उत्तर प्रदेश सरकार ने कम उपस्थिती वाले स्कूलों को बंद करने का फैसला सरकारी शिक्षा प्रणाली को मजबूत बनाने के माननीय उच्च न्यायालय के निर्णय के विरूद्ध है। यह प्रदेश की पहले से ही जर्जर प्रारंभिक सरकारी शिक्षा व्यवस्था को और बदतर बनाएगा। सरकार का यह फैसला नागरिकों को कल्याणकारी राज्य देने के संवैधानिक दायित्वों से मुंह चुराना है। निजी विद्यालयों और कारपोरेट शिक्षा प्रणाली के पक्ष में लिए गए इस निर्णय से छात्राएं और दलित, अल्पसंख्यक, आदिवासी जैसे समाज के वंचित वर्ग की बुनियादी शिक्षा पर विपरीत प्रभाव पडेगा।
सरकार का यह तर्क कि जिन विद्यालयों में बच्चों की उपस्थिति कम है को बंद किया जायेगा बेईमानी है। क्योंकि बच्चों की उपस्थिति कम होने का कारण सरकारी प्राथमिक स्कूलों में गुण्वत्तापूर्ण शिक्षा का अभाव है जिस पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने भी आक्रोश जताते हुए कहा था कि इसका हल यहीं है कि राजनेताओं और अधिकारियों के बच्चों को इन विद्यालयों में पढ़ाया जाएं तभी सरकारी विद्यालयों की दशा में सुधार हो सकता है। गौरतलब है कि प्रदेश में पहले से ही स्कूल ना जा सकने वाले बच्चों की बड़ी तादाद है, ड्राप आउट दर भी तकरीबन 55 – 60 फीसदी है. मोदी सरकार बाल श्रम में कार्यरत बच्चों के विशेष स्कूल अपने कार्यकाल के पहले ही वर्ष में बंद कर चुकी है।
मर्जर के नाम पर स्कूल बंद करके प्रदेश सरकार शिक्षाधिकार कानून के अनुसार 9-14 साल के हर बच्चे को शिक्षा पहुचने के संवैधानिक दायित्व से भी मुकर रही है। इसलिए प्रदेश सरकार को इस फैसले को वापस लेकर स्कूलों की गुणवत्ता सुधारने काम करना चाहिए यह बातें आज प्रेस को जारी अपने बयान में जन मंच उत्तर प्रदेश की समन्वयक डा0 वीणा गुप्ता ने कहीं।
उन्होंने कहा कि बुनियादी शिक्षा हर धर्म और जाति के हर बच्चे का हक है। जब तक इन स्कूलों में बच्चे हैं, भले ही कम हों संविधान इन स्कूलों को बंद करने की इजाजत नहीं देता। शिक्षा के बिना विकास कैसे हो सकता है, यह बात समझ से परे है। सरकार ने इस फैसले से सरकारी स्कूलों को बंद करके प्राइवेट स्कूलों को मदद पहुचा कर शिक्षा के बाजारीकरण की ओर एक ओर कदम बढाया है. प्रदेश के 50 फीसदी से ज्यादा स्कूलों में बुनियादी संरचनाओ के साथ अध्यापकों का बहुत अभाव है. न पुस्तकालय हैं न प्रयोगशालाएं, शौचालयों व खेल के मैदान की स्थिति तो और भी ज्यादा खराब है।
तराई के बाढ़ ग्रस्त क्षेत्रों में बरसात में पानी भरा रहता है, उसके बाद महीनों पानी सूखने में लगते है. पढाई का आधा सत्र बीत जाने के बाद किताबें पहुचती हैं, यूनिफार्म और बस्ते के स्कूल में पहुचने की कोई समय सीमा नहीं है, सब सरकार की मर्जी पर है। अध्यापक तीन आवश्यक ड्यूटी जन गणना, चुनाव और आपदा के अतिरिक्त कोई ड्यूटी नहीं करेंगे, कानून बन जाने के बाद भी लागू नहीं हो पाया है.
आज भी महीनों तक प्राइमरी के अध्यापक बोर्ड में ड्यूटी करने और कापी जांचने को मजबूर है. इस अवधि में स्कूल बंद रहते हैं. स्पष्ट है कि सरकार प्रारम्भिक शिक्षा में सुधार के लिए गंभीर नहीं है. प्रदेश सरकार का दायित्व है कि स्कूलों की गुणवत्ता सुधारे और उपस्थिती सुनिश्चित कराये. नागरिक समाज की भी जिम्मेदारी है कि वे सरकार को उसका दायित्व याद दिलवाएं. हम सभी संस्थाओं और संगठनों से भी अपील करते है कि प्रदेश के बच्चों और भावी पीढी के सुनहरे भविष्य के लिए, व् शिक्षाधिकार कानून में वर्णित बच्चों के अधिकारों के लिए आगे आयें. यदि यह निर्णय वापस नहीं लिया गया तो संघर्ष के लिए मजबूर होना पड़ेगा.
जन मंच, उत्तर प्रदेश की ओर से डा. वीणा गुप्ता द्वारा जारी.