वीरेंद्र यादव-
खबर है कि लोकसभा सचिवालय ने एक बुकलेट जारीकर उन शब्दों की सूची प्रकाशित की है, जिन्हें असंसदीय माना गया है. ये वही शब्द हैं, जो पिछले संसदीय सत्रों में विपक्ष द्वारा सत्ता पक्ष की आलोचना करते हुए इस्तेमाल किए गए थे. इस सूची.में जो नए शब्द शामिल किए गए हैं, उनमें से कुछ निम्नवत् हैं —
शकुनी, तानाशाह, जुमलाजीवी, तानाशाही, जयचंद, विनाश पुरुष. बाल बुद्धि, खालिस्तानी, खून की खेती, ashamed, abused, dictatorial, betrayed, corrupt, drama, snoopgate, hypocrisy, incompetent, covid spreader , दोहरा चरित्र, निकम्मा, नौटंकी, ढिंढोरा पीटना, बहरी सरकार आदि.
तो इस खबर से ‘moral of the story’ यह है कि अगर भाषा बचानी है तो सत्ता का विरोध करना छोड़ना पड़ेगा. लेकिन फिर फैज को क्या जवाब देंगे, जो कहते हैं कि-
“बोल कि जुबां अब भी तेरी है”.
मतलब कि जब बोल ही न सकेंगे तो भाषा बचा के क्या करेंगें!!! इसलिए भाषा भले ही अटपटी हो, बोल सही होने चाहिए. कबीर की भाषा अटपटी थी, लेकिन बोल सही थे. तुलसी की भाषा में सौंदर्य व लालित्य था, लेकिन उनके बोल श्रमशील समाज के लिए असह्य व शूल के मानिंद थे. इसलिए भाषा के साथ विचार बचाना भी जरूरी है.
अरुण माहेश्वरी- मिथ्या, असत्य, भ्रष्ट, तानाशाह, शर्मनाक, विश्वासघाती, अयोग्य जैसे शब्दों का उच्चारण कोई नहीं कर सकेगा । झूठ तो पहले से ही प्रतिबंधित है । अब चुन-चुन कर ऐसे तमाम शब्दों को और प्रतिबंधित किया जा रहा हैं, जो वर्तमान सरकार के चरित्र के बयान के लिए उपयुक्त शब्द हैं ।
समीरात्मज मिश्रा- Corrupt शब्द असंसदीय हो गया. कभी इसी शब्द पर महीनों पार्लियामेंट नहीं चलती थी. यह ऐसी ईमानदार सरकार के रहते ही हो सकता है जो खुद को ईमानदार कहती हो और दूसरों को भी ऐसा कहने के लिए प्रेरित करती हो. पर एक दिक्कत है, वह सरकार इस शब्द के मुद्दे पर पिछली सरकारों से अपनी तुलना कैसे करेगी? क्योंकि मौजूदा सरकार के मुताबिक, पिछली सरकारों के लिए तो यह शब्द पर्यायवाची-सा था. ख़ैर, यह सरकार की समस्या है. मुझे तो कभी संसद में बोलने का मौक़ा मिला तो ज़रूर ध्यान रखूंगा कि एक भी असंसदीय शब्द मेरी ज़बान से न निकले. हां, संसद के बाहर इसका प्रयोग हम लोग करते रहेंगे, जब तक कि इस शब्द के प्रयोग को ग़ैरक़ानूनी न घोषित कर दिया जाए.
कृष्ण कल्पित- इससे अच्छा है पूरा शब्दकोश ही बैन कर दें । बिहारी की तरह सब नैनन ही सौँ बात करें । इशारों इशारों में । इशारों की भाषा भी बन जाएगी थोड़े दिन में । फिर भंगिमाएं बैन करनी होगी ।
विष्णु नागर- जो संसद में असंसदीय है,वह बाहर भी असंसदीय, अलोकतांत्रिक रहेगा।बस हिंदूवादी मां- बहन की जो गालियां लिखते -बोलते हैं, कपड़ों से आदमी के धर्म की पहचान करते हैं,वह संसदीय और लोकतांत्रिक रहेगा।
रवीश कुमार-
जुमलाजीवी शब्द हो गया असंसीदय, आंदोलनजीवी बच गया। कुछ शब्द जाति सूचक हैं, उन्हें हटाना तो उचित है लेकिन शर्म कब से असंसीदय हो गया? लॉलीपॉप भी असंसीदय है? कहीं विपक्ष से उसके शब्द तो नहीं छीने जा रहे हैं ? shame या शर्म कहने की परंपरा दुनिया भर में रही है। ये कब से असंसीदय हो गया है? यह ख़बर आज के अमर उजाला में छपी है।