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सुख-दुख

वैदिकजी का जाना!

कौशल किशोर-

जाने माने सामाजिक कार्यकर्ता और वरिष्ठ पत्रकार वेद प्रताप वैदिक नहीं रहे। इससे देश दुनिया को होने वाली क्षति के साथ ही निजी क्षति भी पूरी होने वाली नहीं है। 30 दिसंबर 1944 को मध्य प्रदेश के इंदौर से शुरु हुई उनकी यात्रा 14 मार्च 2023 को हरियाणा के गुरुग्राम में पूरी हुई। इंडिया इंटरनेशनल सेंटर की लॉन में बैठ कर हमने लंबी बातचीत की है। ऐसा लगता है, जैसे बीती शाम की बात हो। उन्होंने अज्ञेय और राजेंद्र माथुर जैसे हिंदी के महान संपादकों के साथ काम किया था। उनके ही नेतृत्व में पीटीआई हिंदी संस्करण भाषा शुरु करती है। सार्क को उन्होंने ही दक्षेस नाम दिया।अंतिम समय तक वे जनदक्षेस का सपना साकार करने में लगे रहे। कुलदीप नैयर की तरह अपनी अंतिम तारीख के अखबार में भी बेबाक राय व्यक्त करने वाले सक्रिय पत्रकार साबित होते हैं। नैयर वोट बैंक की राजनीति पर बात करते हैं और डा. वैदिक समलैंगिकता की वैधता पर प्रश्न उठाते।

उस शाम हमारी चर्चा का विषय था, हिन्दी के प्रतिष्ठित पत्र नव भारत व अमर उजाला के संपादकीय में समानता। उन्होंने पुरानी स्मृतियों के झरोखे से कई बातों पर प्रकाश डाला। यह संपादकीय लेखन के आरंभिक काल से जुड़ा था। उन दिनों नव भारत के संपादकीय चन्द मोहन जैन (रजनीश और ओशो नाम से चर्चित) लिखते और स्वयं नई दुनिया के संपादक राहुल बारपुते के आग्रह पर यह काम करते थे। आज देखता हूं कि इतनी फुरसत में पहले उनको शायद कभी नहीं देखा था। इसमें शामिल रहे एक मित्र से उनकी अंतिम यात्रा से लौटते समय फोन पर बात हुई। उन्होंने ठीक याद किया कि मैंने कहा था “आज आप बहुत सुंदर लग रहे हैं।“ उनके करीब बैठने समेत पूरा वाकया स्मृति पर उभर आया था।

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पीटीआई को सेवा देने वाले डा. वैदिक का अवसान यूएनआई को सेवा देने वाले पानी बाबा नाम से चर्चित पत्रकार अरुण कुमार जी की भी याद दिलाती है। स्नानागार की चिकनी फर्श पर फिसलने से उनके कूल्हे की हड्डी टूट गई। ठीक होने में कई महीने लग गए। साल भर बाद उसी फिसलपट्टी पर फिर फिसल गए। दोबारा वही हड्डी टूट गई। संदीप जोशी ठीक ही कहते हैं, वैदिक जी हृदयाघात के बाद गिरे थे। इन दोनों ही मनीषियों की स्मृति में स्नानागार के फर्श की फिसलपट्टी को दुरुस्त करने का काम उभरता है।

हाल में उन्होंने देश दुनिया की राजनीति को नगालैंड से प्रेरणा लेने का संदेश दिया। पूर्वोत्तर के चुनाव परिणाम पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए पक्ष विपक्ष पर आधारित लोकतंत्र के पश्चिमी मॉडल के सामने एक नया आदर्श भी पेश करते हैं। डा. वैदिक लिखते हैं कि नगालैंड की विलक्षण घटना की ओर कम लोगों का ध्यान गया। चुनाव में डट कर विरोध करने वाली पार्टियों ने मिल-जुल कर वहां नई सरकार बनाई है। नेशनलिस्टिक डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी के नेतृत्व में बनी सरकार के नेता नेफ्यू रियो हैं। उनकी पार्टी और भाजपा के बाद शरद पवार की एनसीपी तीसरे बड़े दल के तौर पर उभरा है। भाजपा से हाथ मिलाने में परहेज के कारण उन्होंने बाहर रह कर सरकार को समर्थन दिया है। सभी आठ दलों के विधायकों का सत्तारुढ़ गठबंधन से सहयोग सुनिश्चित हुआ है। इस तरह से नगालैंड सरकार दुनिया के सामने लोकतंत्र का आदर्श पेश कर रही है। विधान भवनों में पक्ष विपक्ष के बीच होने वाले फिजूल के दंगल से राहत का मार्ग प्रशस्त हुआ है।

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वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में लोकसभा के लिए 2024 में होने वाला चुनाव हावी है। यह सड़क से संसद तक सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच के सम्बन्धों को बयां करता है। इसमें शामिल होने वाले राजनेताओं के लिए डा. वैदिक का संदेश मायने रखता है। आजादी के बाद 1947 में बनी सरकार ने इस नीति को स्वीकार किया। पंडित नेहरु के नेतृत्व में बनी केन्द्र सरकार में भीमराव आंबेडकर व श्यामा प्रसाद मुखर्जी जैसे गैर कांग्रेसी नेता शामिल थे। सरकार के 14 मंत्रियों ने हिन्दू, मुसलमान, सिख, ईसाई, पारसी, दलित, महिला व दक्षिण भारतीय जैसे तमाम वर्गों का प्रतिनिधित्व भी किया था। राजनीतिक दलों के दल-दल से बच कर सरकार देश की सेवा करे। ऐसी नीति को उन्होंने लोकतांत्रिक आदर्श बताया है। इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में हुई स्मृति सभा में सुधीन्द्र कुलकर्णी जैसे विद्वान ने उनकी इस बात का जिक्र किया था।

उन्होंने सुब्बाराव और सुंदर लाल बहुगुणा की तरह तेरह साल की बाल्यावस्था में ही समाज की सेवा का कार्य शुरू किया था। संपादक रहते उन्होंने नव भारत टाइम्स से बहुगुणा जी को जोड़ा था। उनके अवसान के बाद उन्होंने इसका जिक्र भी किया था। गांधी दर्शन और स्मृति के उपाध्यक्ष विजय गोयल से बात कर अनुपम मिश्र व प्रभाष जोशी की तरह उनका वार्षिकोत्सव मनाने का प्रयास शुरू करते हैं। गांधीवादी मनीषी सुब्बाराव और बहुगुणा की तरह डा वैदिक भी इस सूची में शामिल करने योग्य हैं।

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पचास के दशक में हिंदी के लिए आंदोलन हुआ। पंजाब में हुए जनांदोलन के कारण हरियाणा का गठन हुआ। आर्य समाज के इस आंदोलन में गिरफ्तारी देने के लिए वे 1957 में मालवा से पटियाला पहुंचते हैं। रिहाई के बाद हुए उनके व्याख्यान को सुन कर नई दुनिया के संपादक राहुल बारपुते खुश हुए। उन्होंने इसे छापने के उद्देश्य से लिख कर देने को कहा था। इस तरह एक पत्रकार के तौर पर उनका उदय 65 साल पहले ही हो गया था। उनकी सक्रियता इस बीच बेमिसाल है।

उनकी हिन्दी सेवा का विस्तार खूब हुआ। अफगानिस्तान का अमेरिका और रूस से सम्बंध जैसे विषय पर जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में उन्होंने शोध किया। हिन्दी में लिखे उनके शोध पत्र को अंग्रेजी की गुलामी पर प्रहार के तौर पर देखा गया। संसद में भी यह मामला उठता है। राम मनोहर लोहिया समेत समाजवादियों ने खुल कर समर्थन किया। उनकी जीत हुई और हिन्दी की स्वीकार्यता बढ़ने लगती है। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने इसी बात का बराबर जिक्र किया है।

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पिछले साल हरिद्वार में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत अगले पन्द्रह सालों में अखण्ड भारत का सपना साकार करने की बात शुरु करते हैं। इसी बात पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए उन्होंने जन-दक्षेस पर ध्यान केंद्रित किया। अस्सी के दशक में सरकार आठ पड़ोसी देशों के साथ क्षेत्रिय सहयोग संगठन दक्षेस (सार्क) शुरू करती है। यह दक्षेस नाम इसे उन्होंने ही दिया था। इसमें जन-दक्षेस जैसे समूह की भूमिका चिन्हित करते हैं। विभाजन की पीड़ा देखने के साथ ही अखण्ड भारत के सपनों को महर्षि दयानंद की दृष्टि संग आर्यावर्त के विशालता की बात करते हैं। गोलवलकर गुरुजी के अखण्ड भारत और लोहिया के भारत-पाक एकता को व्यापक परिधि में देखने का कौशल उनकी पहचान है। इस क्षेत्र की सीमा पूरब में म्यांमार के अराकान से शुरु होकर पश्चिम में ईरान के खुरासान तक जाता है। उत्तर में तिब्बत (त्रिविष्टुप) से दक्षिण में मालदीव तक यह फैला है।

यूरोपीयन यूनियन की सम्पन्नता से इसकी तुलना करते हैं। इसमें थाईलैंड और संयुक्त अरब अमीरात जैसे देशों को जोड़ने की भी बात करते हैं। इस सीमा में निहित संपदा को यूरोप से कहीं अधिक मापते हैं। इनका दोहन कर अगले पांच सालों में ही संपूर्ण दक्षिण और मध्य एशिया (आर्यावर्त्त) के लोग यूरोपीय लोगों से भी अधिक मालदार बन सकते हैं। ऐसी भविष्यवाणी करते हैं। सांस्कृतिक एकता को उन्होंने इसका मूल आधार माना है। पिछले एक दशक में ही उनसे इस मामले में बराबर बातचीत हुई। अंतिम क्षण तक पड़ोसी मुल्कों में बसने वाले मित्रों के साथ जन-दक्षेस की कल्पना साकार करने में लगे रहे। स्वामी अग्निवेश और डा वैदिक के साथ 2015 में लालाजी के 150 साल पूरा होने का जश्न हमने खूब मनाया था। वैदिक जी का जीवन निश्चय ही ज्ञान के प्रकाश का प्रतीक है।

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