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सुख-दुख

इस गालीबाजी और बॉसगिरी की एक लंबी श्रृंखला बनी हुई है!

सत्येंद्र पीएस-

नुष्य का जीवन कामसुख और धन कमाने में लगा हुआ है। बच्चा जैसे ही पैदा होता है, उसको स्कूल में डाला ही इसीलिए जा रहा है कि वह ज्यादा से ज्यादा धन कमाए। कम से कम मध्य और निम्न मध्य वर्ग की अभिलाषा यही होती है कि उसका बच्चा बड़ा होकर किसी अच्छी कम्पनी में नौकर बन जाए, जहाँ उसे मोटी सैलरी मिले।

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मोटी सैलरी की परिकल्पना उसकी परिधि के भीतर वाली ही होती है। वह ऑफिस में जिस व्यक्ति से गालियां खा रहा होता है, यानी उसका बॉस, उस पोजिशन पर वह अपने बाल बच्चों को देखना चाहता है कि मेरा बेटा, मेरी बेटी भी बड़े होकर दूसरों को गालियां दें, उन्हें कोई गाली न दे। इस गालीबाजी, बॉसगिरी की एक लंबी श्रृंखला बनी हुई है, जो बिल्कुल भारतीय जाति व्यवस्था की हायरार्की की तरह है, जिसमें हर कोई किसी न किसी को गाली देकर और किसी न किसी से गाली खाकर खुश है और अपनी जाति ऊंची करने में लगा है।

बौद्ध विद्वान सत्यनारायण गोयनका को सुन रहा था, जिन्होंने एक बड़े मार्के की बात कही। उन्होंने कहा कि बनिया के घर पैदा होने का एक बड़ा लाभ मिल गया। हमारी तीसरी पीढ़ी थी, जो वर्मा में पैसे कमाने गई थी। 2 पीढ़ी के लोग कमा चुके थे, और पैसे कमाने गए थे तो पूरी एनर्जी पैसे में झोंक दी। एवरेज से बहुत ज्यादा पैसा कमाया और मैं भी उसी में लग गया। लेकिन यह समझ मे आ गया कि किसी देश का सबसे अमीर आदमी बन जाने में भी सुख नहीं है!

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भारतीय दर्शन में 4 पुरुषार्थ बताए गए हैं, धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष। मतलब धन कमाएं, काम सुख लें, धर्म कार्य करें और मोक्ष पाएं। धन कमाने और काम लगाने के बाद लोग अगर दुखी और व्याकुल होते हैं तो गंगा नहाने या मन्दिर में दान कर देते हैं और उसी को धर्म मान लेते हैं कि अब दुःखो से मुक्ति मिली। ईश्वर को मोटी रिश्वत दी, वह खुश हुआ और सीधा स्वर्ग भेजेगा, वहां अप्सरा वग़ैरा का अच्छा इंतजाम रहेगा!

अमीर लोग हर चीज को बनियागिरी के हिसाब से देखते हैं। उनको लगता है कि हजारों मजदूर से काम करा लिया, साफ सफाई, झाड़ू पोछा, खाना बनाना वगैरा नौकर से करा लिया। और मजदूरों से जो सरप्लस कमाई बची उससे अरबपति बन गए। उसी तरीके से ईश्वर का मसला है। धरती पर ईश्वर के नौकरों को खुश कर लिया, नौकरों को धन दान दे दिया, उन्होंने जय जय कर दी, तो मलिकार भी खुश होकर स्वर्ग का इंतजाम कर देंगे, इस लोक में सुख दे देंगे। लेकिन ऐसा होता है क्या? आप पानी पीना, हगने जैसा काम अभी नौकर को नहीं सौंप पाए हैं, अपनी यौन उत्तेजना और सुख नौकर को नहीं सौंप पाए हैं कि यह दूसरा कोई कर दे और आपको सुकून मिल जाए तो फिर ईश्वर को कैसे पैसे से खरीद सकते हैं जिसे कभी देखा ही नहीं, उसके बारे में कुछ पता ही नहीं है?

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बंगाल में पाल वंश के शासन के दौरान 1000 ईसवी के आसपास एक बौद्ध दार्शनिक हुए atisha.. इन्हें आतिश दीपंकर के नाम से भी जाना जाता है। राजपरिवार के थे, लेकिन व्याकुल। उन्होंने जावा, सुमात्रा, तिब्बत, मंगोलिया और पूर्व सोवियत संघ के कई देशों में वज्रयान के तरीके से लोगों को जीना सिखाया। उनके मुताबिक पुरुष/मनुष्य 3 प्रकार के होते हैं। उन्होंने पुरुषार्थ में अर्थ और काम को जोड़ा ही नहीं। उनका कहना था कि अर्थ यानी खाना पीना रहना और सेक्स का इंतजाम तो कोई भी जीव कर लेता है, इसमें कोई खास बात नहीं है। उन्होंने 3 तरह के पुरुषों को उत्तम बताया। उनके त्रिपुरुषार्थ में अधम पुरुष, मध्यम पुरुष और महा पुरुष शामिल हैं।

अधम पुरुष यानी जो व्यक्ति जीवन की सुख सुविधाएं और उसके साधन जुटाने में लगा रहता है और साथ ही परलोक की चिंता करता है, भविष्य के बारे में सोचता है, मोक्ष के बारे में सोचता है कि मरने के बाद उसका परलोक बेहतर रहे। उसकी मंशा होती है कि अगले जन्म में मनुष्य या देवता बन जाए।

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मध्यम पुरुष वह होता है जो खुद मोक्ष पाने के लिए शील, समाधि और प्रज्ञा का पालन करते हैं। उनकी कवायद होती है कि वह खुद बुद्ध यानी अरहन्त बन जाएं। उनकी कवायद होती है कि वह जगत के दुःखो से मुक्ति पा लें। जगत के बंधन से, इसके सुख दुख से मुक्ति मिल जाए।

महा पुरुष वह होता है जो समस्त जीवों के हित और बेहतरी की कामना करता है। वह समस्त सत्वों के हित के लिए बुद्धत्व की प्राप्ति की अभिलाषा रखता है। बुद्धत्व को प्राप्त कर समस्त जीवों के हित की इच्छा रखता है, वह महापुरुष है।

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इसका मतलब यह है कि खुद तो एक अहिंसक जीवन जिये ही, दूसरों को भी जीने दे। दूसरों के कल्याण, सुख की इच्छा रखे, वही महापुरुष है। बौद्ध दर्शन का सहजयान या हीनयान मध्यम पुरुष बनाने पर केंद्रित है, जबकि महायान परंपरा महापुरुष बनने पर जोर देती है। यह दोनों ही शिक्षाएं गौतम बुद्ध ने दी हैं, कोई बुद्ध की शिक्षा से अलग नहीं है।

दूसरों का शोषण करके, दूसरों की कीमत पर अपना जीवन जीना मनुष्य के जीवन को अर्थरहित बना देता है। परहित के लिए जीना ही अर्थमय जीवन है। मतलब मनुष्य त्रिपुरुषार्थ तक जियें तो वह सही है, श्रेष्ठ है।

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