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सियासत

स्त्री-अस्मिता और कुछ सवाल

नैतिकता, जाति, धर्म, स्त्री और स्त्री-पुरुष संबंधों आदि से जुड़े तमाम सवालों को लेकर हमारे सामाजिक और राजनीतिक जीवन में, खासकर खाए-अघाए तबके में, पाखंड इस कदर हावी है कि वह अपनी तमाम कुंठाओं को तरह-तरह से छिपाता और सच या कड़वे सवालों का सामना करने से कतरता और घबराता है। इसलिए पिछले दिनों बीमा क्षेत्र में विदेशी निवेश की सीमा छब्बीस फीसद से बढ़ा कर उनचास फीसद करने के लिए पेश किए गए विधेयक पर राज्यसभा में चर्चा के दौरान चमड़ी के रंग और सुंदरता को लेकर दिए गए मेरे भाषण के एक अंश पर जिस तरह देशव्यापी चर्चा हुई और जिसका सिलसिला अब भी जारी है, उससे एक बार फिर यही साबित हो रहा है कि भारतीय समाज के अंतर्विरोधों, खासकर चमड़ी के रंग पर रची मानसिकता और स्त्री की अस्मिता को लेकर हमारे देश के पढ़े-लिखे तबके में भी ज्यादातर लोगों की सामान्य समझ औसत से कम है। जितनी है, वह बेहद विकृत है।

<p>नैतिकता, जाति, धर्म, स्त्री और स्त्री-पुरुष संबंधों आदि से जुड़े तमाम सवालों को लेकर हमारे सामाजिक और राजनीतिक जीवन में, खासकर खाए-अघाए तबके में, पाखंड इस कदर हावी है कि वह अपनी तमाम कुंठाओं को तरह-तरह से छिपाता और सच या कड़वे सवालों का सामना करने से कतरता और घबराता है। इसलिए पिछले दिनों बीमा क्षेत्र में विदेशी निवेश की सीमा छब्बीस फीसद से बढ़ा कर उनचास फीसद करने के लिए पेश किए गए विधेयक पर राज्यसभा में चर्चा के दौरान चमड़ी के रंग और सुंदरता को लेकर दिए गए मेरे भाषण के एक अंश पर जिस तरह देशव्यापी चर्चा हुई और जिसका सिलसिला अब भी जारी है, उससे एक बार फिर यही साबित हो रहा है कि भारतीय समाज के अंतर्विरोधों, खासकर चमड़ी के रंग पर रची मानसिकता और स्त्री की अस्मिता को लेकर हमारे देश के पढ़े-लिखे तबके में भी ज्यादातर लोगों की सामान्य समझ औसत से कम है। जितनी है, वह बेहद विकृत है।</p>

नैतिकता, जाति, धर्म, स्त्री और स्त्री-पुरुष संबंधों आदि से जुड़े तमाम सवालों को लेकर हमारे सामाजिक और राजनीतिक जीवन में, खासकर खाए-अघाए तबके में, पाखंड इस कदर हावी है कि वह अपनी तमाम कुंठाओं को तरह-तरह से छिपाता और सच या कड़वे सवालों का सामना करने से कतरता और घबराता है। इसलिए पिछले दिनों बीमा क्षेत्र में विदेशी निवेश की सीमा छब्बीस फीसद से बढ़ा कर उनचास फीसद करने के लिए पेश किए गए विधेयक पर राज्यसभा में चर्चा के दौरान चमड़ी के रंग और सुंदरता को लेकर दिए गए मेरे भाषण के एक अंश पर जिस तरह देशव्यापी चर्चा हुई और जिसका सिलसिला अब भी जारी है, उससे एक बार फिर यही साबित हो रहा है कि भारतीय समाज के अंतर्विरोधों, खासकर चमड़ी के रंग पर रची मानसिकता और स्त्री की अस्मिता को लेकर हमारे देश के पढ़े-लिखे तबके में भी ज्यादातर लोगों की सामान्य समझ औसत से कम है। जितनी है, वह बेहद विकृत है।

राज्यसभा में बीमा विधेयक पर बहस के दौरान मैंने सुंदरता और चमड़ी के रंग को लेकर समाज में व्याप्त एक खास पूर्वग्रह की जो आलोचना की थी, उसे भले कोई अप्रासंगिक माने या संदर्भ से काट कर और मूल विषय से हट कर देखे, लेकिन मैं स्पष्ट करना चाहता हूं कि इस पूर्वग्रह की चर्चा के पीछे मेरा मकसद गोरे रंग को श्रेष्ठ समझने की उस हीन ग्रंथि की ओर इशारा करना था, जो हमारे भारतीय मन में गहरे पैठी हुई है, यहां तक कि हमारा सत्ता-तंत्र भी उससे मुक्त नहीं है। वह भी उन नीतियों की ओर बहुत जल्दी आकर्षित हो जाता है, जो गोरे मुल्कों में अपनाई जाती हैं।

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आखिर इस तथ्य से कौन इनकार कर सकता है कि बीमा विधेयक में विदेशी निवेश की सीमा बढ़ाने का सवाल हो या आर्थिक उदारीकरण की अन्य नीतियों का, इन सब पर स्पष्ट रूप से पश्चिमी गोरे मुल्कों का प्रभाव नजर आता है। यह गोरे रंग के प्रति हमारी आसक्ति का ही परिणाम है कि एक ब्रिटिश महिला हमारे देश में आती है और यहां उसे बलात्कार की एक दर्दनाक घटना पर वृत्तचित्र बनाने के लिए वे तमाम सुविधाएं और अनुमतियां आसानी से मिल जाती हैं, जो किसी भारतीय फिल्मकार को इतनी आसानी से नहीं मिल सकतीं। मैंने राज्यसभा में अपने भाषण के दौरान इन्हीं संदर्भों में गोरे रंग और सुंदरता के पैमाने को लेकर चर्चा की थी। स्त्री को महज घरेलू कामकाजी, बच्चे पैदा करने की मशीन या शरीर-सुख का साधन मानने वाली विकृत मानसिकता के लोगों को यह चर्चा जरूर अटपटी लगी होगी, मगर यह देह-चर्चा कतई नहीं थी।

क्या यह सच नहीं है कि हमारे समाज में गोरे रंग को सुंदरता का पर्याय माना और सांवले रंग को हीन दृष्टि से देखा जाता है। अखबारों के तमाम वैवाहिक विज्ञापन भी इस हकीकत की गवाही देते हैं। दरअसल, भारतीय समाज में सुंदर देहयष्टि और त्वचा के गोरेपन को लेकर तमाम तरह के पूर्वग्रह सदियों से अपनी जड़ें जमाए हुए हैं। इसी के चलते अपने को गौरवर्ण और छरहरा बनाने-दिखाने की ललक कोई नई बात नहीं है। शरीर के सांवलेपन को दूर कर उसे गोरा बनाने के लिए तरह-तरह के लेप और उबटनों का उपयोग भी हमारे यहां प्राचीनकाल से होता आया है। लेकिन कोई दो दशक पहले शुरू हुई बाजारवादी अर्थव्यवस्था और वैश्वीकरण की विनाशकारी आंधी ने इस सहज प्रवृत्ति को एक तरह से पागलपन में तब्दील कर दिया है।

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माना जाता है कि बाजार में होने वाली प्रतियोगिता उपभोक्ता और अर्थव्यवस्था दोनों के लिए फायदेमंद होती है। लेकिन इस प्रतियोगिता में कई तरह की विकृतियां दिखाई देती हैं। अपने उत्पादों की बिक्री बढ़ाने और मुनाफा कमाने के फेर में बहुत से विज्ञापनों, खासकर सौंदर्य प्रसाधनों और शरीर को आकर्षक बनाने वाले उत्पादों के विज्ञापनों में भ्रामक दावे किए जाते हैं। इन विज्ञापनों में स्त्री-देह का जिस तरीके से प्रदर्शन किया जाता है वह भी कम शर्मनाक नहीं होता।

कथित तौर पर गोरा बनाने वाली क्रीम और मोटापा घटाने की दवाइयों के टीवी चैनलों पर आने वाले विज्ञापनों ने किशोर और युवा मन की संवेदनाओं का शोषण करते हुए उनके मानस पटल पर देह की बनावट और चमड़ी के रंग पर रचा सौंदर्य का यह पैमाना गहराई से अंकित कर दिया है कि गोरे रंग और छरहरी काया के बगैर न मनचाहा जीवन-साथी मिल सकता है, न रोजगार। सामाजिक तौर पर ऐसे आपराधिक विज्ञापनों के खिलाफ समाज के किसी भी कोने से कभी कोई आवाज क्यों नहीं उठती? स्त्री को भोग की वस्तु के तौर पर पेश कर उसे सरेआम बेइज्जत करने वाले इन विज्ञापनों पर उन लोगों की संवेदना को भी क्यों लकवा मार जाता है, जो असली सवाल उठाने वालों को स्त्री-अस्मिता का शत्रु करार देने में दकियानूसी दलीलों और कुतर्कों के साथ बढ़-चढ़ कर मुखर हो उठते हैं?

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आज देश में गोरा बनाने वाली क्रीम और अन्य सौंदर्य प्रसाधन उत्पादों का बाजार करीब चालीस हजार करोड़ रुपए का है। इसी के साथ मोटापा घटाने वाली दवाओं का बाजार भी तेजी से बढ़ता जा रहा है। जबकि हकीकत यह है कि ऐसी क्रीमों और दवाओं से चमड़ी का रंग बदलना और मोटापा कम होना तो दूर, उलटे इन चीजों के इस्तेमाल से दूसरी बीमारियां जन्म ले लेती हैं। लेकिन मुनाफा कमाने की होड़ में शामिल इन कंपनियों और इनके विज्ञापन प्रसारित करने वाले प्रचार माध्यमों पर इन बातों का कोई असर नहीं होता है। इन उत्पादों को लोकप्रिय बनाने के लिए फिल्म, टीवी और खेल जगत के सितारों से इनके विज्ञापन कराए जाते हैं।

विडंबना यह है कि सांवले और मोटे लोगों में हीनताबोध पैदा कर उनकी नैसर्गिक योग्यता पर नकारात्मक असर डालने वाले इन विज्ञापनों में किए गए दावों की असलियत जांचने के लिए हमारे यहां न तो कोई कसौटी है और न ऐसे भ्रामक विज्ञापनों पर रोक लगाने के लिए कोई असरदार तंत्र। बाजारवाद की उपासक हमारी सरकारों की भी ऐसा तंत्र विकसित करने में कोई दिलचस्पी नहीं है। आखिर चमड़ी के रंग और शरीर के आकार-प्रकार पर आधारित खूबसूरती और कामयाबी का यह विकृत पैमाना स्वस्थ समाज के निर्माण में कैसे सहायक हो सकता है? ऐसे पैमाने रचने वाली आपराधिक मानसिकता के खिलाफ आवाज उठाना अगर किसी को अपराध लगता है, तो लगता रहे। मुझे ऐसा अपराध करने से कोई नहीं रोक सकता। आखिर यह मेरा राजनीतिक और सामाजिक दायित्व है।

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चमड़ी के गोरे रंग पर आधारित पश्चिम की इस रंगभेदी सौंदर्य-दृष्टि से उपजा हीनताबोध और कुंठा कितनी खतरनाक होती है, इसकी सबसे बड़ी मिसाल रहा है मशहूर पॉप गायक माइकल जैक्सन। जिस समय पश्चिमी समाज में रंगभेद के खिलाफ जारी संघर्ष अपने निर्णायक दौर में था, गौरांग महाप्रभुओं के यूरोपीय देशों सहित पूरी दुनिया में इस श्यामवर्णीय लोकप्रिय कलाकार की पॉप गायकी का जादू छाया हुआ था। बेपनाह दौलत और शोहरत हासिल करने के बाद अपनी त्वचा को काले रंग से छुटकारा दिलाने की कुंठाजनित ललक में जैक्सन ने अपने शरीर की प्लास्टिक सर्जरी कराई थी। इस सर्जरी से उसकी त्वचा का रंग गोरा तो हो गया था, लेकिन सर्जरी और दवाओं के दुष्प्रभावों के चलते उसे कई तरह की बीमारियों ने घेर लिया था, जो आखिरकार उसकी मौत का कारण बन गर्इं।

हालांकि जैक्सन की बहन जेनिथ जैक्सन आज भी अपने काले रंग के बावजूद पॉप गायकी के क्षेत्र में धूम मचाए हुए है। इसी सिलसिले में चर्चित मॉडल नाओमी कैंपबेल का जिक्र भी किया जा सकता है, जो अपनी नैसर्गिक प्रतिभा के दम पर आज ग्लैमर की दुनिया में सुपर मॉडल के तौर पर जानी जाती है। उसकी इस उपलब्धि में उसकी त्वचा का काला रंग कहीं आड़े नहीं आया।

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व्यक्ति की कामयाबी में चमड़ी के गोरे रंग की कोई भूमिका नहीं होती, इस तथ्य को जोरदार तरीके से साबित करने वालों में बराक ओबामा का नाम भी शुमार किया जा सकता है, जो आज दुनिया के सबसे ताकतवर देश अमेरिका के राष्ट्रप्रमुख हैं। दरअसल, वाइट हाउस में किसी ब्लैक का बैठना अमेरिकी इतिहास में किसी युगांतरकारी घटना से कम नहीं है।

गोरे रंग को श्रेष्ठ मानने की धारणा सारी दुनिया में किसी न किसी हद तक प्रचलित है, लेकिन हमारे देश में यह ज्यादा गहराई से जड़ें जमाए हुए है। क्या इस अमानवीय और अन्यायी मानसिकता पर चोट करना और उससे उबरने का आग्रह करना कोई अपराध है? दरअसल, गौरवर्ण की तानाशाही दुनिया का सबसे बड़ा उत्पीड़न है। वैसे तो दुनिया की सभी स्त्रियां किसी न किसी रूप में उत्पीड़ित हैं, लेकिन सांवले या काले रंग की स्त्रियां कुछ ज्यादा उत्पीड़न का शिकार होती हैं। वे चिंता और हीनता की खुराक पर ही पलती हैं। इस तथ्य को महात्मा गांधी ने अपनी पुस्तक ‘दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह का इतिहास’ और समाजवादी विचारक डॉ राममनोहर लोहिया ने अपने चर्चित निबंध ‘राजनीति में फुरसत के क्षण’ में शिद्दत से रेखांकित किया है।

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कुल मिलाकर मेरा कहने का आशय यही है कि हमारे समाज में औरत की दोयम स्थिति और चमड़ी के रंग पर रची मानसिकता एक कड़वी हकीकत है। जो लोग नैतिकता का ढोल पीटते हुए इस हकीकत को नकारते या अनदेखा करते हैं वे अपने शुतुरमुर्गीय रवैए का ही परिचय देते हैं। जातीय और लैंगिक कठघरे में जकड़े ऐसे लोग ही दूसरों को जातीय समरसता और स्त्री के सम्मान का पाठ पढ़ा कर अपने अपराधबोध या अज्ञान को छिपाने का भोंडा प्रयास अक्सर करते रहते हैं। ऐसे लोगों की स्त्री के प्रति संवेदना कितनी कुंद है, इसका अंदाजा देश में बीसवीं सदी की शुरुआत से व्यापक पैमाने पर जारी कन्या भ्रूण हत्या की प्रवृत्ति से भी लगाया जा सकता है, जिसके चलते लिंग अनुपात गंभीर रूप से गड़बड़ा रहा है।

स्त्रियों के प्रति होने वाले नाना प्रकार के अत्याचार हमारे समाचार माध्यमों में खूब जगह पाते हैं, लेकिन यह जानकारी कम ही लोगों को है कि जितनी स्त्रियां बलात्कार, दहेज और अन्य मानसिक तथा शारीरिक अत्याचारों की शिकार होती हैं, उससे कई सौ गुना ज्यादा तो जन्म लेने से पहले ही गर्भ में मार दी जाती हैं। वाणी और विचार में स्त्री को देवी का दर्जा देने वाले, पर व्यवहार में स्त्री के प्रति हर स्तर पर घोर भेदभाव बरतने और उस पर अमानुषिक अत्याचार करने वाले हमारे समाज की आधुनिक तकनीक के सहारे की जाने वाली यह चरम बर्बरता है। इस बर्बरता के खिलाफ स्त्री अस्मिता के तमाम झंडाबरदार क्यों मौन रहते हैं? दरअसल, जरूरत है स्त्री को मनुष्य समझे जाने की और समाज की शक्ल सुधारने की। आईने को दोष देने से काम नहीं चलेगा। शक्ल ही भद्दी हो तो आखिर आईना क्या करेगा?

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जनसत्ता से साभार

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