Hareprakash Upadhyay : कल निलय उपाध्याय से मुलाकात हुई। लखनऊ आये थे। करीब दिन भर साथ रहा। अरसे बाद उनके फेसबुक वाल पर जाना हुआ था। पता नहीं कैसे। मैंने या उन्होंने, पता नहीं किसने और किस कारणवश एक-दूसरे को अरसे से अनफ्रेंड किया हुआ है। मैंने ही किया होगा, तुनकमिजाजी बेहद भरी है मेरे भीतर। खैर, फेसबुक पर उनका स्टेटस था कि वे लखनऊ पहुँचने वाले हैं तो मैंने कमेंट कर दिया, लखनऊ आइएगा तो मिलिएगा। मुझे खुशी हुई कि मेरे अनुरोध का उन्होंने मान रखा।
निलय उपाध्याय
अरसे से मुझे उनकी गतिविधियों का कोई पता नहीं है। कहीं-कहीं से कभी-कभी उड़ती हुई, बहुत अस्पष्ट लगभग फुसफुसाहट वाली ध्वनि में यह सूचना आती थी कि मुंबई छोड़ दिया है उन्होंने। परिवार भी। और दर-बदर भटक रहे हैं। गंगोत्री से गंगासागर तक। मुझे दिलचस्पी नहीं थी। सबका अपना जीवन है। पर कल जब वे लखनऊ पहुँचकर फोन किये, तो कहा कि मिलने आना तो दो रोटी भी लेते आना, तो धक्क से लगा। बहुत चिंता हुई। पूछा कैसे आये हैं, तो अंदर से एक लगभग चहकती हुई आवाज़ में जैसे किसी बच्चे को मनपसंद खिलौना मिल गया हो, उन्होंने बताया कि एक मारूती ले ली है। बहुत खुशी हुई। पर उनसे मिलकर और उनकी मारूती से मिलकर लगभग रोना आया।
आप भी मिलते मित्रो, तो ऐसा ही हाल आपका भी होता। निलय जी को अगर आप जानते हैं और उऩको पढ़ा है, तो आप मिलकर निश्चित बहुत दुःखी होते। जितने जर्जर वे, उतनी ही जर्जर उनकी मारूती। मारूती में ही ठुँसी हुई गृहस्थी। कथरी-कमरी, बरतन-बासन, चूल्हा-चौका सब। किताब-कापी भी। जहाँ साँझ-वहाँ बिहान। मारूती ऐसी है कि चल रही है, तो चल रही है मगर उसके चलने का कोई भरोसा नहीं जगता। फर्रूखाबाद से आ रही है मारूती। किसी सज्जन ने अपनी गाड़ी का एक बढ़िया टायर निकालकर लगा दिया है इसमें। पर इस एक टायर के भरोसे कैसे चलेगी गाड़ी, पूछना था मुझे निलय जी से, पर पूछ नहीं सका। निलय जी भी लगभग वैसे ही। बीमार, बहुत ही कमजोर लगे। बार-बार कह रहे थे- इस साल बच गया, तो समझो बच गया वरना किसी अनजान जगह पर लुढ़का हुआ मिलूंगा।निराला की पंक्ति याद आयी, दुःख ही जीवन की कथा रही।
निलय उपाध्याय को लगभग बीस साल से जानता हूँ, जब वे एक युवा कवि थे और वे आरा से एक अख़बार निकालते थे। पाक्षिक। चंदा माँग-माँगकर। खुद ही लिखते थे और खुद ही बेचते थे। प्रकाशक के रूप में लक्ष्मी उपाध्याय, भाभी जी का नाम जाता था। उस अख़बार को लेकर इतने उत्साहित रहते थे कि उसे एक दिन जिले के चप्पे-चप्पे में बिछा देने का संकल्प जाहिर करते। एक दफ्तर भी बनाया। कुछेक स्टाफ भी रखा। उस अखबार को निकालने और जमा देने के जज्बे में शायद भाभी जी का एकाध गहना भी बिका। कुछ समय बाद अखबार बंद हो गया। पता नहीं कैसे। एक छोटी सी सरकारी नौकरी थी। वह भी रहस्यमय ढंग से छुटी या छोड़ी गयी। जेल गये। बदनाम हुए। अपना आरा छूटा। मुंबई चले गये। चार बच्चों और बीवी समेत पूरी गृहस्थी लादे। वहाँ क्या-क्या हुआ, पता नहीं। एक अरसे तक बीच-बीच में सूचनाएं मिलतीं, स्थितियाँ सुधर रही हैं। बच्चे पढ़ गये। काम में लग गये। ये फिल्म-वो सीरीयल। मुझे उनकी कोई फिल्म या सीरीयल देखने का सौभाग्य न मिला। इस बीच सूचना मिली कि वे गंगायात्रा पर निकले हैं। गंगोत्री से गंगासागर। बस।
करीब तीन साल पहले एक बार अचानक लखनऊ मेरे घर आये तो जिद कर मैंने उन्हें एक शाम घर पर रोक लिया था। बातें करते रहे काफी लंबी। ये उपन्यास, वो किताब। वो संगठन, वो प्रकाशन। गंगा में प्रदूषण। जन जागृति। साहित्य की दुनिया में व्याप्त तमाम बुराइयाँ वगैरह-वगैरह। सबसे लड़ने की बात। हो गयी बात। सुन लिया मैंने। हर आदमी का अपना रास्ता होता है। मैंने कहा, कभी आपके साथ कुछ दिन घूमेंगे। उसके बाद निलय जी से कोई वास्ता ही नहीं रहा।
इस बार की मुलाकात में पंजे भर टैब्लयाड अखबार, कई छोटी-छोटी पुस्तिकाएं। गंगोत्री से गंगासागर नाम की एक किताब दी उन्होंने मुझे। बहुत श्रद्धा से लिया मैंने। पढ़ूँगा आराम से। जहाँ जाते हैं, वहाँ लोगों को इसे देते हैं। लोग ले लेते हैं बस। जैसा कि उनकी बात से लगा, लोग ले लेते हैं। पैसे नहीं देते। पढ़ते भी नहीं हैं। निलय जी कहते हैं, लोग पढ़ते नहीं हैं। जो लोग पढ़ते हैं, वे किसी बदलाव में शामिल नहीं हैं। अब निलय जी लोक संस्कृति को जगा रहे हैं। जगह-जगह लोक गीतों को बचाने-बढ़ाने का संकल्प लिया है। गंगा के किनारे बसे शहरों और गाँवों में जाते हैं, महिलाओं और लोगों को जुटाते हैं, सभा-संगोष्ठी करते हैं। लोक संस्कृति और गीतों को ढूँढ़ते हैं। लोक गीतों को गवाते हैं। एक टीम बनाया है। लोक गायन की टीम। जगह-जगह उसके आयोजन करने हैं। उससे पैसा आएगा, निलय जी सोचते हैं। फिर उसी से बाकी काम भी होगा। जहाँ कुछ भले लोग मिल जाते हैं, हफ्ते-दस दिन रोक लेते हैं, वहीं से निलय जी एक अखबार निकाल देते हैं। अखबार है- ‘गंगा समय’।
‘गंगा समय’ में गंगा की चिंता है, गंगा किनारे बसे लोगों के तमाम सुख-दुख भी हैं। निलय जी से पूछा, आप क्या समझते हैं, इससे कुछ बदलेगा? आप पैसे-पैसे के मोहताज हैं। आपको उन्हीं भ्रष्ट अधिकारियों के आगे हाथ पसारने पड़ेंगे, जहाँ सब पसारते हैं। क्या फर्क पड़ने वाला है? निलय जी इसका कोई ठीक उत्तर नहीं दे पाते हैं। उनका परिवार चिंतित है। चाह रहा है कि वे फिर से पारिवारिक ज़िंदगी में लौट आएं। मैंने भी यही कहा। पर उनका कहना है कि क्या मुझे अपनी मर्जी से जीने का हक नहीं है? मैं किसी का क्या ले रहा हूँ? मैं जो कर रहा हूँ, वह मुझे अच्छा लग रहा है। एक लेखक का काम है, लोगों को जगाना, बताना, वह मैं कर रहा हूँ। निलय जी अपने मिशन में कामयाब हों। निलय जी के पास संपत्ति के नाम पर एक लैपटॉप है, जिसमें उनकी लिखी और अप्रकाशित बहुत सारी अप्रकाशित किताबें हैं। यह आदमी लगातार भटकते हुए, लिख कैसे ले रहा है? पर जो बचेगा, वह क्या रचेगा। जो जोखिम उठाते हैं, वही लिख पाते हैं।
पता नहीं, यह सब पढ़कर वे क्या सोचेंगे। कहीं नाराज तो नहीं होंगे? उनकी निजता को तो कहीं खोल नहीं दिया मैंने? पर जाने दीजिए। मुझे भी अपनी बेचैनियों को जाहिर करने का हक है। कल हिल गया, निलय जी से मिलकर।
पत्रकार और साहित्यकार हरेप्रकाश उपाध्याय की फेसबुक वॉल से. उपरोक्त स्टेटस पर आए ढेर सारे कमेंट्स में से कुछ प्रमुख इस प्रकार हैं…
Vijai Kumar Shukla पिछले दिनों मधुकर सर के साथ निलय सर से मिलना हुआ। मैं इतना प्रभावित हुआ कि उन पर एक लेख भी दिया था। उनके साथ रामकोला चीनी मील के गेस्टहाउस में संक्षिप्त कविता पाठ भी हुआ..
उमाशंकर सिंह परमार ओह … यह है जीवन की असली पहचान, सब कुछ छोडकर उतर गये सडक पर। सलाम निलय सर
Gopeshwar Singh निलय साधु हो गए हैं क्या हरेप्रकाश?
Hareprakash Upadhyay सर साधु होना, पता नहीं क्या होता है, पर आदमी जब भोजन तक को मोहताज हो, पर उसकी कोई चिंता नहीं। बस उसे अपने काम की धुन हो, तो उसे क्या होना कहते हैं, मुझे नहीं पता….
Gopeshwar Singh निलय से एक ज़माने में ख़ूब मिलना – जुलना होता था | पटना में वे दो – तीन बार मेरे घर भी आए थे | जब से मुंबई गए मुलाकात नहीं हुई |
Hareprakash Upadhyay अरसे से वे मुंबई नहीं हैं। वे लेखकों से अब नहीं मिल रहे
अनुनाद वाकई निलय जी कमजोर लग रहे हैं. दाे बरस पहले मेरे पास आए थे, तब ठीक थे…
Govind Mathur ये सब जान कर आश्चर्य हुआ और कहीं थोड़ा सुखद भी किऐसे समय में जब लोग ( कवि भी) सुख, सुविधा और संपन्नता के पीछे दौड़ रहें है । सम्मान – पुरस्कार के लिए जोड़ – तोड़ कर रहें है। एक कवि सब कुछ छोड़ निर्लिप्त भाव से निकल पड़ा है, कुछ सार्थक करने के लिए बिना किसी प्रचार के।
Lalita Asthana मुंबई में तो सब अच्छा चल रहा था…. कई सीरियल थे उनके पास।
Ajit Priyadarshi अब लेखक होकर और लेखक होने की यही सच्चाई है वरना हम सब तरतीबवार सुखी जीवन जीते लोग बस कलमघिस्सू हैं…
Anirudh Sinha बिल्कुल सही। पिछले साल वे मुझसे मुंगेर में मिले थे
आपका वल्लभ बहाव के साथ और अनिश्चितता में जीवन। अपना सुख पहचान लेना ही बड़ी बात है हरे भाई। शरीर को हज़ार सुविधा दें तब भी बीमार तो हो ही जाता है।
Vedpal Singh निलय जी कमजोर शरीर से है अंदर से बेहद मजबूत है फर्रुखाबाद प्रवास में उनके साथ 1 दिन बिताने का मौका मिला वह चाहते हैं कि उन्हें कोई सलाह देने के बजाय वह जो कुछ कर रहे हैं उसमें अपनी इच्छा के अनुसार सहयोग करें
Hareprakash Upadhyay आपकी बात सही है वेदपाल जी।
Satish Chandra Jha बेशक उनको अपनी चिंता नहीं है, लेकिन समाज को इस कालजयी व्यक्तित्व की चिंता जरूर करनी चाहिए.
Dwarika Prasad Agrawal जो घर फूंके आपना सो चले हमारे साथ
Lakshmi Upadhyay आपको व्यक्तिगत रूप से नहीं जानती माफ कीजियेगा लेकिन जो आप लिखे हैं उसके आधार पर आपको निलय उपाध्याय के साथ में होना चाहिए था
Dwarika Prasad मुझमें इतना साहस नहीं है Agrawal Lakshmi Upadhyay ji. मित्र मंडली में आपका स्वागत है.
Bikram Singh जो परिवार का नहीं हुआ वह और क्या करेगा। अपने सपनों के लिए बीवी बच्चों को झोक देना कहा कि अकलमंदी है। अपने आप को इस तरह करना ठीक नहीं। इन्हें किसी अच्छे मानसिक डॉक्टर की जरूरत है…
Neelotpal Ramesh निलय उपाध्याय कभी कमजोर हो ही नहीं सकते हैं| उनके अंदर जिजीविषा है जिसके बल पर वे कुछ भी कर लेंगे| आपने तो उनके अतीत को मेरे आंखों के सामने साकार कर दिया| बहुत सुंदर संस्मरण!
Umashankar Upadhyay आप इन्हें कनविन्स कीजिए कि ये अपने परिवार मे लौटें। चित्र में रूग्ण दिख रहे हैं।
Lakshmi Upadhyay मैं इस पोस्ट पर बोलना नहीं चाह रहीं थी फिर भी मैं अपने जज्बात को रोक नहीं पाई और बड़े दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि निलय उपाध्याय गणितज्ञ डा वशिष्ठ नारायण सिंह जिस मेंटल स्थिति में चले गए हैं, उसी मेंटल स्थिति जाना चाह रहे हैं… नहीं तो एक लेखक का ताकत उसकी कलम है और कलम कभी भटकती नहीं है.. जो काम कलम कर सकती है वो काम दुनिया की कोई ताकत नहीं कर सकती… जिद्द और जुनून सही है लेकिन पागलपन की हद तक नहीं..
Hareprakash Upadhyay आपकी बात सही है भाभी
Akhilanand Ojha भाभी से पुरी तरह सहमत हूं.. और जो लोग भैया को समर्थन करने वाली बातें लिखते हैं..वे खाए पीए अघाए लोग है..उनको दूसरे की फटेहाली विचलित नही करती..ऐ लोग अपने परिवार के लिए कुछ भी करने को तैयार होते..दूसरों को भटकता देख आनंदित होने वाले लोग होते हैं.. भावनात्मक रूप से जुडा कोई व्यक्ति किसी को भटकते हुए नही देखना चाहेगा..खैर भैय्या वापस लौंटें..घर परिवार के बीच.. यही कामना होगी
संग सार सीमा अभी कुछ दिनों पहले तो पटना में मिले थे एक कार्यक्रम में उनकी कविता पढने की शैली काफी जानदार लगी थी मुझे ….
Dhananjay Mani Tripathi मैं भी नीलय जी से मिल चुका हूँ और उनकी किताब जो उन्होंने मुझे भेट किया था के लिए मैं उनका शुक्रगुजार हूं… बहुत अच्छी किताब है। आप भी पढिये
सोनी मणि इस पोस्ट को पढ़ कर बहुत दुख हुआ… निलय जी वास्तव में बीमार लग रहे हैं।
Seema Singh बहुत मार्मिक हृदय स्पर्शीय बातें कहीं, साथ ही तकलीफ भी महसूस हो रही है। तरस भी आता है, लेकिन कुछ किया नहीं जा सकता … सुनना उन्हें किसी की बरदास्त नहीं, हर किसी से नाराजगी, काश ! इन्हें कोई समझा पाता कि उनका यह भटकाव आत्म हत्या से कम नहीं है। शायद वह मानेगा नहीं लेकिन यह मेरा धर्म भाई है, भटक रहा है, मन का मौजी है … देख रही हूँ कैसा कंकाल सा हो गया है, कोई पूछे लक्ष्मी उपाध्याय से उनके दिल पर क्या गुजरती होगी… लेकिन नहीं, निलय उपाध्याय भला उनके बारे में क्यों सोचेंगे… उन्हें तो अपनी पसन्द की जिन्दगी जो जीनी है फिर भले ही उनके पीछे जो रह गए… वो कहीं जाए, कुछ भी करें …
Subhash Neerav निलय जी को लेकर लिखा तुम्हारा यह संस्मरण दिल को झकझोर गया! ऐसे भी खुद्दार और जुनूनी लोग हैं अभी दुनिया में! ईश्वर उन्हें स्वस्थ रखे और उनके भीतर का जुनून और ऊर्जा बनाए रखे!
Shachi Mishra क्या कहूं लिखने के लिए शब्द नहीं मिल रहे हैं कई सालों से मेरे Facebook पर मित्र हैं पुराने चेहरे और आज के चेहरे में जमीन आसमान का फर्क आ गया है
Anand Gupta ओह! साल भर में उनसे दो बार मिल चुका हूँ। वे शरीर से क्रमशः दुर्बल पड़ते जा रहे हैं। चिंता हो रही है।
Rupa Singh निलय उपाध्याय! बहुत अपना आत्मीय नाम मेरे लिए। बहुत छोटू सी थी, नागार्जुन दादा के उकसाने पर पत्रिका निकालने का काम किया, पहली कृति में छपे दो बड़े नाम, रामधारीसिंह दिवाकर और निलय उपाध्याय। तुरंत भेजी थी अपनी कविताएँ। उन्हें याद हो न हो। अपनी मर्ज़ी से जीवन जीना यही होता है.. मैं एक लाचार, भयभीत सक्षम, उनके इस सशक्त विजय क्रांति पथ को सलाम करती हूँ। जलन महसूस करती हूँ। उन्हें मेरा अतीव स्नेह।
Anuradha Singh बहुत गर्व है कि निलय जी को व्यक्तिगत रूप से जानती हूँ, परस्पर प्रचुर सम्मान व स्नेह है। उनसे जब मिली उनमें एक विनम्र मृदुल कवि देखा। उनके जैसे कम लोग हैं जो पर्यावरण की चिंता में घर बार छोड़ सन्यासियों सा जीवन जियें। साधुवाद आपके इस लेख का।
शंकरानंद निलय जी के बारे में जानकर दु:ख हुआ। जो समय और समाज बन रहा है उसमें यह दुर्घटना सहज संभव है।
Ushakiran Khan निलय, ये क्या कर रहे हो? लौट आओ तुरत। कैसी भी दुनिया है, उसके साथ जीकर हिलाओ दुनिया को। लौटो बाबू!
Kumar Sushant निलय जी बहुत ही भद्र इंसान है।
Sarang Upadhyay इधर बीते दो साल पहले दिल्ली में मुलाकात हुई जब गंगा वाली किताब का विमोचन था. उसके बाद मिला नहीं. मुंबई में पास ही रहते थे. गंगा वाली किताब के कई पन्ने पढ़कर सुनाते रहे. कभी कविताएं तो कभी कहानियां. एक दिन खुद बनाकर लिट्टी चोखा खिलाए. सर बीते दिन बहुत याद आते हैं. उनके साथ लंबा समय बीता. लेकिन ये पोस्ट व्यथित करती है. वे बहुत ही भावुक हैं. अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखिए अब Nilay Upadhyay सर अब बहुत हुआ घर आ जाइए.
Dibyopama Astha Thank you Hareprakash Upadhyay ji… aapke post aur aapke concern ke liye… papa wapas ghar Laute ya na laute… we are there for him.. we have full faith over his work too… thoda miscommunication ho gaya … Lambe samay tak ghar se bahar hone ke vajah se ..
Udbhrant Sharma मेरी कभी भेंट नहीं हुई,मगर तुम्हारी इस पोस्ट ने मुझे भी हिला दिया।निलय नोएडा आएं तो उनके पुनर्वास की बात सोची जाए।मैं इतना ही कहूँगा कि आपको परिवार और बच्चों के साथ ऐसा खिलवाड़ करने का हक़ नहीं। ऐसा जीवन जीने की चाह थी तो विवाह से दूर रहना चाहिए था।मेरी…See more
Nagendra Pratap निलय से डेढ़ साल पहले दो मुलाकातें हुई थीं, बनारस में। भाऊ (राघवेन्द्र दुबे) के साथ आए थे। उस वक्त देखकर ये तो नहीं लगा था कि बात यहां तक पहुंच चुकी है। मैंने तब इसे निलय की पुरानी फक्कड़ी के रूप में ही लिया था। बनारस में ही रहकर गंगा वाला काम कर रहे थे। एक-दो प्रेस कांफ्रेंस भी की थीं गंगा घाट पर। उस दौरान फोन पर कई बार बात भी हुई। लेकिन हरे, आपने जो तस्वीर दिखाई है वह विचलित करने वाली है। ‘अकेला घर हुसैन का’ लिखने वाले निलय को लौटना होगा घर को। तुम्हारा घर भी अकेला है मित्र … तुम्हारे इंतजार में।
Sheela Punetha दो साल पहले मैं भी निलय जी से मिली थी .तब इतने कमजोर नहीं थे .उन्हें घर लौटना चाहिये .ये सारे काम वे घर में परिवार के साथ रहकर और अच्छी तरह कर सकते .
Shailendra Kumar Shukla निलय भैया से दो बार BHU में मिलना हुआ, जानता पहले से था उनकी कविताओं के माध्यम से । बहुत दिलचस्प और जिंदादिल इंसान।
Dev Kumar Pukhraj वाकई ऐसे ही और इन्हीं परिस्थितियों में जी रहे हैं निलय जी। लेकिन वे दया और करुणा के पात्र नहीं है। उनके भीतर जुनून है। गंगा और व्यवस्था को लेकर गुस्सा है। हम उनके शुभचिंतक हैं तो हमें उनके मिशन की गंभीरता को समझना होगा। उनका साथ देना होगा। बाकी रही घर-परिवार की बात, तो उसको लेकर अलग-अलग राय हो सकती है। मेरी भी है।
Kumar Sushant हरे भाई। एक निलय जी पर एक केंद्रित अंक मंतव्य का निकालिए। निलय जी से सीधे मेरा संपर्क नहीं है पर मुझे लगता है कि एक अंक इस आदमी पर निकलना चाहिए।
Mahesh Shrivastava समर शेष है नहीं पाप का भागी केवल व्याध जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनका भी अपराध
Ranjana Gupta कितने निलय होंगे और भी ..ओह कुछ पहचान में आ जाते है कुछ नहीं ..
Sandeep Tiwari आप मिल के हिल गये सर और मैं पढ़ के हिल गया..
Shikha Singh हरे प्रकाश जी निलय सर अभी पिछले नवीन भी क ई दिन रुक कर गये थे मेरे घर,और अभी सीधे हमारे घर फर्रुखाबास में दो रोज रुकने के बाद आपके पास गये है, निलय सर मुझे भी बहुत दुःख हो रहा है पर कोई सवाल नही करूँगीं , बस दुआ करुँगी कि वो अपने इस कार्य में सफलता प्राप्त करें मेरी शुभकामनाएँ