद्र नाथ मिश्र की गोरखपुर में मौत की खबर आ गई। तीन दिन तीन मौतें हुईं। लेकिन यूपी प्रेस क्लब की शोकसभा में प्रमोद सिंह और उपेंद्र नाथ मिश्र को याद किया गया, उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित की गई, लेकिन राज्य मुख्यालय मान्यता प्राप्त बुजुर्ग पत्रकार शफीकुर्रहमान का जिक्र तक नहीं हुआ। इनका नाम तक नहीं लिया गया।
शफीकुर्रहमान और प्रमोद सिंह की मौत के बाद जब प्रेस क्लब की तरफ से पत्रकार नेता शिवशरण सिंह ने पत्रकारों के वाट्सएप ग्रुप्स पर शोकसभा के लिए पत्रकारों को सूचित किया तब पत्रकार शेखर पंडित सहित कुछ पत्रकारों ने सवाल उठाये कि प्रेस क्लब ने शोक पत्र और शोकसभा की सूचना में केवल एक पत्रकार प्रमोद सिंह की मृत्यु का ही जिक्र क्यों किया है। मौत तो पत्रकार शफीकुर्रहमान की भी हुई है। क्या रहमान साहब की मौत, मौत नहीं! जिसे प्रदेश सरकार ने राज्य मुख्यालय के पत्रकार की प्रेस मान्यता दी है क्या यूपी प्रेस क्लब उन्हें पत्रकार ही नहीं मानता!
इन तमाम सवालों के बाद भी शोकसभा में शफीकुर्रहमान का कोई जिक्र नहीं हुआ क्योंकि मंगलवार को जिस दिन केवल दिवंगत प्रमोद सिंह को श्रद्धांजलि देने के लिए शोकसभा होनी थी उस ही दिन उपेंद्र नाथ मिश्र जी की मुत्यु की भी ख़बर आ गयी इसलिए शोकसभा में उपेंद जी को भी भावभीनी श्रद्धांजलि दी गयी। इसके बाद ही ये मामला पत्रकारों की सियासत का भी मुद्दा बन गया है।
तमाम तरह की बातें होने लगीं। कोरोना और धर्म-जाति का वायरस उत्तर प्रदेश में इस कदर हावी है कि यहां के पत्रकार भी इसके चपेट में आ गये हैं। कोविड और सियासी गतिविधियों को कवर करने वाले इन दोनों वायरसों से संक्रमित हो रहे हैं। कोरोना जैसी छूत की बीमारी से लखनऊ के ही दर्जनों पत्रकार संक्रमित हो गये ये आम ख़बर है।
ख़ास खबर ये है कि यूपी की धर्म-जाति की सियासी हलचलें कवर करते-करते यहां के सहाफी भी धर्म और जाति की राजनीति से प्रभावित होने लगे हैं। पत्रकारों की एक यूनियन मजहबी संकीर्णता के वायरस में मुब्तिला नज़र आ रही है। शोकसभा में भी भेदभाव के रवैये से नाराज पत्रकारों का कहना है कि किसी भी शहर का प्रेस क्लब उस शहर के सभी पत्रकारों का प्रतिनिधित्व करता है। पत्रकारिता का उद्देश्य केवल सूचनाओं और खबरों के प्रसार के लिए नहीं है। नैतिक विकास और सामाजिक जिम्मेदारी निभाने का नाम भी पत्रकारिता है। रूढ़िवाद, संकीर्णता, अलगाववाद, भेदभावाद, धार्मिक कट्टरता और जातिवाद के विरुद्ध मुखर होना भी पत्रकारिता का कर्त्तव्य है। लेकिन यदि पत्रकारिता और पत्रकारों के केंद्र प्रेस क्लब में ही पत्रकार-पत्रकार में फर्क समझा जाये और भेदभाव हो तो मान लीजिए कि प्रदेश की धर्म-जाति की दशकों पुरानीं राजनीति का वायरस पत्रकारों की राजनीति में शामिल हो गया है।
– नवेद शिकोह