मनीष शर्मा-
2024 लोकसभा के लिए अपने चुनाव अभियान को आक्रामक तेवर व धार देने के के लिए जब नरेंद्र मोदी ने 400 पार का नारा दिया था तो इस नए लक्ष्य के पीछे या यूं कहिए कि इस नयी अवधारणा के केंद्र में उत्तर भारत या और ठोस रूप से कहिए तो उत्तर प्रदेश की वह जमीन थी जहां भाजपा लगातार विस्तार ले रही है और ताकतवर होती जा रही है।भाजपा नेतृत्व इस आत्मविश्वास से भरा हुआ था कि उत्तर भारत के वो सभी प्रदेश जहां वह सीटों के लिहाज से अपने चरम बिंदु पर पहुंच चुकी है यानि राजस्थान,गुजरात,दिल्ली हरियाणा,मध्यप्रदेश, उत्तराखंड आदि राज्यों में कुछ सीटे अगर संकट में पड़ी तो इसकी भरपाई बड़े आराम से उत्तर प्रदेश में अपनी ताकत को बढ़ाते हुए कर लिया जाएगा और इसी अनुमान के आधार पर उत्तर प्रदेश में अपनी सीटों की संख्या 62 से बढ़ाकर 72 से 75 तक कर लेने का आत्मविश्वास भाजपा का बना हुआ था।बतौर सांसद प्रधानमंत्री मोदी और और बतौर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के कर्म क्षेत्र का उत्तर प्रदेश में ही होना भी भाजपा के आत्मविश्वास को बनाएं और बढ़ाए रखने में मददगार साबित हो रहा था।पर अब दो चरणों के चुनाव के बाद की परिस्थितियों में ढ़ेर सारे गुणात्मक परिवर्तन दिखने लगे हैं।उत्तर प्रदेश के मतदाताओं की देह भाषा बदलने लगी है।सो आइए इस बदलाव को ठीक-ठीक चिन्हित करने के लिए कुछ ज़रूरी बिंदुओं पर थोड़ा विस्तार से बातचीत करते हैं..
वोट प्रतिशत में गिरावट को कैसे समझें?
पहले चरण के चुनाव में खासकर उत्तर प्रदेश में वोट प्रतिशत में भारी गिरावट बेहद चौंकाने वाली परिघटना है।इसे हल्के में नही लिया सकता है और अब दूसरे चरण के चुनाव में भी वोट प्रतिशत में गिरावट ने यह साफ कर दिया है कि मतदाताओं के मिजाज में बदलाव आ रहा है।यह बदलाव किस दिशा में आगे बढ़ रहा है इसकी पड़ताल करते हुए ज्यादातर राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि उत्तर प्रदेश में भाजपा का संकट बढ़ने वाला है,. दोनों चरण के चुनाव में भाजपा की जीती हुई सीटों पर वोट प्रतिशत की गिरावट 5 से 6 फीसदी है जो कि बहुत बड़ी है और विपक्ष की जीती हुई सीटों पर फकत 2 से 3 फ़ीसदी गौरतलब बात ये है कि नरेंद्र मोदी के उदय के साथ-साथ ही 2014 और फिर 2019 के लोकसभा चुनावों में मतदान प्रतिशत में बड़ी वृद्धि हुई थी और ठीक उसी समय भाजपा के वोट प्रतिशत में भी लगभग 13-14 फीसदी का बड़ा इजाफा हुआ था ।यही वह मतदाता समूह है जो इस बार उत्साहित नही है।इसका बड़ा हिस्सा मतदान केंद्र तक नही जा रहा है और अगर ऐसा हो रहा है तो इसका मतलब ये है कि मोदी और इस नए मतदाता समूह के बीच दरार पड़ने लगा है।इसका ये भी मतलब है कि 2014 और 2019 के मुकाबले, 2024 में मोदी फैक्टर या लहर कमजोर पड़ रहा है,और अगर सचमुच यह यह चुनाव आम चुनाव होने की तरफ बढ़ रहा है तो निश्चित तौर पर भाजपा के लिए संकट बहुत ज्यादा बढ़ने वाला है।पहले चरण के चुनाव ठीक बाद भाजपा नेतृत्व को भी लगने लगा है कि समर्थक मतदाताओं का एक बड़ा समूह निराश है और अपनी नाराज़गी घर में बैठ कर मतदान केंद्रों पर न जाकर व्यक्त कर रहा है।इन्ही वजहों से भाजपा को पहले चरण के बाद अपनी रणनीति में कुछ बदलाव करने पड़े हैं पहला ये कि मोदी सहित ज्यादातर भाजपाई नेतृत्व को मतदाताओं से बढ़-चढ़कर मतदान करने की अपील बार-बार करनी पड़ रही है और संगठन को और ज्यादा चुस्त-दुरुस्त करने की कवायद तेज करते हुए बूथ तक निगरानी श्रंखला पर फिर से नज़र डालनी पड़ी है।और दूसरा ये कि मोदी सहित सभी भाजपा नेताओं को अपने भाषणों को फिर सांप्रदायिक जहर से भरना पड़ा है।खुलेआम,मुसलमानों को घुसपैठिया,ज्यादा बच्चा पैदा करने वाला और हिंदुओं का धन लूटने वाला बताया जाने लगा है।बावजूद इसके अभी तक यह समर्थक मतदाता समूह उत्साहित नही दिख रहा है।ऐसे में यह जानना जरूरी हो जाता है कि मतदाताओं यह हिस्सा किन सामाजिक समूहों से आता है।
भाजपा और नए सामाजिक समूहों के रिश्ते में पड़ती दरार…
तथाकथित हिंदुत्व,राष्ट्रवाद और विकास के नये पैकेज के चलते 2014 और फिर 2019 में भाजपा के वोटों में 14-15 फीसदी का बड़ा इजाफा हुआ था।ये कौन लोग थे जो भाजपा की तरफ आकर्षित हुए थे।इस पर अगर आप उत्तर प्रदेश के नजरिए से ध्यान देंगे तो पाएंगे कि इन बढ़े हुए वोटो का बड़ा हिस्सा ओबीसी -दलित समाज से आया था और ठोस रूप से कहें तो इन्हें आप नान यादव ओबीसी और नान जाटव दलित समाज के रूप में ठीक-ठीक चिन्हित कर सकते हैं।पिछले दो चरणों के चुनाव के दौरान उत्तर प्रदेश में,यही वो सामाजिक समूह है जिसका एक बड़ा हिस्सा मतदान केंद्रों तक नही जा रहा है।जब आप इसकी पड़ताल करेंगे कि यह नया-नया भाजपा समर्थक आधार निराश क्यों है या मतदान केंद्रों तक क्यों नही जा रहा है तो पाएंगे कि इन सामाजिक समूहों से भाजपा के रिश्ते का कोई साकारात्मक आधार मौजूद ही नही था।भाजपा ने इनके साथ एंटी मुस्लिम एंटी यादव या जाटव आधार पर नकारात्मक रिश्ता बना रखा था।रोजी-रोटी के बढ़ते संकट,मुस्लिम विरोधी और यादव-जाटव विरोधी माहौल के कमजोर पड़ने और कोई सकारात्मक आधार उपलब्ध न होने के चलते ऐसा लग रहा है कि भाजपा और इन सामाजिक समूहों बीच अभी-अभी बने रिश्ते में दरार आने लगी है।पर दरार किस स्तर का है और ये किन प्रमुख वजहों के चलते आ रहा है यह देखना समझना भी बेहद जरूरी है…
कमजोर पड़ता हिंदुत्ववादी एजेंडा…
लोकसभा चुनाव से पहले और गणतंत्र दिवस के ठीक 4 दिन पहले अयोध्या में भव्य राम मंदिर के प्राण प्रतिष्ठा समारोह के समय का चयन संघ-भाजपा नेतृत्व ने दो बड़े मक़सद को ध्यान में रखते हुए किया था।पहला राजनीतिक मकसद तो इस उद्घाटन को 2024 के चुनाव का केंद्रीय प्रश्न बना देना था और दूसरा,भारतीय गणतंत्र पर हिंदू भारत की बरतरी की आगामी योजना की भव्य शुरुआत कर देनी थी पर राज्य मशीनरी और समूचे संगठन की पूरी ताक़त झोक देने के बावजूद बहुत जल्दी ही राम मंदिर का प्रश्न जिसे मोदी का मास्टर स्ट्रोक माना जा रहा था उत्तर प्रदेश की जनता के लिए केंद्रीय मुद्दा न रह कर सिमित प्रभाव वाले मुद्दे में तब्दील हो गया,पूजा स्थल एक्ट 1991को भी ताक पर रख कर काशी और मथुरा का प्रश्न भी बार-बार उभारने की कोशिश हुई ज्ञानवापी मस्जिद को तो लगभग कब्ज़ा ही कर लिया गया ताकि सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को तीखा किया जा सके पर एक सीमा के बाद यह भी नही हो पाया।आनन-फानन में सीएए लाया गया पर वह भी बेअसर रहा आप इस दौरान उत्तर प्रदेश की जनता से बात करें तो पाएंगे कि हिंदुत्व के सारे कोर मुद्दे अपनी केंद्रीयता बरकरार नही रख पा रहे हैं।चाहे वो 370 हो सीएए हो काशी मथुरा हो गाय हो लव जेहाद हो,धर्मांतरण कानून हो।ऐसे सभी मुद्दे ठीक इस चुनाव के दौर में राजनीतिक-सामाजिक वातावरण को विशाक्त बनाने की अपनी विराट ताकत खोते हुए दिख रहे हैं ।और इसके चलते मतदाताओं के जीवन से जुड़े कुछ बेहद गंभीर सवाल चुनावी मुद्दे के बतौर केंद्रीयता ग्रहण करते जा रहे हैं ये कौन से मसले हैं इसकी पड़ताल ज़रूर करनी चाहिए।
संविधान,सामाजिक न्याय, आरक्षण व रोजगार जैसे प्रश्नों का चुनावी मुद्दा बन जाना…
अबकी बार 400 पार के नारे प्रधानमंत्री मोदी और गृहमंत्री अमित शाह ने भी अपने भाषणों में बोलना दो वजहों से बंद कर दिया है।पहली वजह तो ये कि यह नारा हिंदुत्व की राजनीति का केंद्र बन चुके उत्तर प्रदेश और कुछ अन्य उत्तर भारतीय राज्यों में अचानक दिखने लगी कमजोरियों के चलते यथार्थ कम अतिशयोक्ति ज्यादा लगने लगा है।यानि बहुत बढ़ा-चढ़ा किया गया दावा लगने लगा है।इसके चलते इस नारे की साख ही दांव पर लग गई दूसरा ज्यादा बड़ा वज़ह ये है कि भाजपा के चार-चार लोकसभा प्रत्याशियों द्वारा संविधान बदलने के लिए 400 से ज्यादा सीटों की मांग अपनी सभाओं में खुलेआम किए जाने व विपक्ष द्वारा लगातार संविधान ख़तरे में है का आक्रामक अभियान संचालित किए जाने के चलते अब यह बात जनता के बीच में जाने लगी है कि भाजपा 400 सीट,आरक्षण संविधान, सामाजिक न्याय को खत्म करने के लिए चाहती है।इसी लिए आप देखेंगे कि नरेंद्र मोदी सहित सभी बड़े नेताओं को रक्षात्मक मुद्रा में आना पड़ा है।हर चुनावी सभा में सफाई देनी पड़ रही है।आरक्षण को बचाने,संविधान को बचाने की कसमें खानी पड़ रही हैं।इन सभी मसलों पर पूरी तरह से घिर चुके प्रधानमंत्री मोदी मुद्दे से भटकाने की कोशिश के तहत विपक्ष पर,दलित-ओबीसी से आरक्षण छीनकर मुसलमानों को दे देने का आरोप बार-बार लगाने लगे हैं यानि जातीय अस्मिता का जबाब धार्मिक अस्मिता से देने की नाकाम कोशिश की जा रही है।ठीक इसी तरह लाभार्थी शब्द भी अब सम्मानजनक शब्द नही रह गया है।हिंदुत्व के कमजोर पड़ने और कोई तात्कालिक राष्ट्रवादी मुद्दा न होने के चलते,लाभार्थी समूहों का ध्यान भी अपने बेरोजगार बच्चों और भयंकर महंगाई की ओर जाने लगा है।गौरतलब बात ये है कि तथाकथित लाभार्थी समूह का 95 फीसदी हिस्सा भी उसी ओबीसी-दलित समाज से आता है जिसे अचानक अपने संविधान और आरक्षण की चिंता होने लगी है।ऐसे में 5 किलो अनाज भी,उत्तर प्रदेश में पहले दो चरणों तक उतना उत्साहित करने वाला मुद्दा नही रहा।
धीरे-धीरे यह चुनाव जनता व विपक्ष द्वारा उठाए जा रहे आम मुद्दो की ओर लगातार झुकता जा रहा है और हिंदी प्रदेशों और खासकर उत्तर प्रदेश में दो चरणों के चुनावों में घटते वोट प्रतिशत को हमें इन्ही ख़ास संदर्भों के आईने में देखना चाहिए और प्रदेश में हो रहे,कुछ ख़ास बदलावों के बारे में स्पष्टता रहनी चाहिए.जैसे कि इस चुनाव में मोदी लहर या विपक्ष के पक्ष में लहर जैसी कोई बात नही रह गई है।हिंदुत्ववादी एजेंडा थोड़ा कमजोर पड़ता जा रहा है.विभाजनकारी राजनीति मारक क्षमता कम हुई हैं.और बालकोट जैसा,कोई तात्कालिक राष्ट्रवादी मुद्दा न होने के चलते भी, रोजी-रोटी,संविधान व सामाजिक न्याय का प्रश्न केंद्र में आ रहा है..यह चुनाव दरअसल,अब आम चुनाव होने की तरफ बढ़ता जा रहा है.
लेखक मनीष शर्मा की सक्रियता लगातार जन आंदोलनों में रहती है। इनका वामपंथी छात्र संगठन आइसा से जुड़ाव रहा है। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में छात्र राजनीति में सक्रिय रहे। फिलहाल वाराणसी में कम्युनिस्ट फ्रंट के संयोजक हैं। मो.9935498587