भाईचारे की मिसाल है दिल्ली का दंगा! दिल्ली के कई इलाकों में हुए दंगे को सांप्रदायिक उन्माद के रूप में पेश करने की कोशिश हो रही है। इस तरह की नैरेटिव बनाने की कोशिश हो रही है कि हिंदुओं ने मुसलमानों को या फिर मुसलमानों ने हिंदुओं को मारा। अगर आप ऐसा सोचते हैं तो आप एक सिरे से गलत सोचते हैं। आप उन इलाकों में जाएं जहां दंगा हुआ।
आप वहां लोगों के बीच थोड़ा वक्त गुजारे, तो मेरी बात ठीक से समझ में आएगी। लोग हैरान हैं कि दंगा भड़काने, आगजनी करने वाले लोग अचानक कहां से आए? आज दंगाइयों को न तो हिंदू पहचान पा रहे हैं और ना ही मुसलमान। तो फिर सवाल वही, दंगा किसने किया? घरों को किसने जलाया? गाड़ियां किसने फूंकी? बेकसूरों पर गोलियां किसने बरसाई? दंगों में हुई 42 से ज्यादा मौतों के लिए जिम्मेदार कौन है?
इसे जानने-समझने के लिए दंगे की पृष्ठभूमि को समझना जरूरी है। बीते ढाई महीने से देश के अलग-अलग राज्यों में संविधान को नकारने वाले CAA, NRC और NPR के खिलाफ जबरदस्त आंदोलन चल रहा है। दिल्ली का शाहीन बाग हो या लखनऊ का घंटाघर, केरल, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, बिहार, बंगाल, नॉर्थ ईस्ट से लेकर दिल्ली तक, आम लोग, स्कूल-कॉलेज-यूनिवर्सिटी के छात्र इस आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रहे हैं और इसके विरोध में सड़कों पर हैं।
केंद्र सरकार की तमाम कोशिशों के बावजूद न तो इन राष्ट्रविरोधी कानूनों के खिलाफ आंदोलन कमजोर पड़ रहा है और ना ही लोगों का मनोबल टूट रहा है। इन कानूनों के समर्थन में नैरेटिव बनाने के केंद्र सरकार के सभी प्रयास विफल रहे हैं। ऐसे में सरकार के सामने एक ही रास्ता था कि कुछ ऐसा किया जाए, जिससे आंदोलन कर रहे लोगों का मनोबल टूट जाए और इसे दो समुदायों की आपसी लड़ाई बना दिया जाए ताकि मूल मुद्दा गायब हो जाए। दिल्ली में बीजेपी की करारी हार ने भी सरकार की इस सोच को मजबूत बनाया। दिल्ली चुनावों में गोली मारने और करंट लगने जैसे नारे इसी तिलमिलाहट की तस्दीक करते हैं।
अफसोस! जब सरकार तमाम कोशिशों के बाद भी आंदोलन को विफल नहीं कर पाई तो कपिल मिश्रा जैसे लोगों को सामने लाया गया। दिल्ली पुलिस के डीसीपी के सामने ही घरने पर बैठे लोगों को धमकी दी गई। ताकि संदेश साफ हो कि ये आदेश कपिल मिश्रा जैसे कायरों का नहीं, सरकार का है। दरअसल सरकार कोर्ट और पुलिस से जो काम नहीं करवा पाई उसके लिए रास्ता तलाश रही थी, ताकि देशभर में CAA, NRC NPR के खिलाफ फैल रहे आंदोलनों को किसी तरह रोका जाए। इसके दायरे को समेटा जाए। लोगों के मनोबल को तोड़ा जाए।
जब डराने-धमकाने से काम नहीं बना, गोली-बोली से बात नहीं बनी तो इसके लिए प्रायोजित गुंडों का सहारा लिया गया, जिसकी ना तो कोई जात होती है और ना ही कोई धर्म। उन्होंने प्रशासन और पुलिस की मौन सहमति और समर्थन से इन दंगों को बाखूबी अंजाम दिया। ताकि संविधान को बचाने की लड़ाई को सांप्रदायिकता के रंग में रंगा जा सके। जाहिर है लड़ाई आपसी या दो समुदायों के बीच की नही, बल्कि CAA, NRC और NPR के खिलाफ सरकार से है। लिहाजा, दंगा भड़काकर आंदोलनों से सरकार को आहिस्ता से बाहर निकालने की कोशिश की गई।
चाहे उत्तर प्रदेश का मुजफ्फरनगर, मेरठ हो या दिल्ली का मुस्तफाबाद, दंगे के बाद लोगों की नाराजगी पुलिस और प्रशासन से ही नजर आई, जो केंद्र और राज्य सरकार की नुमाइंदगी करते हैं। उत्तर प्रदेश में गोलियां पुलिस ने चलाईं और दिल्ली में भाड़े के गुंडों ने। जो पूरी तैयारी के साथ आए और पुलिस के संरक्षण में दंगा, आगजनी और हत्या की घटनाओं को अंजाम दिया। लोगों के सैकड़ों कॉल के बाद भी पुलिस न तो किसी हिंदू को बचाने आगे आई और न ही किसी मुसलमान को। वो किसी आदेश का इंतजार करती रही।
ऐसे में जाहिर है कि उत्पात भाड़े के गुंडे और समाज में मौजूद अपराधी किस्म के लोगों ने मचाए, जो ना तो हिंदू होते हैं और ना ही मुसलमान। हां, उनकी पैदाइश जरूर किसी जाति और धर्म होती है। जो अकसर दंगे की सूरत में समाज को कन्फ्यूज करने के काम आती है। ऐसे में आज CAA, NRC और NPR को लेकर सरकार के खिलाफ चल रही लड़ाई को सांप्रदायिक दंगे में उलझाने की कोशिश नाकाम ही साबित हो रही है।
अगर ऐसा नहीं होता तो इन दंगों को पूरी दिल्ली या फिर देशभर में फैलना चाहिए था। लेकिन मीडिया के एक तबके और सरकार की तमाम कोशिशों के बावजूद ऐसा नहीं हो पाया। देश और समाज के दो समुदायों को आपस में लड़ाने, अमन-चैन और भाईचारे को आग लगाने की तमाम कोशिशें भी नाकाम हो गई। क्योंकि आज लोगों को अच्छी तरह मालूम है कि इन दंगों के पीछ किनके हाथ हैं और इन दंगों का मकसद क्या है? तभी इन इलाकों में लोग अपनी बची-खुची जिंदगी, साजों-सामान और कारोबार को फिर से जमाने की कोशिश कर रहे हैं। और इनमें समाज के हर तबके के लोग आगे बढ़कर एक-दूसरे की मदद करते नजर आ रहे हैं।
हां, राजनीतिक दलों के फर्जी नारों से उनका विश्वास जरूर टूट गया है। दिल्ली चुनावों में सार्वजनिक रूप से टेलीविजन चैनलों पर हनुमान चालीसा का पाठ करने वाले केजरीवाल की भी कलई खुल गई है। जिन्होंने दंगे को अपनी मौन सहमति दी और जब दिल्ली में दंगाई और अपराधी लोगों को गोलियों से भून रहे थे तो आम आदमी पार्टी के सभी नेता अपने-अपने घरों में दुबके रहे। केजरीवाल की फर्जी धर्मनिरपेक्षता खुलकर सामने आ गई। बीजेपी से ना तो कोई उम्मीद थी और ना ही उनके कोई नेता ने आग बुझाने में कोई दिलचस्पी दिखाई। देशभर में जर्जर हो चुकी कांग्रेस और लेफ्ट पार्टियों भी इस संजादा मौके पर अपनी दमदार भूमिका निभाने या मौजूदगी दिखाने तक में नाकाम रहीं।
सांप्रदायिक दंगे का इतिहास उलट कर देख लीजिए। ज्यादातर दंगे मंदिर-मस्जिद, गाय-सूअर, धार्मिक जलसे-जुलूस, शमशान-कब्रिस्तान की जमीन, आपसी छेड़छाड़ आदि को लेकर ही होते रहे हैं। लेकिन उत्तर प्रदेश और दिल्ली के दंगे में ये सारे तत्व गायब हैं। सब जगह एक ही मुद्दा है CAA, NRC और NPR। सवाल ये है कि समाज के लोग, जिसमें हर धर्म और समुदाय के लोग शामिल हैं, CAA, NRC और NPR को लेकर मोदी सरकार का विरोध क्यूं कर रहे हैं?
इसका सीधा और सरल जवाब है कि ये संविधान की अनदेखी करता है। ये समाज को बांटता है और देश की धर्मनिरपेक्षता के लिए खतरा है। ये दंगा दरअसल मोदी विरोधियों को सबक सिखाने के लिए राज्य सरकार की ओर से लोगों के मनोबल को तोड़ने के लिए प्रायोजित किए गए, जिसमें उन लोगों के जानमान की सबसे ज्यादा छति हुई जो इन कानूनों के विरोध में बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रहे थे। ऐसे में ये बात बेलाग तरीके से कही जा सकती है कि दिल्ली या उत्तर प्रदेश का दंगा सांप्रदायिक दंगा नहीं है और इनमें किसी हिंदू ने मुसलमान को और किसी मुसलमान ने हिंदू को नहीं मारा।
लेखक संजय कुमार राज्यसभा टीवी के एक्जीक्यूटिव प्रोड्यूसर रह चुके हैं. उनसे संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है.