नागेंद्र प्रताप-
उम्मीद दिख रही थी. उम्मीद खत्म भी नहीं हुई थी कि आखिर चले गए अतुल ‘अनजान’!
कल शाम लखनऊ के 22 कैसरबाग में जैसा हुजूम उमड़ा, अतुल जी उसके हक़दार थे। 22 कैसरबाग, यानी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का दफ़्तर… यह सिर्फ एक पता नहीं, एक मुकम्मल पहचान है हमारे छात्र जीवन के दिनों की, ऐसी पहचान जो दिलों में कब जज़्ब हो गई, पता ही नहीं चला। शाम को भैंसा कुंड (बैकुंठ धाम) के विद्युत शवदाह गृह में उन्हें अग्नि के हवाले कर दिया गया। कॉमरेड अतुल अब अंतिम रूप से जा चुके हैं। लेकिन इतना तय है कि वहां भी फ़ैज़, कैफी या जा निसार अख़्तर और शैलेंद्र या शलभ को ही गुनगुना रहे होंगे… कि “नफस नफस, कफस कफस…” या “…ये दिन भी जायेंगे गुजर…”। या फिर किसी साथी को बोल रहे होंगे ‘चलना है किसानों के साथ खड़े होने के लिए’ या ‘तैयारी करो आ रहा हूं घोसी से नामांकन करने… ’। ज़ाहिर है, जब वह ऐसा कुछ कह रहे होते तो इतना ही नहीं कह रहे होते… आगे पीछे बहुत कुछ होता।
कुछ दृश्य याद आ रहे हैं!1977 की बात है। हम लखनऊ यूनिवर्सिटी के छात्र थे। छात्र संघ चुनाव का दौर था। अतुल अनजान (अतुल कुमार सिंह अनजान) अध्यक्ष पद के प्रत्याशी थे। उसी दौरान हमारी उनसे पहली औपचारिक मुलाकात हुई थी। अतुलजी अपने प्रचार जत्थे के साथ थे, फ़िलोसोफ़ी विभाग के सामने से गुजरते हुए। मैंने ही आगे बढ़कर उनसे हाथ मिलाया था और अतुलजी ने मामूली परिचय के बाद बहुत मज़बूती से हाथ थाम लिया था, कुछ देर तक अपने हाथ में मेरा हाथ थामे चलते रहे। यह अतुल अनजान का खास अंदाज था, गर्मजोशी वाला। मज़बूती से थामा यह हाथ आख़िरकार कल सुबह उन्होंने छोड़ दिया। मेयो में हुई अंतिम मुलाक़ात में अपने ही अंदाज में उलाहना भी दी, ‘आपको तो रोज़ आने की बात हुई थी, कहां ग़ायब हैं…’ फिर वही मूंछों में मुस्कुराने वाला चिरपरिचित अंदाज ‘… हां आप तो बड़े पत्रकार हैं, टाइम नहीं मिलता होगा…!’
लखनऊ विश्वविद्यालय का कैशियर ऑफ़िस तब जुटान का एक बड़ा और प्रमुख अड्डा होता था। एक फ़्लोर के इस भवन की छत पर मंच बन जाया करता, जिस पर चढ़कर छात्र नेताओं के बड़े-बड़े भाषण होते। अतुल अनजान उसमें सबसे ऊपर थे। उनके भाषण छात्रों पर बहुत गहरा असर करते। छात्रायें तो उनकी ग़जब की मुरीद रहतीं। यूं ही नहीं था कि अतुल अनजान को उस चुनाव में इस तरह ज़बरदस्त वोट मिले कि दूसरे गुट ने हंगामा कर दिया और इस हद तक किया कि मतदान रद्द करना पड़ा। मुझे याद है कि दोबारा वोटिंग हुई और फिर भी ज़बरदस्त जीत हासिल हुई। छात्राओं ने अप्रत्याशित तरीके बढ़-चढ़ कर वोट दिए। कैलाश हॉस्टल तब लड़कियों के लिए मतदान का अलग से केंद्र बना था। उस चुनाव में मैं उनका पोलिंग एजेंट (कैलाश हॉस्टल के लिए) भी था और बाद में काउंटिंग एजेंट भी।
उसी चुनाव के दौरान की घटना है। किसी मुद्दे पर प्रदर्शन था और पुलिस उन्हें पहले ही उठा ले गई। रात भर हसनगंज थाने में रखा। टीपी सिंह नाम का थाना इंचार्ज था। उसकी कुछ अलग ही खुन्नस थी उनसे शायद, तो उसने उन्हें जमकर पीटा। हाथ में फ़्रैक्चर आ गया। केजीएमसी के, और उस समय के सबसे बड़े आर्थोंपेडिक सर्जन ओपी सिंह ने उनका इलाज किया।
खैर, अतुल हाथों में वह प्लास्टर बांधकर अपना प्रचार करते रहे। मुझे कहने में गुरेज नहीं कि वह प्लास्टर भी उनकी भारी मतों से जीत का बड़ा कारण बना। टीपी सिंह का तो इंतज़ाम हो ही गया। उस कांड के बाद ऐसा समां बंधा कि, कैम्पस में नारा चल पड़ा – ‘जान-जान अतुल अनजान…मेरी जान, तेरी जान, अतुल अनजान-अतुल अनजान’। यह नारा कैलाश हॉस्टल से आया था।
अतुलजी वो थाने में पिटाई का क़िस्सा बहुत रस लेकर बताते थे, कि किस तरह टीपी सिंह ने उनका नाम पूछा…
पूरा नाम- अतुल अनजान
अरे पूरा नाम- अतुल कुमार सिंह ‘अनजान’
टीपी बोला- “अच्छा ठाकुर हो…तभी झेल गए…” (उसका इशारा उसकी लाठियों से था)
टीपी सिंह नाम का वह इंस्पेक्टर बहुत बदमाश था और जानबूझकर कैम्पस के लिए ही भेजा गया था और छात्रों को डराने के लिए अपने ‘गैंग’ के साथ परिसर में हॉकी लेकर घूमता था। बाद में उसका ठीक-ठाक इंतज़ाम हो गया था।
एक क़िस्सा 1986 का है। प्रगतिशील लेखक संघ का स्वर्ण जयंती सम्मेलन था। लखनऊ के रवींद्रालय प्रेक्षागृह में मुल्कराज आंनद को उसका उद्घाटन करना था। मंच पर बोलते वक्त अतीत की याद करते गए वह इतना जोश और उत्तेजना में आ गए कि डायस पर ही बेहोश होकर गिर पड़े। अगली ही पंक्ति में बैठे अतुल जी इतनी तेज़ी से मंच पर पहुंचे कि उनके गिरने के पहले ही हाथों में उनका सिर सम्भाल लिया। मुल्कराज आंनद की उलटियों से उनका कुर्ता सराबोर हो गया। उन्हें अस्पताल लेकर वही गए थे। मुल्कराज आंनद स्वस्थ हुए तो सबकी सांस लौटी। एक बड़े अवसर पर एक बड़ा हादसा होते रह गया। वैसे उसमें रवींद्रालय के एसी यानी पावर सिस्टम का बड़ा योगदान था, जिसके कारण हाल में ख़ासी उमस हो गई थी।
अतुल जी 1979 में एआईएसएफ (आल इंडिया स्टूडेंट्स फ़ेडरेशन) के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने। तिरुचिरापल्ली सम्मेलन में। यह उन्हीं की पहल थी कि मैं उस सम्मेलन में बतौर डेलिगेट शामिल हुआ। अगर भूल नहीं रहा हूं तो कॉमरेड अमरजीत कौर उसी सम्मेलन में एआईएसएफ महासचिव चुनी गई थीं। मैं, अम्बरीश राय, समरजीत सिंह भंडारी और अन्य कई साथियों के साथ लखनऊ से शामिल हुआ था।
अतुल जी की ही पहल पर एआईएसएफ की ओर से (शायद पहली बार) एक पत्रिका का प्रकाशन हुआ था (अंग्रेज़ी और हिन्दी में) ‘स्टूडेंट एक्शन’। इसके शुरुआती एक-दो अंक में ही मेरा एक लेख और फिर प्रख्यात चित्रकार रणवीर सिंह बिष्ट (तब लखनऊ आर्ट कॉलेज के प्राचार्य) से मेरी लम्बी बातचीत प्रकाशित हुई थी। यह उनका ‘आदेश’ था। आदेश तो नियमित लिखने का था, लेकिन शायद पत्रिका लम्बी नहीं चली या मैं पत्रकारिता करते हुए नौकरी में आ गया, वह सिलसिला आगे नहीं बढ़ा। ‘स्टूडेंट एक्शन’ का एक अंक कहीं रखा हुआ है, लेकिन शायद इतना सुरक्षित हो गया कि इस वक्त ढूंढे नहीं मिल रहा।
खैर, किस्से बहुत हैं। किस्से 22 कैसरबाग से विद्युत शवदाह गृह तक तैरते रहे तमाम। उनके इंतक़ाल की खबर फैलने के साथ फ़ेसबुक और व्हाट्सएप पर लगी संवेदनाओं की झड़ी (जिसमें कोरी संवेदना ही नहीं तमाम यादें भी हैं) से लेकर अंतिम विदाई तक पार्टी लाइन से अलग हटकर उमड़ी भीड़ में से इतने किस्से निकले हैं कि इन्हें थोड़ा तरतीब दे दिया जाय तो अतुल ‘अनजान’ पर एक किताब ही शाया हो जाए। अतुल ऐसी ही विदाई के हक़दार थे।
अलविदा कॉमरेड अतुल अनजान! आप हमारी स्मृतियों में हैं और रहेंगे!
पुनश्च: संभव है स्मृति के आधार पर लिखे गए इस पीस में कुछ तथ्यात्मक चूक हुई हो। आप ध्यान दिलाएंगे तो सुधार दिया जाएगा क्योंकि सुधार की गुंजाइश तो हमेशा है!