संगम पांडेय-
सुरेश सलिल, मेरे पिता, नहीं रहे।
कुमार सौवीर-
हर नदी का एक तट वह भी होता है, जो आपके तट के सामने दूसरी ओर होता है। अनिवार्य रूप से। लेकिन इस से उस तट तक स-शरीर जा पाना सम्भव नहीं होता है। जीवन भी इसी तरह होता है। मेरे पिता-तुल्य श्वसुर श्री सुरेश सलिल जी अपनी महा-यात्रा यानी महा-निर्वाण पर प्रस्थान कर गए हैं। ओम शांतिः
राजेश जोशी-
मेरे पहले संपादक सुरेश सलिल ने अभी अभी अंतिम साँस ली। मुझ पहला असाइंमेंट देने वाला शख़्स नहीं रहा।
पलक झपकी नहीं कि पूरा मंज़र बदल गया। युवकधारा में कितने पत्रकारों को गढ़ा सलिल जी ने। अंतिम मुलाक़ात नहीं हो पाई, इसका अफ़सोस कभी नहीं जाएगा। अलविदा, सलिल जी।
अनिल कुमार यादव-
काफी देर से पान घुलाए, ग्यारह साल पहले के पुस्तक मेले में खड़े सलिल जी को देख रहा हूं. उनकी बाकी तीन से अधिक दीप्त आंखों, दाहिने हाथ की तर्जनी और लचक को देखिए, लगता है, अभी नाच उठेंगे.
मैने उन्हें उस दिन पहली बार देखा था. वे इतने खुश इसलिए नहीं है कि मेरी किताब है. इसलिए हैं कि एक शावक की किताब आई है जिसे वे एक रात पहले पढ़कर आए हैं. मैने अपने आभार को कुछ पुख्ता करने के लिए, उनसे मांग कर एक पान खाया और कोई बात नहीं हो पाई. संकोच था, मेले के लाउडस्पीकर चिघ्घाड़ रहे थे और उन्हें घर जाना था.
उन्होंने जो जीवन जिया उसमें मशहूर होना, गुमनाम रह जाना, छपने-जीने के लिए लीचड़ हो जाना नियति थी लेकिन विचारों और उड़ानों का साझा कोई चीज थी जिनकी बिना पर लेखक-कवि दुनिया की चोटों को दीवानों की तरह हंसता हुआ झेल सकता था. इस अभिमान में जी जाता था कि वह जहां का बाशिंदा है वहां का किराया फ्लैट-कार-टीवी-फ्रिज-टेलीफोन-टाई (तब के पैमाने) वाले दे नहीं सकते. लाइफ ऑफ माइंड ऐसी ही लक्जरी है.
साठ-सत्तर के दशक के कुपोषित शरीर लेकिन भावभीनी आंखों वाले कुछ हिंदी लेखकों की काली-सफेद तस्वीरों में इसे देखा जा सकता है (तब ऋत्विक घटक को मिले पद्मश्री के मेडल का इस्तेमाल एक शाम पालिका बाजार के ऊपर के पार्क में चैन से पीने के लिए किया जा सकता था). लेकिन अब ऐसा नहीं है. अब वे एक दूसरे के प्रतिद्वंदी हैं जिन्हें मार्केटिंग, पीआर और तिकड़मों से अगले को धकिया कर आगे जाना है. वे इस कदर प्रोफेशनल हुए जाते हैं कि आलोचना तक नहीं करते. मिलने-बतियाने से बचते हैं कि दंभ का खोखल न गिर पड़े, कमजोरियां न ताड़ ली जाएं. कहां जाना है?…उस मंजिल का नाम बंजर, सिफर और धमाका-ए-कुंठा है. क्योंकि सादतपुर के बिना पलस्तर वाले मकानों में किताबों के साथ आए पहले बाशिंदों के बतरस में वह चीज थी जिससे लेखक के हासिल का निर्माण होता है. सच कहूं तो निभा लेता हूं लेकिन मेरा यकीन भावहीन-सख्त नमन और यांत्रिक श्रद्धासुमन अर्पित करने में नहीं है. मैं सलिल जी का दोस्त होना चाहता था. उनकी देहभाषा से भवानी भाई की एक कविता फूटती लग रही हैः
वाणी की दीनता
अपनी मैं चीन्हता!
कहने में अर्थ नहीं
कहना पर व्यर्थ नहीं
मिलती है कहने में
एक तल्लीनता!
आसपास भूलता हूं
जग भर में झूलता हूं
सिंधु के किनारे जैसे
कंकर शिशु बीनता!